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  • अलका धनपत

आशीर्वाद

माधवी ने पिछले तीस वर्षों के शिक्षण कार्य में अपनी यूनिवर्सिटी से कोई ‘सिक-लीव’ नहीं ली थी। कोरोना का प्रकोप कहर ढा रहा था वह भी ऑनलाइन कक्षाएँ ले रही थी। पर वरिष्ठ प्राध्यापिका तथा विभागाध्यक्षा होने के कारण, उसे बीच-बीच में प्रशासनिक कार्यों के लिए भी विश्वविद्यालय जाना पड़ता था। सभी भयभीत से रहते थे कि कहीं डॉ माधवी भी मरीज़ ना बन जाए। मुँह पर दो-दो मास्क, सेनेटाइज़र पास में, ओह! कितने बंधन लगा दिए हैं, इस कोरोना ने। घर से निकलते-निकलते भी कुछ न कुछ याद आ ही जाता है। फिर से वापिस आओ, सब कुछ बटोरो। कभी मास्क, तो कभी सेनेटाइज़र तो कभी पानी की बोतल ....। जाने कब पीछा छूटेगा। इस वायरस से! बुदबुदाती हुई वह बाहर निकलती।

डॉ माधवी अपनी माँ तथा पिताजी के साथ रहती थीं। कहती थीं मेरा जीवन तो मेरे मानस-पुत्र तथा मानस पुत्रियों की सेवा में बीत जाए, बस! यही इच्छा है। मैं शिक्षा के क्षेत्र में, अपना विशेष योगदान देना चाहती हूँ। घर में एक छोटा-सा पुस्तकालय भी बन गया था। छात्र कभी-कभी छुट्टी के दिन उनके घर पर भी पढ़ने के लिए आ जाते थे।

माधवी के पिताजी को अल्ज़ाइमर हो गया था। एक बड़े होटल का कारोबार! कुछ भी याद न रहा। कितने शेयर, कितनी बैंक में धनराशि सब कुछ भूल गए हैं । बड़ी ही कठिनाई से डॉ माधवी जो कागज़ आदि समेट सकी वह समेटा बाकी हरि इच्छा पर छोड़ दिया गया । माँ भी तो वृद्धा थी । पिताजी को देखने के लिए दो-दो ‘गार्दमालाद’ (Caretaker) रखे गए और अब तो कोरोना के कारण पर्यटन तथा होटल व्यापार दोनों ही थक से गए थे। पर पिताजी तो सब भूल चुके थे अत: उनका दर्द कम था । माँ ज़्यादा दुखी थी । सब कुछ सिमट-सा गया था। सादा भोजन, सादा पहनावा, दवाइयाँ, डॉक्टर, बिस्तर तथा मरीज़ की वस्तुएँ । एक ओर अल्ज़ाइमर तो दूसरी ओर शरीर की मांसपेशियों का कमज़ोर होना । अब तो केवल ‘व्हील चेयर’ और बिस्तर ! बस यहीं तक पापाजी की दुनिया सिमट कर रह गई थी । माँ याद करती कि कितनी चहल-पहल थी ज़िंदगी में । देशी ही नहीं विदेशी मेहमानों का भी ताँता लगा रहता । आयुर्वेदिक एलोपथी सब दवाइयों के प्रयोग हुए, पर मरीज़ की हालत सुधर नहीं पाई । पापाजी, भोजन आज भी माधवी के हाथों खुशी से खाते थे । माधवी के पिताजी का स्वभाव ही कुछ अधिक मिलनसार था । वे कार्य को अपनेपन के भाव से किया करते थे । इस कारण व्यापार भी खूब तरक्की कर रहा था ।

माधवी पूरी कोशिश करती कि वह गार्दमालाद को इस ड्यूटी से दूर ही रखे । सुबह उन्हें छोटा-छोटा ग्रास तोड़कर रोटी खिलाती तो शाम को भी सूप आदि बड़े ही प्यार से पिलाती ।

पिताजी को कुछ याद नहीं पर जब माधवी उन्हें खाना खिलाती थी तो उनके चेहरे पर, उनकी आँखों में एक चमक दिखती थी । संतुष्टि की, वात्सल्य की, अपनेपन की या क्या, शब्द में बाँधना कठिन है ।

पापाजी की मांसपेशियाँ धीरे-धीरे और भी कमज़ोर हो रही थी । एक मालिश करने वाला तथा कुछ योग एवं प्राणायाम करवाने के लिए एक लड़का भी रख लिया था । पर सब व्यर्थ ही लग रहा था । दोनों माँ-बेटी चाहती थीं कि उनके जीवन की यह कठिन यात्रा सुख तथा सहजता से कट जाए ।

होनी को कौन टाल सकता है । आज माधवी को गले में कुछ खराश-सी महसूस हो रही है । वह माँ को बताना नहीं चाहती । ना चाहकर भी पिताजी से वह थोड़ा दूरी बनाए हुए है । थकान का बहाना करके वह जल्दी ही सोने चली गई ।

ओह ! सुबह तक तो गला क्या सारा बदन ही टूट रहा था । बुखार भी  तेज़ हो चला था । वह उठी । दाँत आदि साफ़ किए, फिर से बिस्तर पर चली गई । पिताजी को देखने जो लड़का आता था वह समझ गया कि माधवी को कोरोना ही है । झट से उसने एम्ब्युलेन्स को फ़ोन किया । तुरत-फुरत उन्हें अस्पताल ले जाया गया । यहाँ भी उनसे पढ़े विद्यार्थी मिले । उनकी जाँच प्रारम्भ हो गई । उन्हें कोरोना था । बुखार तेज़ हो गया था । वे नीम्न बेहोशी की हालत में जाने क्या-क्या बोल रहीं थीं । ‘पिताजी को खाना दो, देखो वे कमज़ोर लग रहे हैं । ‘माँ तुम आराम कर लो ।’ माधवी की हालत चिंताजनक थी । अक्सीजन-सिलेंडर भी जीवन नहीं दे पा रहा था । माधवी के कॉलेज में एक ऐसी कर्मचारी थीं जिन्होंने डॉक्टरों से कहा – ‘इन्होंने अपना सारा जीवन इस कॉलेज के लिए समर्पित किया है, डॉक्टर जी मैं इनकी देखभाल करूँगी । वह दवाइयाँ  लाती, फल लाती, जूस निकाल कर पिलाती । तीन दिन गुज़र गए पर बुखार नीचे नहीं उतर रहा था । आज जब डॉ माधवी को एक विशेष चेकअप के लिए ले जाया जा रहा था तो उसी समय उसके पिताजी को एडमिट किया जा रहा था । बस इस रात के बाद पता चला कि प्रात: होते ही माधवी के पिताजी चल बसे। उन्हें भी कोरोना हो गया था । पर माधवी की हालत सुधरने लगी थी । अब उसका बुखार कम होने लगा था। इस सप्ताह में क्या-क्या हुआ, उन्होंने क्या खाया, क्या बोला यह सब उन्हें कुछ भी याद नहीं था । केवल कहती थीं कि ऐसा लग रहा है मानो मैं बहुत दूर की यात्रा तय करके आई हूँ । उषा ने उनकी बहुत सेवा की थी । वे उससे नाराज़ हो रही थीं । ‘तुमने जो खर्चा किया है, वह तुम मुझसे ज़रूर लोगी।’ वह मना कर रही थी । पर बाद में माधवी ने उसका एहसान मानते हुए, उसे सब लौटाते हुए कहा – ‘तुम्हारे एहसानों को कभी न चुका पाऊँगी।’ 

घर आने पर माधवी को पिताजी का जाना पता चला । माधवी कुर्सी पर धम्म से बैठ गई  और एक लंबी सांस लेकर बोली – ‘पिताजी, जाते-जाते भी आपको मेरी चिंता थी मेरे सारे दुख अपने ऊपर ले लिए । आज आपकी माधवी बाकी का जीवन भी समाज सेवा में ही बिताएगी ।’

 

(यह कहानी सच्ची घटना पर आधारित है ।)


 

लेखक परिचय - डॉ अलका धनपत

वरिष्ठ व्याख्याता 

अध्यक्षा, भाषा संसाधन केंद्र 

महात्मा गांधी संस्थान 

मॉरीशस 

 पच्चीस वर्षों से अधिक अध्यापन का अनुभव 

  स्थानीय रेडियो टी वी पर अनेक कार्यक्रमों की प्रस्तोता 

  जॉर्ज ग्रियर्सन अंतर्राष्ट्रीय सम्मान प्राप्त 

  मॉरीशस की हिन्दी पाठ्यपुस्तकों के निर्माण में योगदान तथा संयोजिका 

अनेक राष्ट्रीय तथा अंतरराष्ट्रीय सम्मेलनों में प्रपत्र प्रस्तुतियां तथा प्रकाशन

राष्ट्रीय रेडियो तथा टीवी पर शैक्षणिक कार्यक्रमों की प्रस्तुति तथा संशोधक 

  बीए, एम ए, अध्यापक शिक्षण कोर्स कार्यक्रमों को करना 

  अनेक छात्र पी एच डी कर रहे हैं । 

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