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  • राघवेंद्र सैनी

तड़पन





धीरे-धीरे चल कर मैं बाहर की बालकनी में आ कर बैठ जाता हूँ. पिछले महीने ही शन्नो, मेरी पत्नी की कोविड-19 से मृत्यु हो गई थी. आज उसकी 13वीं है. इस महामारी में कोई सगा संबंधी नहीं आया. आना भी नहीं चाहिये था. बड़े बेटे के मन में तड़पन थी, ‘आपने, मम्मी ने जीवन में हर जगह निभाया. ऐसे लोगों के मरने पर भी गए जिनको आपने कभी देखा भी नहीं था. पूरे देश में इसी बीमारी के कारण लाकडाऊन था. एक करीबी रिश्तेदार की मां के मरने पर, मम्मी के कहने पर और अपने मन से भी, मैंने अपना फर्ज निभाया था. मैं उनके संस्कार पर पहुंचा था. मम्मी उनके एक किलोमीटर के दायरे में जल रही थी. कोई नहीं आया. चाहे शमशान के बाहर खड़े हो कर कहते कि हम बाहर खड़े हैं, आपके दुख में साथ खड़े हैं. यह मौरल-सपोर्ट होता.’

‘मन मैला न करो. हमने केवल शन्नो की मृत्यु के बारे में बताया था. यह हमें भी नहीं पता था कि संस्कार किस शमशान घाट में होना है.’

मैंने अपने जीवन साथी को खो दिया था. मैं अकेला हो गया. मानता हूं, यही विधि का विधान है. समय बीतने पर सब शन्नो को भूल जाएंगे. सब अपने आप में व्यस्त हो जाएंगे. क्या मैं उसे भूल पाऊंगा? मन को टटोलता रहता हूं. उसने मेरा हर जगह साथ दिया. मजबूती से वह मेरे साथ खड़ी रही. परिवार को स्थापित किया. मन के भीतर यह तड़पन रही कि मैंने उसके लिए क्या किया? क्या हम उसका ठीक से इलाज करवा पाए? भरसक कोशिश की पर सफल नहीं हो पाए.

जाने कब आंखों से दो आंसू टपक कर धरती में समा गए.


पता ही नहीं चला, शन्नो कैसे कोविड इंफैक्ट हुई. वह घर से भी बाहर नहीं जाती थी. घुटनों की तकलीफ के कारण वह ज्यादा चल फिर भी नहीं सकती थी. बस, धीरे-धीरे चल कर नित्य कर्म कर लेती थी. बीमारी में भी वाशरूम अपने हाथों से साफ कर आती थी. बैठे-बैठे सारे काम कर लेती थी.


मैं सेना का जूनियर अधिकारी था. हम दोनों ही ब्लडप्रैशर के मरीज थे. मुझे तो शुगर भी है. मुझे अपने लिए और उसके लिए ई.सी.एच.एस. से - यानी भूतपूर्व सैनिकों के लिए बनी डिस्पैंसरी से - दवाइयों के लिए बाहर जाना पड़ता था. मुझे कानों से कम सुनाई देने लगा था. आंखों में भी मोतिया उतर आया था. शन्नो को कानों के कारण तो नहीं लेकिन आंखों के लिए चिंता थी. कानों के लिए अपनी खूबसूरत आंखों में शरारत और होठों में मीठी मुस्कराहट लेकर कहती थी, ‘अच्छा है, सुनाई नहीं देगा. हमारी बहनों की चुगलियां नहीं सुनोगे.’ मैं केवल मुस्करा देता था. कभी सोचा नहीं था कि इतनी जल्दी साथ छूट जाएगा.

बच्चे कहते, ‘मैं सेना अस्पताल से इंफैक्षन लेकर आया था. ऐसा क्या जरूरी था? ज्यादा से ज्यादा आप देख, सुन नहीं पाते न? वह जिंदा तो रहती.’

मैं अपने को अपराधी मानने लगा. मुझे भी पता न था, मैं कहीं इंफैक्ट हुआ हूं. थोड़ी सूखी खांसी थी. मैं अपने को आईसोलेट भी करना चाहता था. पर शन्नों ने मुझे जाने नहीं दिया. उसको अपनी चिंता नहीं थी. वह मुझे रात को हाथ लगा कर देखा करती थी कि खांसी के साथ बुखार तो नहीं. ऐसी प्यार वाली शन्नो अब कहीं नहीं मिलेगी. मैं दूर अंधेरे शून्य में देखने लगा. जैसे शन्नों मुझे मिल जाएगी.

मन के भीतर का यह अपराध बोध हमेशा रहेगा कि यदि मैं सेना अस्पताल नहीं जाता तो शायद वह इफैक्ट नहीं होती. छोटी बहू तसल्ली देती, ‘पापा जी, आप क्यों दुखी हो रहे हैं. मम्मी, कहीं से भी इंफैक्ट हो सकती थी. घर में मेड आती है, कुक आती है. कोई भी उनको इफैक्ट कर सकता था. जाने किन-किन घरों से काम करके आती हैं. हम भी बाहर जाते हैं.’

घर में इलाज चलता रहा. ड्रिप भी लगी. स्थिति में कुछ सुधार भी हुआ. आक्सीजन लेवल भी कुछ सुधरा. बुखार कंट्रोल में नहीं आ रहा था. एक बार वाशरूम में गई, गिर गई. तब मैंने और छोटे बेटे ने निर्णय लिया कि हम इसे ई.सी.एच.एस. लेकर जाएंगे. वहाँ के डाक्टर ने देखा और बड़े अस्पताल के लिए रेफर कर दिया. दो इंजेक्षन दिए एक बुखार के लिए, दूसरा उलटी न आने के लिए. आक्सीजन वहां भी नहीं थी. दवाएं जो उपलब्ध थीं, मिल गई. मेन दवाई फैबीफल्यू नहीं मिली. बड़े बेटे का ऐशियन अस्पताल में काफी प्रभाव था. वहां पहुंचे तो कोविड के मरीजों का मेला लगा हुआ था. अफरातफरी मची हुई थी. लगता था, कोई जान पहचान काम नहीं आएगी. बेटे ने एमरजेंसी में जान पहचान के डाक्टर को ढूंढ लिया. चीखो पुकार हो रही थी. दारुण चीत्कार हो रहा था. ऐसे वातावरण में अच्छा भला आदमी भी बीमार हो जाए. एक डाक्टर को कई लोग घेरे बैठे थे. सभी अपने मरीजों को दिखाना चाहते थे.

बेटे का प्रभाव काम आया. डाक्टर ने देखा. आक्सीजन लेवल 80 से नीचे चला गया था. 102 बुखार भी था. डाक्टर ने तुरंत कह दिया, कोविड है लेकिन हम कुछ नहीं कर सकते. एडमिषन भी लिख दिया. उसका लाभ नहीं मिला. न आक्सीजन थी, न बेड था. डाक्टर ने वही दवाइयां लिखीं जो ई.सी.एच.एस. ने लिखीं थी. पूरे शहर में दूर-दूर तक कहीं दवाइयां नहीं मिल रही थीं. लगता था, दवाइयां अंडरग्राउंड कर दी गई हैं. तरल में जो दवाइयां मिलीं वे ड्रिप से दी जाती रहीं. सुबह होते-होते हालत बिगड़ने लगी. वाशरूम में फिर गिर गई. मुश्किल से ऐशियन अस्पताल भागे. बड़े बेटे ने कहीं से आक्सीजन के बड़े सिलेंडर का प्रबंध किया. अस्पताल ने वहां आक्सीजन तो लगा दी लेकिन दाखिल करने के लिए बिल्कुल मना कर दिया.

वहीं से ई.सी.एच.एस. के कर्नल से बात की. उन्होंने सलाह दी कि अगर जान बचानी है तो इनको आर्मी बेस अस्पताल लेकर पहुंचो. मैं एडमिषन का प्रबंध करता हूँ. एंबूलैंस नहीं मिली. बड़े बेटे ने अपनी होंडा सी.आर.वी. निकाली. सीटों को लिटाया. आक्सीजन सिलेंडर एडजस्ट किया, शन्नों को अस्पताल के स्टाफ की मदद से बैठाया और तेजी से सेना बेस अस्पताल के लिए भागे. मैं ड्राइवर के साथ दूसरी गाड़ी में वहां पहुंचा. वहां कोविड के लिए अलग ओ.पी.डी. थी. रैंकों का हिसाब तो था लेकिन गंभीर मरीजों को एडमिट किया जा रहा था. पहले आए पहले पाए की नीति अपनाई गई थी.

27 अप्रैल का दिन था जब शन्नों को एडमिट किया गया. उसका आक्सीजन लेवल 50 रह गया था और बेड के लिए 11वां नंबर था. सेना के 2 अफसरों की मदद से तुरंत बेड दे दिया गया. एक ई.सी.एच.एस. के अफसर इंचार्ज कर्नल मुनीष साहब. दूसरे मेरे लिए अंजान ब्रिगेडियर जौहर साहब की कोशिश से यह एडमिषन संभव हो सकी. मैं उनका आभारी हूं. अन्य जिनकी भी जल्दी एडमिषन हो रही थी या तो वे खुद बड़े अफसर थे या सिफारशी थे. छोटे-मोटे जवान तो परेशान इधर-उधर घूम रहे थे. एडमिषन उनकी भी हुई लेकिन देर से.

कार से ही शन्नो को वार्ड में पहुंचाया गया. तुरंत इलाज भी शुरू हुआ. दवाइयां और आक्सीजन शुरू की गई. लेकिन वेंटीलेटर नहीं था. जिस प्रैशर से फेफड़ों को आक्सीजन चाहिए थी, वह वेटिलेटर से ही संभव था. जनरल वार्डों को कोविड वार्ड बना कर मरीजों को एडमिट किया जा रहा था. न किसी को नहीं किया जा रहा था. बेस अस्पताल को भी अंदाजा नहीं था कि कोविड की दूसरी लहर में इतने मरीज आ जाएंगे.

डाक्टर ने मुझे और दोनों बेटों को बाहर निकाल दिया था. बोला, ‘साहब, मैं आपसे बाद में बात करता हूं. हम वार्ड के बरामदे में इंतजार करने लगे. इलाज पूरा करके डाक्टर बाहर निकले तो मेरे पास आए. वे डा. कर्नल डे साहब थे. बोले, ‘हम अपनी तरफ से पूरी कोशिश कर रहें हैं, करते रहेंगे. फिर भी फिफ्टी-फिफ्टी चांस हैं. आक्सीजन के साथ हम सारी दवाइयां ड्रिप से दे रहे हैं. 50 प्रतिशत फेफड़े डैमज हो चुके हैं. अगले 48 घंटे खतरनाक हैं. ’

‘ सर, यह अपने आप क्यों बड़बड़ा रही थी?’

‘साहब, जब आक्सीजन दिमाग तक नहीं पहुंचती, तब ऐसी हालत होती है. यदि आक्सीजन लेवल बढ़ गया और फेफड़े ठीक से काम करने लगेंगे तो यह सरवाईव कर जाएंगी. ’

‘सर, मैं एक सैकंड अपनी पत्नी से बात कर सकता हूं.’

‘जी हां, करें.’

वह सिमरण किया करती थी. घंटों इसका अभ्यास किया करती थी. दूसरे शब्दों में कहें तो मेडिटेषन. वह सुरत को तीसरे तिल तक ले जाकर स्थिर हो जाती थी. पूरा शरीर सुन हो जाता था. संत महात्मा भी मृत्यु के समय ऐसा करने की सलाह देते हैं. जीवित मरिए, भवजग तरिए. मैंने उसे यही करने को कहा. मैंने उससे पूछा, ‘ मेरी बात समझ गई न?’

उसने कहा, ‘हां.’ वह अपने पूरे होश में थी.

वह जल्दी ही स्थिर हो गई. साँसें आराम से लेने लगी. डाक्टर ने कहा, ‘साहब, अब आप बाहर चले जाएं.’

शन्नो ने एक बार आंखें खोली. बड़े बेटे को कहा, ‘तुम यहां क्या कर रहे हो. घर जाओ अपने बच्चों के पास.’

फिर वह अपने में लीन हो गई. हम बाहर आ गए. बीच-बीच में बारी-बारी शन्नों को जाकर देख आते. बड़े बेटे ने कहा, ‘पापा, आप कोविड से प्रभावित हो सकते हैं. आप घर जाएं. मैं भी चलता हूं. हम दोनों ड्राइवर के साथ घर आ गए. छोटा बेटा वहीं रहा. सभी के वहां रुकने का लाभ नहीं था. अंदर जाने की इजाजत नहीं थी. छोटा बेटा शन्नो को रात का खाना खिला कर घर आया. खुश था, शन्नो ने अच्छी तरह खाया. मुझे भी तसल्ली हुई.

दूसरे रोज छोटे बेटे के साथ मैं अस्पताल पहुंचा. शन्नो ठीक नजर आ रही थी. उससे पूछा, ‘कुछ खाया.’

उसने कहा, ‘हां, दलिया खाया.’

बेटे ने पूछा, ‘कैसा था?’

‘बहुत अच्छा, बहुत स्वाद. ऐसा दलिया मैंने कभी नहीं खाया.’

शन्नो के होंठों पर मुस्कान थी. सच में बहुत अच्छा लगा. सेना अस्पतालों में मरीजों को खाना बहुत अच्छा मिलता है. सारी सुविधाएं फ्री होती हैं, किसी से कोई पैसा नहीं लिया जाता. यह सुविधाएं सभी सैनिकों और उनके आश्रित के लिए अंतिम सांस तक उपलब्ध रहती है. सिविल वालों को लाखों रुपए देकर ऐसी सुविधाएं मिलती हैं.

28 को फिर दोपहर को मुझे घर भेज दिया गया. मैं मन से घर जाना नहीं चाहता था. खतरे को देखते हुए मैं घर लौट आया. दोनों बेटे वहीं रहे. रात को छोटा घर आया. उसने कहा, ‘मम्मी ने ठीक से खाना नहीं खाया.’

भईया ने डा. कर्नल से पूछा था, ‘सर, कोई ऐसी मेडिसिन जो यहां नहीं है, उसे खिलाने से मम्मी को लाभ हो सकता है तो बताएं. ’

बहुत सोच कर उसने बताया था, ‘फैबीफल्यू टेबलट मिल जाए तो शायद उसे कुछ फायदा हो सके.’

‘घर में उसकी जगह देने के लिए टेबलट है. मैं सुबह-सुबह लेकर पहुंचूंगा.’ छोटे बेटे ने कहा.

मैं रात भर परेशान रहा. दोनों बेटे और छोटी बहू भी रात भर सोई नहीं. छोटा बेटा सुबह 6 बजे ही अस्पताल के लिए निकल गया. लेकिन उसके पहले ही सुबह 29 अप्रैल को 6.15 पर शन्नो ने प्राण त्याग दिए थे. सारा परिवार तड़प उठा. मैं भी बड़े बटे के साथ अस्पताल पहुंचा. बेटा दूरदर्शी था. उसने अपने साथ होंडा सी.आर.वी. ली. रास्ते से ड्राइवर को लिया.

शन्नो अभी वार्ड में ही थी. उसे सेना के आदेशों के अनुसार प्रीजरव करके पैक किया गया था. छोटे बेटे की प्रार्थना पर उसका पोस्मार्टम नहीं किया गया. डाक्टर और नर्सिंग अफसर ने बताया कि शन्नो ने शांति से प्राण त्यागे.

मैंने नर्स कैप्टन से प्रार्थना की कि क्या मैं शन्नो के अंतिम दर्शन कर सकता हूं. उसने एक बार मेरी ओर देखा. मेरे साथ दोनों बेटे भी थे. साथ खड़ी औरत को ऐसा करने के लिए इशारा किया. उसने बाडी बैग की ज़िप खोल कर चेहरा नंगा कर दिया. चेहरे पर कोई शिकन नहीं थी. लगता था, गहरी निद्रा में सोई हो. चेहरे पर लाली थी. मैं समझ सकता था, यह सिमरन का प्रभाव था. ईश्वर और सतगुरु की दया-मेहर थी.

हम से कहा गया कि शव मोर्चरी से मिलेगा. आप मेन गेट पर पूछताछ के आफिस में जाएं. वहां से मोर्चरी के लिए कागज मिलेंगे, शव लेने के लिये. सारी करवाई पूरी करने में 2 घंटे लग गए.

मोर्चरी पहुंचे. वहां भी शव लेने के लिए जगह-जगह साइन करवाए गए. वहां भी रैंकों का हिसाब था. शव देने वाले असभ्य और बदतमीज थे. उनको इस बात से कोई मतलब नहीं था कि शव किसी की पत्नी का है, मां है या पिता का है. बिल्कुल संवेदन हीन लोग.

एंबूलैंस के लिए भी बड़ी मारा मारी. सेना अस्पताल की ओर से इसका कोई प्रबंध नहीं था. एंबूलैंस गंदी और बदबूदार थी. पैसों पर तकरार था. मनमाने पैसे मांगे जा रहे थे. एक एक एंबूलैंस में कई कई शव भरे जा रहे थे. बेस अस्पताल की महिला डाक्टर मेजर खड़ी थी. अपने किसी परिजन का शव लेने. अपनी एंबूलैंस लेकर आई थी. उसे जब पहले शव दिया जाने लगा तो मेरा बड़ा बेटा तड़प उठा, ‘हम पहले आए हैं. शव पहले हम लेकर जाएंगे. एक कदम भी किसी ने आगे बढ़ाया तो मैं झापड़ मारूंगा. यदि पहले शव नहीं मिला तो मैं शव लेकर सीधे कमांडैंट के आफिस जाऊंगा. तुम मुझे जानते नहीं हो. और ड्राइवर को बोला , ‘तुरंत सी.आर.वी. लगाओ.’

महिला मेजर कुछ नहीं बोली. शव देने वाला भी डर गया. ‘साहब, आपको शव खुद उठाना पड़ेगा.’

दोनों बेटे शन्नो का शव उठाकर बाहर लाए. ड्राइवर ने सीटें फोल्ड करके जगह बना दी थी. गाड़ी में रखने से पहले ज़िप खोल कर यह तसल्ली कर ली कि वह शन्नो ही है.

मैंने उस आदमी से कहा, ‘यहां सब अपने प्रियजनों को लेने आते हैं. दुख से भरे हुए. आंसू लिये हुए. यह मत भूलो, आज यह सब अपनों के शव लेने आए हैं. कल को आप भी हो सकते हैं. आपका कोई अपना हो सकता है. अपनी जबान और व्यवहार को ठीक रखें. ऐसा न हो कि इनकी बददुआएं आपको खा जाएं.’

वह कुछ नहीं बोला. हम शन्नो को लेकर श्मशान घाट की ओर बढ़े. बेहिसाब शव. पंडित जहां भी जगह मिलती संस्कार करवा रहा था. मोलतोल हो रहे थे. जो पंडित को ज्यादा नोट दिखाता. उसका संस्कार पहले करवाया जा रहा था. बड़े बेटे ने पंडित को नोटों की गड्डी दिखाई तो तुरंत गाड़ी को अंदर ले लिया.

स्थान बता दिया गया. दोनों बेटे ठेले पर लकड़ियां ले आए. चिता सजाई जाने लगी. मेरे मन के भीतर यह तड़पन थी कि जिस तरह एक सुहागन को सजाया जाता है. उस तरह कुछ नहीं हुआ. घर से सिंदूर, बिंदी लेकर गये थे ऐसे ही उसके ऊपर रख दी. एक लाल चुन्नी और एक शाल जो मुझे किसकी पुरस्कार में मिला था, शन्नो को बहुत पसंद था, उसके ऊपर डाल दिया गया.

चिता को मुखाग्नि बड़े बेटे ने दी. मैं इसके लिए आगे नहीं बढ़ पाया. अपनी आंखों के सामने अपनी जिंदगी को जलते देख रहा था.

शन्नो का भाई अपने साथ हमारे लिए खाना लेकर आया था. खाला खाया. वे अमतृसर चले गए और हम घर लौट आए. रात को 12 बजे जब मैं नहा कर अपने कमरे में आया, शन्नो का बिस्तर खाली था. मन की तड़पन के साथ जाने कब तक आंखों से आंसू निकलते रहे. रात भर सो नहीं पाया. तड़पता रहा. यह तड़पन जीवन भर रहेगी. मैं अपने मन को जानता हूं.


 

लेखक परिचय - राधवेंद्र सैनी


पिता का नाम:- स्वर्गीय श्री बिहारी लाल सैनी

जन्म तिथि :- 02 फरवरी 1946

शिक्षा :- एम.ए हिन्दी

व्यवसाय :- भूतपुर्व सैनिक, स्वतंत्र लेखन

रचना प्रकाशन:- हरिगंधा, भाड्ढा विभाग पंजाब द्वारा प्रकाषित ‘ पंजाब सौरभ ’ , पजाब केसरी, सैनिक समाचार, दैनिक ट्रिब्यून, सरिता, सरस सलिल, गृहषोभा तथा देष की विभन्न पत्र-पत्रिकाओं में निरन्तर प्रकाषन

प्रकाषित कृतियां:-

कहानी संग्रह :- और आंखें भर आईं, मायके की चादर. आहत करते प्रष्न, चुनौतियाॅं

कहानी संग्रह ‘ मायके की चादर ’ को भाड्ढा विभाग, पंजाब ने 2013 के ‘ सुदर्षन ’ से पुरस्कृत किया. कहानी संग्रह ‘‘ आहत करते प्रष्न को 2018 का सुदर्षन ’’ पुरस्कार से पुरस्कृत.

सम्प्राप्ति :- कहानी ‘ मां के आषीर्वाद से ’ भाड्ढा विभाग, पंजाब द्वारा आयोजित राज्य स्तर की कहानी प्रतियोगिता में प्रथम पुरस्कृत।

कहानी ‘ सालते क्षण ’ तरूण संगम द्वारा आयोजित कहानी प्रतियोगिता में प्रथम पुरस्कृत।

कहानी ‘ कांटें ’ और ‘ टूटते आदर्ष: दोगला समाज ’ पंजाब केसरी द्वारा आयेजित कहानी प्रतियोगिता में प्रथम पुरस्कृत ।

नारायणी साहित्य अकादमी द्वारा पुरस्कृत।

सम्पर्क सूत्र:- फलैट न: 101, संस्कृति अपार्टमैंट, पलाट न: जी. एच. 3, सैक्टर-46, फरीदाबाद-121003 हरियाणा ।

मोबाइल: 09810192475

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