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सुरेश सौरभ

आखिरी खत



पूरे देश में कोरोना वायरस के खौफ को लेकर लॉकडाउन में सब कुछ बंद कर दिया था सरकार ने। मोहित दिल्ली की एक बड़ी फैक्ट्री में काम करता था। वह दिहाड़ी मजदूर था, लिहाजा सब मजदूरों की तरह वह भी सड़क पर आ चुका था। घर वापिस जाने के लिए रेल बस सब बंद थे, ऊपर से फैक्ट्री मालिकों की बेवफाई, जिसके कारण बेबस मजदूरों को दर-ब-दर भूखों मरने के लिए विवश कर दिया था। कुछ दिन मजदूर किसी साधन-वाहन की तलाश में भटकते रहे, जब कोई आस न दिखी तब सैकड़ों कि.मी. का सफर अपने कदमों से नापते हुए चल पड़े। जेठ की धूप-लू से जूझते भूख-प्यास में अपने-अपने घरों की ओर चल रहे गिरते-पड़ते मजदूरों की अनगिन तकलीफें ईश्वर के अलावा कोई और न देख रहा था।

किसी तरह सात सौ किलोमीटर का सफर पैदल दिन-रात तय करके जैसे ही टूटा-थका-हारा मोहित अपने गाँव की सीमा में पहुँचा वैसे ही किसी ने उसे देख लिया और फौरन सरपंच को फोन कर दिया। वे चटपट अपने साथियों सहित दौड़े चले आए और उसे रास्ते में ही रोक कर कोरोना का खौफ समझाते हुए और तमाम सरकारी दस्तूरों की दुहाई देते हुए 14 दिन क्वारंटीन में रहने के लिए गाँव के सरकारी स्कूल में भेज दिया। उस स्कूल में कई उसी के जैसे किस्मत के मारे, दर्द के मारे, मजबूर, यानी मजदूर रखे गये थे, उन्हीं के साथ मोहित भी अपने गमों के गुबारों को कम करने की कवायद में लग गया।

आपदा काल में भी सरकारी पैसों को हड़पने का अपना सनातन पुरातन अवसर समझने वालों की हिन्दुस्तान में कोई कमी नहीं है। मोहित के उस गाँव के क्वारंटीन सेंटर में न बिजली, न पीने का पानी। क्वारंटीनों के लेटने-बैठने के लिए टेन्ट हाउसों के गंदे-मैले दरों पर भिनभिनाती मक्खियाँ, और दिन में भी सुई की तरह डंक मारने वाले मच्छरों के रेले के बीचोंबीच खड़ा शौचालय, जिस पर जड़ा ताला सरकारी इंतजामों को मुँह चिढ़ा रहा था। ऐसे में उनके लिए सरकारी खाने की बात करना सरासर बेमानी होगी। लिहाजा क्वारंटीन लोगों को उनके घर-परिवारी ही दूर से खाना दे जाते। मोहित की बूढ़ी माँ कुछ न कुछ अपने बेटे को सुबह-शाम दे आती। क्वारन्टीन के पाँचवें दिन मोहित के खून का सैंपल लिया गया। चार दिन बाद जब रिपोर्ट आई तो वह निगेटिव निकला। मोहित कोरोना वायरस से मुक्त था, पर गाँव के सम्पन्न और ओहदेदार लोगों का मानना था कि मोहित क्वारंटीन के अपने चौदह दिन पूरे करे। क्वारंटीन के ग्यारहवें दिन उसे दुःखद खबर मिली कि उसके बूढ़े पिता किसी अज्ञात बीमारी के चलते इस संसार से कूच कर गये। उसे अपने पिता के अंतिम दर्शन की हार्दिक लालसा थी। क्वारन्टीन के पहरे पर लगे लोगों के सामने उसने आँसू बहाते हुए विनय की, “भैया जी, चंद मिनट के लिए अपने मरे बाप का मुँह देख आऊँ, मुझ गरीब पर बस इतनी मेहरबानी करिए। मुझ पर यकीन करो वहाँ मौजूद किसी को न छूऊँगा। बड़ी दूर से बस उन्हें इस संसार से जाते हुए एक क्षण के लिए अपनी प्यासी आँखों से निहारना भर चाहता हूँ। मुझ पर बस इतनी कृपा कर दीजिए।“

पर सरकार और सरपंच के बड़े नियम-कायदों के पाबंद प्रहरियो ने बस इतना भर कहा, “हम अपनी ड्यिूटी के आगे विवश हैं, हमें माफ करो भाई।“

तब वह अपनी बदकिस्मती को कोसता हुआ, रंज-ओ-गम के समन्दर को अपनी आँखों से उलीचता हुआ, अपने गम गलत करने का निष्फल प्रयास करता रहा।

जब अगले दिन वह बहुत उदास और चिन्ता में डूबा बैठा था, तभी उसके फोन की घंटी बजी। देखा, तो अम्मा लिख कर आ रहा था। फोन उठाया, तो उधर से भर्राए और कांपते स्वर से माँ बोली, “बेटा तेरा बूढ़ा बाप इस संसार में नहीं रहा।“ फिर तो अम्मा फूट पड़ीं।

मोहित तब रूआँसे स्वर में बोला, “मुझे खबर मिली थी अम्मा पर ...”

फफक पड़ा।


‘‘तेरी मजबूरियाँ मैं समझतीं हूँ। तू आना चाह रहा होगा, पर जमाने भर की बेड़ियाँ तेरे पैरों में होंगी। मैंने तो तेरे बाप के जाने के बाद बिलकुल खाट ही पकड़ ली। ऐसा लग रहा है, दुनिया भर की बीमारी दीमक की तरह मेरे ही शरीर को आ लगीं हो। सत्यानाश हो इस कोरोना का, जिसने ऐसी दुःख की घड़ी में तुझे मुझसे जुदा कर दिया। अब तो, यह बूढ़ी हड्डियाँ भी साथ छोड़तीं जा रहीं हैं। दो कदम चलने पर पोर-पोर दुखतीं हैं। मेरी एक बात मानेगा मोहिते!”

‘‘बता अम्मा।’’

‘‘आज तू दस मिनट की मोहलत माँग कर आ जा। मुसीबत के समय अगर चंद घड़ियों के लिए ही अपने साथ हो तो कुछ दर्द जाता रहता है। तूने कल से कुछ खाया-पिया न होगा। आ मेरे लाल कुछ रूखा-सूखा खा ले आकर यहाँ। वहाँ तो सिर्फ रुसवाइयों के अलावा कुछ न मिलेगा।’’

माँ की करुण पुकार सुनते हुए उसने इधर-उधर अपनी तेज नजरें दौड़ाईं। क्वारंटीन रक्षक नदारद। दोपहर का समय तेज धूप और सर-सर-सर बह रही कटीली लू। ऐसे में वे रक्षक कहीं शीतल छाया में सुस्ता रहें होंगे या आराम से कहीं इस घोर सन्नाटे में सो रहें होंगे। यही सब गड्ड-मड्ड खयालों को दिमाग में लाते हुए, धड़कते दिल से बोला, “अम्मा मैं तेरा दर्द समझता हूँ। मैं यहाँ अच्छे में न पड़ा हूँ। मेरा भी दिल तुझसे मिलने के लिए व्याकुल है, पर तू मेरी मजबूरी समझ। अगर किसी ने मुझे गाँव में टहलते हुए देख लिया, तो फौरन पुलिस को फोन करके बता देगा और पुलिस वालों की मार से बड़े-बड़े भूत भागतें हैं। फिर मेरी क्या गत होगी, ये तू अंदाजा लगा ले।’’

‘‘अरे बेटा! कुछ नहीं होगा। भद्दर दोपहरिया का समय है। जेठ की ऐसी तेज धूप और लू में कौन घर से बाहर निकलता है? सुना है क्वारंटीन की देखभाल करने वाला वह दरोगा तो तेरे सेंटर पर दो दिन से नहीं जा रहा है।’’

‘‘हां, यह तो अम्मा तूने सही सुना है। दो दिन से कोई पुलिस का बंदा यहाँ फटकने नहीं आया।’’

‘‘अरे! वो धर्मा है न।’’

‘‘कौन धर्मा।‘‘

‘‘अरे ! वही लल्लू राम का लौंडा। कल रात चुपके से आया था। घर के बाहर दूर से ही सबसे रामजुहार करके और खाना-पीना करके फौरन लौट गया। गाँव में ये चख-चख हो रही है। जब किसी ने देखा नहीं, किसी के पास कोई सुबूत नहीं, तो कौन सरपंच या पुलिस से शिकायत करके अपनी गर्दन फँसाए।

‘‘ठीक है, देखता हूँ।“


चारों ओर घोर सन्नाटा था, कहीं कोई कानी चिड़िया तक न चहक रही थी। जाने कैसा उसकी नस-नस में जोश आवेश भर गया। क्वारंटीन सेंटर के बाहर खुद-ब-खुद उसके कदम उसे खींचे लिए जा रहे थे या एक माँ की ममता उसे खींच रही थी, अब यह पक्का बता पाना मुश्किल था।


अभी अपने धड़कते दिल को संभालते-संभालते सौ डेढ़ सौ कदम चला ही था, तभी एकाएक दरोगा फोकट लाल प्रकट हो गये और उनके पीछे-पीछे लंगूरों की तरह उचक-उचक कर आते दो सिपाही भी उसे दिखे। अब मोहित की जान हलक में अटक गई।

दरोगा रोब में बोला, ‘‘साले कहाँ जा रहा है?’’

अगर चोर पुराना खिलाड़ी हो, तो अपनी अर्जित पूर्व कार्य कुशलता की गणित लगाकर बड़ी तत्परता और सावधानी से बच निकलता है, पर जिसने अभी ही थोड़ी देर पहले चोरी की शुरूआत की हो, तभी पुलिस सिर पर आ धमके, तब हड़बड़ाना और पकड़ा जाना स्वाभाविक है। अटकते और हकबकाते हुए कुछ बोलना चाहा तभी दरोगा ने एक जोरदार तमाचा रसीद कर अपने मुंह से भद्दी-भद्दी गालियाँ निकालनी शुरू कर दीं। तब तक दरोगा के उन लंगूरों ने भी अपने हाथों की सफाई शुरू कर दी।

पुलिस सही करे तब भी सही, गलत करे तब भी सही। पुलिस को भगवान मानना शायद हमारी सनातन मजबूरी है। अगर उसे भगवान न मान कर जरा सा भी किसी ने विरोध किया तो समझो उसके पूरे कुनबे की शामत आ गई।

लंबा-चौड़ा मोहित अपने पर अगर आ जाता तो एक दो पुलिस वालों से निपट सकता था, पर यही सब आगा-पीछा सोच पुलिस की गालियों, लाठियों और झिड़कियों की आंधी को झेल रहा था। तब तक पुलिस के न्याय की पैरवी करने वाले कुछ लोग वहाँ टपक पड़े। जहाँ किसी मजलूम की पिटाई हो रही हो, किसी की जग-हंसाई हो रही हो, तब वहाँ ऐसे तमाशाई अपनी मानसिक रस पूर्ति के लिए जरूर प्रकट हो जाएंगे।

मोहित को पिटता देख वे सब बोले, ‘‘यही सब लोग-बाग पूरे गाँव में कोरोना फैलाना चाह रहें हैं। इनको समझाने का यही सबसे सही तरीका है।’’

जिधर पड़ला भारी हो उधर ही लटक जाना ऐसे तमाशाइयों की फितरत रही है। पुलिस की पीठ में गुड़ मलने का अपना ही मजा है, जो मलता है उसे आत्मीय आनंद प्राप्त होता है तभी तो वह ऐसा उपक्रम करता है। यहाँ पुलिस वालों की ऐसी पीठ मली गई कि एक गरीब की तो कचूमर ही निकल गई। एक असहाय, निरुपाय गरीब की चीखें आकाश को छूने लगीं, ऐसा प्रतीत हो रहा था कि आज पुलिस के अन्याय के आगे समस्त संसार नतमस्तक हो गया हो।


घोर दर्द पीड़ा से छटपटाता रोता-चिहुँकता हुआ जैसे-तैसे वह क्वारंटीन सेंटर पहुँचा। उसकी दुखती पोर-पोर पूरी सरकारी अव्यवस्था को रोते दिल से हजारों-लाखों बद्दुआएँ दे रहीं थीं।

किसी ने यह खबर उसकी बूढ़ी माँ को दी अब तो तमाम दुःखों से हारी बुढ़िया पर जैसे वज्रपात हुआ। एक आंतरिक टीस बेटे के भूख की तो दूसरी दिल को दुखाती पुलिस की पिटाई की पीड़ा। लिहाजा रूखा-सूखा बांध कर हांफते-कांपते हुए चली। कहाँ चलने-फिरने से बिलकुल लाचार थी, अब बेटे के दुखों से द्रवित होकर भागी जा रही थी। हाय! ममता आज पता चला यह तो मुर्दे में भी जान डाल देती है।

कोई पन्द्रह मिनट लगभग लगे होंगे उसे क्वारंटीन सेंटर पहुँचने में। उसने अपने टूटे दिल से आर्तनाद की।

“मोहित ओ मोहित।’’

उसकी नाद मोहित के हृदय से टकराई, तो वह लंगड़ाता हुआ सेंटर के बाहर आया। उसके चेहरे पर चोट के ताजे निशान, उलझे-पुलझे बाल, धूल से सने गंदे कपड़े और डबडबाई आँखें देख वह एकदम से फूट पड़ी। करुणा ममता के उफनते सागर को न संभाल पाई और एकदम से बेटे को कलेजे से लगाने के लिए जैसे ही लपकी वैसे ही फौरन मोहित पीछे हटते हुआ बोला, “हाँ, हाँ! दूर-दूर रहो अम्मा, वर्ना ...”

तभी क्वारंटीन रक्षक बोल पड़े, “हाँ, हाँ, नियम न तोड़े अन्यथा आप को भी यहाँ 14 दिन इस जेल में बिताने होंगे।“

कदम ठिठक गये। भला सरपंच के रक्षकों से कौन पंगा ले सकता है। क्या पता मेरी इस नाफरमानी और गुस्ताखी के लिए मेरे लाल को फिर पुलिस से ये सब पिटवा दें। यही सब सोच बुढ़िया के कदम जड़ हो गये। उसे लग रहा था, इस महामारी को हटाने के लिए पुलिस की लाठियाँ डाक्टरों से अधिक संघर्ष कर रहीं हैं।

बुढ़िया सजल आँखों से बोली, “नाश हो पुलिस वालों का। पता नहीं कहाँ-कहाँ मारा है मेरे लाल को। मैंने नाहक ही तुझे फंसा दिया। मुझे माफ कर देना बेटा।’’

मोहित कपोलों तक बहे अपने आँसुओं को पोंछते हुए बोला, ‘‘अम्मा ये तो सब होनी का लिखा-बदा था, इसमें तेरा लेश मात्र दोष नहीं। कौन जानता था तुझे और मुझे यह दिन ईश्वर दिखाएगा। हम गरीबों का इस दुनिया में कोई अपना है ही नहीं।’’

बुढ़िया बेटे को रूखा-सूखा खिला कर कुछ दर्द निवारक आयोडेक्स आदि दे कर चली आई। लाख पूछती रही, “कहाँ-कहाँ चोटें आईं,” पर मोहित हर बार यही कहता रहा, “कुछ खास नहीं आईं, खाली हल्का-फुल्का थपड़िया भर दिया।“

वह जानता था कि अगर माँ को सही-सही सब बता दिया तो जहाँ यह चार दिन चलना हो वहाँ दो दिन भी न चल पाएगी। यही सब सोच अपने अंदर दर्द के उमड़ते-घुमड़ते सैलाब को जब्त कर गया।

14 दिन की दुखद जेल से मुक्त होकर जब मोहित घर लौटा तो घर का नजारा देख कर हैरान था। उसके सामने सरपंच और कुछ ओहदेदार आँगन में पड़ी चारपाई पर विराजमान थे और उनके साथ आए गाँव के कुछ लल्लू-पंजू व बिरादरी के चुनिन्दा लोग भी जमीन पर पड़े दरे पर आसन जमाये थे। इन्हें गाँव के सारे लोग तीसमारखाँ मानते थे। उनकी शक्लों से लग रहा था कि किसी गंभीर विषय पर चर्चा पहले से चल रही हो और अब आत्ममंथन चल रहा है। सरपंच मोहित की ओर मुखातिब थे। बोले, “बेटा तुम्हारे भाई बिरादरी के लोग हमें यहाँ ले आए। सबका यही कहना है कि तेरे बाप का अभी तक मृत्यु भोज नहीं हो पाया है। अब तू सकुशल आ गया है, तो यह पुण्य भी कमाता चल।’’

मोहित रोआँसे स्वर में बोला, “सरपंच जी, मैं तो हालात का मारा हूँ। दिल्ली कमाने गया था, पर लौटा कंगाल होकर पैदल-पैदल भूखे-प्यासे। ऊपर से क्वारंटीन की तमाम मुसीबतें, इस त्रासदी में कितना दुख और कितनी पीड़ाएँ भोगी हैं, मैं जानता हूँ या मेरी आत्मा जानती है।’’

तब सरपंच के साथ आए उसकी बिरादरी के मुखिया बोले, “अगर दिल में कुछ करने का जज्बा हो, तो बेटा ऊपर वाला मदद जरूर करता है। अगर वह एक राह बंद करता है, तो दूसरी जरूर खोल देता है। तेरे पास खेत है, तेरी माँ के जेवर हैं, अगर तेरे बाप की आत्मा की शान्ति के लिए दुनिया की रस्मों रिवाज के लिए इन्हें रेहन पर रख दिया जाए, तो क्या बुराई है? आज तेरे पास काम नहीं है, कल होगा, परसों होगा, जब यह तेरे हाथ-पाँव सलामत हैं, तो पता नहीं कितना कमाकर बहा देगा।’’

मोहित - कल का क्या भरोसा। आज जब मेरे घर खाने के लाले हैं। तब मैं कल किसके भरोसे अपनी जान जहामत में डाल दूँ।

अब बुढ़िया से न रहा गया बेहद दुखी दिल से बोली, “सरपंच जी, मोहित जब छोटा था, तभी अपनी दो बेटियों की शादी के लिए खेत रेहन पर रख दिए थे। फिर चार बीघे खेत का मूल ब्याज मजूरी करके चुकाते-चुकाते इसके बाप भी इस संसार से विदा हो गए। रह गए जेवर, वो तो सब इसके बाप की ही बीमारी में ही उठ गए।’’

अब सरपंच के बगल में बैठे पंडित जी बोले, “अरे! बहन जी कुछ तो बिरादरी में अपनी नाक का खयाल करो? क्या सब दीन-धर्म भूल जाओगी? कहे देता हूँ दीन-धर्म से गये आदमी का न इस लोक, न उस लोक में भला होता है।’’

ऊपर आकाश की ओर हाथ उठाते हुए मानो भगवान ने इन्हें ही अपना प्रतिनिधि रख छोड़ा हो।

‘‘कुछ उस परमात्मा का खयाल करो। जेवर खेत न सही कोई बात नहीं ईश्वर का दिया यह घर तो है। अगर इसे रेहन पर रख दिया जाए तो कोई भी बीस-तीस हजार आसानी से दे देगा। इतने दिलदार अभी इस मनिहारी गाँव में तमाम पड़े हैं।’’

सरपंच मोहित के घर पर पहले से गिद्ध दृष्टि लगाए बैठा था। उसके पास एक सरकारी परवाना आया था, जिसमें लिखा था कि सरकार उस एरिया की कौड़ियों के मूल्य वाली जमीन को किसी मूर्ति स्थापना के लिए किसी भी कीमत पर खरीदना चाहती है। करोड़ों कमाने के सपने उसकी जागती आँखों में जगमगा रहे थे। इन्हीं वहशी विचारों में उलझा-पुलझा वह कुटिल मुस्कान बिखेर कर बोला, “अरे! मैं तो तीस हजार सबसे कम ब्याज पर दे दूँगा। दो-चार हजार ऐसे ही दान-मान में दे दूँगा। अगर मेरे हाथ से किसी का परलोक सुधर जाए तो इससे बड़ा मेरे जीवन का पुण्य और क्या होगा। मैं तो हमेशा तुम दबे-कुचले लोगों के काम आया हूँ। यह तो सारा जहान जानता है।’’

तब बिरादरी के मुखिया ने सरपंच के स्वर में अपना स्वर मिलाया।

“सरपंच जी जैसा विशाल हृदय वाला इंसान इस दुनिया में दुर्लभ है। इससे ज्यादा कोई कुछ कर भी नहीं सकता। हम चमारों की बिरादरी में अभी तक इस गाँव में कोई इस लायक भी नहीं है, जो तेरी इतनी मदद कर सके। हाँ मैं इतना वचन देता हूँ कि तीस हजार में बिरादरी के खाने का पूरा इंतजाम करा दूँगा। जो कमी-वेशी होगी सरपंच जी तो हमारे साथ खड़े हैं।’’ सरपंच जी की ओर देखते हुए, ‘‘क्यों सरपंच जी खड़े हैं या नहीं।’’

दरिया दिल सरपंच बोले, ‘‘मैं तो हमेशा तुम लोगों के साथ दिन-रात खड़ा हूँ। तुम गरीबों की सेवा के लिए ही मैं यह सरपंची जीत कर आया हूँ।’’

बिरादरी के मुखिया बोले, “तो भाइयों! सब भाई-बिरादरी और गाँव के लोगों को यह बात मंजूर है?”

सभी ने एक स्वर में मुखिया जी बात का समर्थन किया। गाँव वाले पहले से तैयार थे। बिरादरी वाले न तैयार होते, तो बिरादरी से बाहर जाने का खौफ। बिरादरी से बाहर गए तो बिरादरी के काम-काजों से बाहर और काम-काजों से बाहर हुए तो उनके बेटे-बेटियों की शादी-ब्याह के लाले पड़ जायेंगे। यह खतरा कोई मोल न लेना चाहता था।

घोर दुःख पीड़ा के चौराहे पर जब आदमी खड़ा होता है, तब उसकी समझ में नहीं आता कि वो किस राह पर जाए। या ये भी कह सकते हैं कि तमाम दुःखों से लदे आदमी के शक्तिहीन होने पर प्रायः उसकी मति भंग हो जाती है। फिर तमाम लोग जो सही राह बताते हैं, वह टूटा-हारा आदमी उसी ओर अपने बोझिल कदमों से चल देता है। कमोवेश मोहित और उसकी बूढ़ी माँ की भी यही मनोदशा थी। पंडित जी को पाँच रुपया देकर मुखिया ने पत्रा खुलवाया। पंडित जी ने परसों ही शाम को मृत्यु भोज का मुहूर्त निकाला। तय कार्यक्रम के अनुसार सरपंच जी परसों सुबह मोहित के सामने मुखिया को तीस हजार सौंपेंगे। मुखिया जी अपने विश्वास पात्रों को पैसा देकर सुबह ही भोज सामग्री लाने के लिए बाजार भेजेंगे। फिर हलवाई तय समय के अनुसार खाना तैयार करके देगा।


गोधूलि बेला आने तक बुढ़िया ने जैसे-तैसे साग रोटी बनाई। माँ-बेटे आज बरसों बाद एक साथ खा रहे थे। बुढ़िया एक कौर खाती फिर मोहित को ताकने लगती। मोहित एक कौर खाता फिर अपनी अम्मा के झुर्रीदार कपोलों पर बहते बेरहम आँसुओं को अपनी सजल आँखों से निहारता। ऐसा प्रतीत हो रहा था कि जैसे दुनिया भर के दुख नागफनी की तरह उनके आस-पास स्थाई आश्रय बनाए कुंडली मार कर बैठ चुके हो।


आँगन में रात को दोनों का आस-पास बिस्तर लगा। देर रात तक माँ-बेटे एक-दूसरे का दुःख-सुख बाँटते रहे फिर नींद की आगोश में समा गये। पौ फटते सुबह बुढ़िया की नींद खुली, तो देखा मोहित अपने बिस्तर से गायब था। बुढ़िया ने सोचा शायद शौचादि के लिए गया हो। लिहाजा तसल्ली से झाड़ू उठाई और बुहारने लगी। आँगन से बुहारते-बुहारते जैसे ही कोठरी नुमा उस कमरे की ओर गई, तो उसकी आँखें फटी की फटी रह गई और जुबान तालू से चिपक गई। अब वह एकदम स्टेचू की तरह अवाक निःशब्द।.. कुछ क्षण बाद जब उसकी चेतना लौटी तो जोर से दहाड़ मार कर चीखी और धड़ाक से तुरन्त जमीन पर गिर कर बेहोश हो गई। उसकी करुण दहाड़ सुन अड़ोसी-पड़ोसी वहाँ भागे चले आए। कोठरी का दुखद नजारा देख सभी के कलेजे मुंह को आ लगे। मोहित छत के छल्ले से लटक कर इस संगदिल दुनिया को अलविदा कह चुका था।


गाँव के सरपंच बिरादरी के मुखिया सहित तमाम लोग वहाँ पहुँचे। सरपंच ने खानापूरी के लिए पुलिस को सूचना दी। पुलिस आई। लाश छल्ले से नीचे उतरवाई। जामा तलाशी हुई, जिसमें एक अदद परचा बरामद हुआ, जिसे पुलिस वाले अपनी भाषा में सुसाइड नोट कह रहे थे। गाँव वालों ने जब इसका मतलब सरपंच से पूछा तो उन्होंने कहा खुदकुशी करने का पर्चा। तब सारे गाँव वाले उस परचे को सुनने के लिए अड़ गये।

पुलिस कह रही थी, ‘‘यह रिपोर्ट के साथ नत्थी होकर जायेगा सब को सुनाना गैर कानूनी होगा।’’

सारे गाँववासी वह पर्चा सुने बिना पुलिस को लाश लेकर जाने न दे रहे थे। गाँव वालों के बढ़ते रोष-आक्रोष को देखकर बिरादरी के मुखिया और सरपंच ने भी पुलिस से आग्रह किया कि पर्चा सुना दें तो गाँव वालो को कोई मलाल न रह जायेगा।

अब बुढ़िया होश में आ चुकी थी। चारों ओर गाँव वासियों से घिरी दहाड़े मार मोहित की लाश पर पछाड़े खा-खा कर रोए जा रही थी। लोग उसे शान्त करा रहे थे। अब पुलिस गाँव वालों के दबाव में, अपने कानूनी हथियार डाल, मोहित का आखिरी खत सुनाने जा रही थी। कक्षा सात पास मोहित ने अपनी टूटी-फूटी भाषा में रूह के दर्द को कागज के जिस्म पर जो उतारा, उसका वाचन एक सिपाही ने किया। उसका मैं सार यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ।

“आदरणीय अम्मा जी सादर चरण स्पर्श। मैं इस दुनिया से जा रहा हूँ। मुझे माफ कर देना।

मुझे पता नहीं कि आदमी मरने के बाद स्वर्ग जाता है या नरक। मुझे तो अब अपनी जिंदगी ही नरक लगने लगी है। मैं अपनी इस नरक की जिंदगी से बहुत आजिज आ चुका हूँ। दिल्ली से पैदल-पैदल आते-आते मेरी कमर टूट चुकी है और शरीर का पुर्जा-पुर्जा ढीला पड़ चुका है। ऊपर से पुलिस की पिटाई से मेरा शरीर बिलकुल लुंज-पुंज हो चुका है। अब मैं किसी काम करने के लायक नहीं रहा और न ही मेरे पास इलाज के लिए पैसे हैं। मैं अपने शरीर से पूरी तरह विकलांग हो चुका हूँ। अगर पिता जी का मृतक भोज, घर गिरवी रख कर किया जाता तो मुझे पता है, वह कर्जा अपने जीते जी मैं कभी न उतार पाता और अपने पुरखों की एक मात्र निशानी इस घर को खोकर, दर-दर ठोकरे खाते हुए, अपनी बूढ़ी माँ के साथ भीख माँगने के लायक ही रह जाता। गाँव के सूदखोर गरीबों को कैसे तिल-तिल मारते हैं, यह सारी दुनिया जानती है।’’

अब सरपंच और मुखिया हैरत से एक-दूसरे का मुंह ताकने लगे। सिसकती बुढ़िया एक-एक शब्द अपने हृदय की गहराइयों में उतारते हुए आत्मा के सीखचों में कैद कर रही थी। उधर सिपाही की जिह्वा पर जैसे आज सरस्वती जी विराज मान हो गईं हों वह बेलाग चिट्ठी पढ़ता जा रहा था।

‘‘मृतक भोज के बाद भी अगर गरीबों के परलोक सुधर जाते, तो दुबारा इस संसार में गरीब न जन्म लेते, न यहाँ गरीबी में नरक भोगते, न गरीबों का दुनिया शोषण करती। मैं चाहता हूँ मुझ जैसे गरीबों पर थोपे गये ऐसे अंधविश्वास सदा के लिए इस संसार से समाप्त कर दिए जाए। यही मेरी अंतिम इच्छा है। मैं तो इस संसार से जा रहा हूँ। मेरी आप सब लोगों से बस यही विनती है कि मेरे मरने के बाद मेरे और मेरे बाप के मृतक भोज के लिए मेरा घर रेहन पर न रखा जाए। मैं अपनी इस अंतिम विनय के साथ इस निर्दय संसार से हमेशा के लिए जा रहा हूँ। मेरी मौत पर किसी का दोष नहीं हैं। सभी गाँव वालों को राम-राम, सलाम और जय भीम।

 

लेखक परिचय - सुरेश सौरभ

शिक्षा : बीए (संस्कृत) बी. कॉम., एम. ए. (हिन्दी) यूजीसी-नेट (हिन्दी)

जन्म तिथि : 03 जून, 1979


प्रकाशन :

दैनिक जागरण, राजस्थान पत्रिका, हरिभूमि, अमर उजाला, हिन्दुस्तान, प्रभात ख़बर, सोच विचार, विभोम स्वर, कथाबिंब, वगार्थ, पाखी, पंजाब केसरी, ट्रिब्यून सहित देश की तमाम पत्र-पत्रिकाओं एवं वेब पत्रिकाओं में सैकड़ों लघुकथाएँ, बाल कथाएँ, व्यंग्य-लेख, कविताएँ तथा समीक्षाएँ आदि प्रकाशित।


प्रकाशित पुस्तकें :

एक कवयित्री की प्रेमकथा (उपन्यास), नोटबंदी, तीस-पैंतीस, वर्चुअल रैली, बेरंग (लघुकथा-संग्रह), अमिताभ हमारे बाप (हास्य-व्यंग्य), नंदू सुधर गया, पक्की दोस्ती (बाल कहानी संग्रह), निर्भया (कविता-संग्रह)


संपादन :

100 कवि, 51 कवि, काव्य मंजरी, खीरी जनपद के कवि, तालाबंदी, इस दुनिया में तीसरी दुनिया।


विशेष :

भारतीय साहित्य विश्वकोश में इकतालीस लघुकथाएँ शामिल। यूट्यूब चैनलों और सोशल मीडिया में लघुकथाओं एवं हास्य-व्यंग्य लेखों की व्यापक चर्चा।

कुछ लघुकथाओं पर लघु फिल्मों का निर्माण। चौदह साल की उम्र से लेखन में सक्रिय। मंचों से रचनापाठ एवं आकाशवाणी लखनऊ से रचनापाठ।

कुछ लघुकथाओं का उड़िया, अंग्रेज़ी तथा पंजाबी आदि भाषाओं में अनुवाद।


सम्मान :

अन्तरराष्ट्रीय संस्था भाखा, भाऊराव देवरस सेवा न्यास द्वारा अखिल भारतीय स्तर पर प्रताप नारायण मिश्र युवा सम्मान, हिन्दी साहित्य परिषद, सीतापुर द्वारा लक्ष्य लेखिनी सम्मान, लखीमपुर की सौजन्या, महादलित परिसंघ, परिवर्तन फाउंडेशन सहित कई प्रसिद्ध संस्थाओं द्वारा सम्मानित।


सम्प्रति :

प्राइवेट महाविद्यालय में अध्यापन एवं स्वतंत्र लेखन।


सम्पर्क :

निर्मल नगर, लखीमपुर-खीरी (उत्तर प्रदेश)

पिन कोड- 262701

मोबाइल- 7860600355

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