
एकाएक फोन आने बंद हो गए। पहले इतने फोन आते दिन भर। न उठाओ तब भी लगता पता नहीं कोई जरूरी हो, क्या पता डीसी, एडीसी, एडीएम या मंत्री का ही हो। एक अफसर थोड़े ही है उसका। किसी रिश्तेदार का हो। देर रात तक मोबाइल कांप उठता। ग्रास मुंह में डाला नहीं कि फोन। लोग पेशाब तक नहीं करने देते। रिटायरमेंट के बाद यह क्या हुआ! सब के मुंह पर जैसे ताला लग गया। कभी लगता मोबाइल ख़राब तो नहीं हो गया! चार्ज खत्म तो नहीं हो गया! जैसे जैसे मोबाइल शांत होता गया, वैसे ही अपनी बैटरी भी कमजोर होती गई।
नौकरी के दौरान जब से मोबाइल आया, बस आफत हो गई। घर में, राह चलते, जहां भी हों, बज उठता। अब सरकार में चैबीसों घण्टे चैकसी बनी रहती है। कोई लाख छिपता फिरे, कभी भी कोई अफसर फोन से लोकेशन ढूंढ निकालेगा। आसपास की आवाजों से पता चल जाता है, आदमी है साला है कहां ! मोबाइल मुफ्त दे कर अन्र्तयामी और सर्वज्ञ हो गई है सरकार। उससे अब क्या छिपाना! जहां सीसीटीवी कैमरे लगे हों, लिखा रहता है...‘‘आप सीसीटीवी कैमरे की रेंज में हैं।’’ मोबाइल में ऐसी चेतावनी भी नहीं, कर्मचारी हो या अधिकारी हमेशा दिखता रए है, छिपे भी तो कैसे!
रिटायरमेंट के बाद ये लुकाछिपी एकाएक बंद हो गई।
शुक्र हुआ रिटायरमेंट से पहले सपनों का घर बन गया। रंगीन कागज़ी फूलों के झुरमुट में छिपी शर्माती दुल्हन सी कोठी, उसमें ज्वालाप्रसाद अग्निहोत्री (रिटायर्ड एच.ए.एस.), मेम साहेब, फूल से खिले दो बच्चे.......अहा!
घर बना कि बच्चे बाहर। ससुरा टाईम भी तो बहुत लगता है घर बनाने में। कहा जाता है जिससे बदला लेना हो उसे घर बनाने में लगा दो, बस्स। सारी चर्बी पिघल जाएगी। ज्वालाप्रसाद दम्पति के गृह प्रवेश से पहले ही बच्चे बाहर निकल लिए। दो कमरे के किराए के मकान में और कभी सरकारी फ्लेट में रहते हुए ही बच्चे काॅलेज और ट्रेनिंग इंस्टीट्यूशनों में चले गए थे। वहीं से कम्पनी की नौकरियों में सलेक्ट हुए और आगे से आगे निकलते रहे। अब एम.बी.ए. कर ली, अब कम्प्यूटर में कोर्स कर लिया, अब कम्पनी ने कैम्पस में ही सलेक्ट कर लिया वगैरा वगैरा।
जब तक आलिशान दोमंजिला आशियाना बना तब रहने वाले तक पंछी उड़ चुके थे। बेटी ने तो पराए घर जाना ही था। उसने पराया घर ऑस्ट्रेलिया में चुना। पढ़ने गई, वहीं नौकरी लगी, वहीं किसी गुजराती लड़के से ब्याह कर लिया। लड़का पहले बैंगलोर गया, फिर अमेरिका जहां से लौटा नहीं। शुरू में पैकेज भी कम होता है, इण्डिया आने के लिए जहाज का खर्चा पूरा नहीं होता। ये कोई चण्डीगढ़ या दिल्ली तो हैं ही नहीं, बस में बैठे और शाम को घर। विदेश से बार बार आना कौन सा आसान है! आने जाने में कई बंदिशें हैं। हजारों की तो टिकट ही आती है, बाकी खर्चे अलग।
ज्वालाप्रसाद का सपना था एक सुंदर सलोनी कोठी का। शहर के अंतिम छोर पर बड़े लोगों की कोठियां थीं। यह एक बिखरा हुआ शहर था जिसमें कचहरी से नीचे सड़क के दोनों ओर सुंदर फूलों की बेलों के बीच कोठियां बनी थीं जिन्हें छोटे छोटे सलेटों से छाया गया था। वकील लोग तो बहुत पहले से रहते थे। तब छतों में पतले सलेट डालने का रिवाज था। अब रिटायर्ड अफसरों ने भी इसी लाइन में अपनी आधुनिक कोठियां बनानी शुरू कर दीं। रिटायर्ड डी.सी., बैंक मैनेजर, मेजर, कर्नल भी। ज्वालाप्रसाद भी छोटा मोटा अफसर तो बन ही गया था रिटायरमेंट तक। कानूनगो से शुरू हो कर नायब तहसीलदार, फिर सोलह साल तहसीलदार। नौकरी के अंतिम महीने उसे प्रदेश की प्रशासनिक सेवा में ले लिया और एक महीना एसडीएम भी रहा। नाम के साथ रिटायर्ड एच.ए.एस. लिखने के अधिकारी बने ज्वालाप्रसाद ने एक सिविल लाइन में एक ऐसे ही घर का सपना देखा था जिसके लिए तहसीलदारी में ही उसने उपयुक्त ज़मीन सस्ते में खरीद ली थी।
रिटायरमेंट के बाद पांचेक साल बड़े मजे से पत्नी के संग में काटे ज्वालाप्रसाद ने। धीरे धीरे बीमारियां घेरने लगीं। वी.पी., शूगर, टेंशन, हाइपरटेंशन, किडनी फेलयर आदि आदि। पत्नी की सेहत धीरे धीरे जबाब देने लगी। हाइपरटेंशन से चलना फिरना कठिन हो गया। ऊपरि मंजिल में चढ़ना दूभर हुआ तो नीचे ही बिस्तर लगा दिया। इतना बड़ा घर होते हुए भी एक चारपाई तक महदूद हो गई।
औरतें अपनी तकलीफ बताती नहीं। सुबह शाम दर्द में कराहती हुई भी तंदरूस्त आदमी की तरह चली रहती हैं। वे चलते हण्डते, काम करते हुए कब विदा हो जाएं, पता नहीं चलता। ऐसे ही आखिर एक रात सोयी तो सुबह हिलाने पर भी नहीं हिली।
पत्नी के संस्कार में न बेटा पहुंच पाया न बेटी। बेटे ने बैंक एकाउंट में पचास हजार डाल दिए। पैसे की कमी तो ज्वालाप्रसाद को भी नहीं थी।
दो दिन में ही भीतर से टूट कर बिखर गया ज्वालाप्रसाद। पत्नी के जाने पर निपट अकेला हो गया। घर में कोई पानी पिलाने वाला भी न रहा। कोई बीमारी नहीं लगी थी, इसलिए खड़ा रहा।
इतना बड़ा घर। बाहर से कभी कभार कोई हाल पूछने आता तो पता ही नहीं चलता, किस कमरे में होगा!
इतना बड़ी आलिशान कोठी। रहना किसी को नहीं मिला।......मेरे भाग में सुख नहीं है, पत्नी कहा करती थी। अब उसे लगता पत्नी की अनुभूति, चीजों को अनुभव करने, जानने की शक्ति उससे कहीं अधिक थी। शायद औरतों में ऐसी कई शक्तियां मरदों से ज्यादा होती हैं। वह हर चीज़ का ज़ायका, बुरे समय की आहट एकदम भांप लेती थी। वह बहुत बार चीज़ों को हल्के में लेता। जब बीमार हुई तो भी उसने हल्के में लिया.......मैं अब बचूंगी नहीं, वह कराहती हुए कहती रहती। इसे हल्के में लेता रहा ज्वालाप्रसाद। कभी ढंग से चैक अप नहीं करवाया। अरे! भलाचंगा, चलताफिरता आदमी भी कभी जाता है भला!
इससे अच्छा टाईम तो किराए के दो कमरों या पुराने सरकारी फ्लेट के दो पुराने फटीच्चर कमरों में काट लिया। तहसीलदार बनने के बाद अच्छी जगह इंडिपेंडेंट पोस्टिंग मिलने पर पूरा फ्लेट भी मिला। दफतर से दो चपरासी घर में ड्यूटी देते। आसपास से गांव वाले राजमाह, कच्ची घाणी का तेल, सब्जी, फल, दूध-घी दे जाते। चारों ओर दबदबा था। माना कि ज्यादा ड्यूटी फील्ड में ही रहती, रौबदाब कम न था। शाम को जब घर आता दोनों बच्चे कन्धों पर झूलने लगते। बैग में कुछ न कुछ मिलने की आस में टटोलते। कोई पीठ की सवारी करता, कोई गोद में बैठ जाता। चाॅकलेट, बिस्किट, मिठाई की चाह में बच्चे चारों ओर मण्डराते रहते।
स्कूल के बाद जब वे अपने अपने कोर्स करने बाहर चले गए तो उनकी शक्लें, हावभाव बदलते गए। छुट्टियों में आते तो पहचाने नहीं जाते। लगता ही नहीं कि ये वही मासूम बच्चे हैं जो कन्धों पर, पीठ पर सवारी करते थे। उनकी आवाजें मोटी, फटी हुई और शुष्क सी हो र्गइं। आचार व्यवहार बदलता गया। काॅलेज और होस्टेल की फीस, कपड़े, किताबों के खर्चे यही मुख्य वार्तालाप रह गया था उनके बीच। लगता ये वे मासूम नहीं है जो उसके कन्धों पर झूलते थे।
बच्चों के बड़ा हो जाने पर उनके भोले चेहरों में एक अजनबीपन और उदासीनता आ जाती है। वे स्कूली बच्चों से अबोध, मासूम नहीं रहते। उनके चेहरे अजीब और कठोर हो निर्मोही जाते हैं।
ट्रिन......ट्रिन......किसी ने घण्टी बजाई। किचन में चाय कप में डालते डालते छानणी छोड़ लगभग दौड़ता हुआ बाहर आया ज्वाला। बरामदे से आगे जा कर गेट खोला। इधर उधर देखा। कोई न था। सड़क के पार झाड़ी में बैठा चिड़ियों का झुण्ड फुर्र से उड़ गया। धूप बिखरी थी दूर दूर तक। भारी कदमों से वापिस लौट आया। चाय का कप लिए बरामदे में आराम कुर्सी पर पसर गया जहां से गेट सामने दिखता रहे। साथ लाया डण्डा कुर्सी से टिका दिया।
पत्नी के कहने पर बड़ी सी आरामकुर्सी खरीद लाया था जिसे बरामदे में सजा दिया जहां से सामने का गेट और बाहर का सारा दृश्य दिखता रहे......यहां आराम से बैठा करो, सामने आता जाता भी दिखता रहेगा। आराम कुर्सी तो ख़रीद लोगे, आराम कहां से ख़रीदोगे! रेस्ट हाउस यानि आराम घर तो बनावाएं हैं सरकार ने। आराम तो कोई ही कर सकता है। सारी उम्र मन्त्रियों, अफसरों के पीछे तौलिया लिए भागते रहे। जिले मेें सीधे डीसी के अधीन तैनाती पर तहसीलदार की जून बुरी होती। रोज मन्त्री, अफसर चले रहते। तहसीलदार को डिस्ट्रिक्ट नाजर के साथ सर्किट हाउस में तौलिया लिए खड़े रहना पड़ता। अब चाय लाओ, अब लंच का प्रबन्ध करो, अब डिनर, अब शाल-टोपियां, अब दवा-दारू अरेंज करो।
एक बार फिर घण्टी बजी तो डण्डा हाथ में ले कर गेट की ओर भागा ज्वाला.....छोड़ूंगा नहीं सालों को.....बद्तमीज, बिगड़ैल छोकरे..... एक बार हाथ तो आएं।
बाहर गेट पर आगे पीछे कोई न था।
हदबंदी करवाती बार पहले ही मुख्य गेट के साथ चारों ओर कमर तक ऊंची दीवार लगा रखी थी जिससे छोटे कद का कोई जीव न दिखता था। आंगन में रास्ते के दोनों ओर फूलों की क्यारियां लगा रखीं थीं। कोने में एक ओर खुमानी का अदना सा पेड़ था। पिछले दिनों से कुछ शरारती बच्चे बार बार घण्टी बजा कर भाग जाते। बहुत फुर्ती से गेट की ओर भागता ज्वाला। बच्चे कौन से कम थे, तुरंत गायब हो जाते। गेट में घण्टी लगानी भी जरूरी थी। खुला रखे तो अवारा कुत्ते आंगन गंदा कर जाते। कोई देर-सबेर, रात-बरात आए तो गेट बंद होने पर घण्टी बजा सूचना तो पाए। हालांकि अब कोई नहीं आता था।
आलस के कारण जब से ज्वालाप्रसाद ने नहाना-धोना छोड़ दिया। दाढ़ी बनानी छोड़ दी, बाल भी बढ़ा लिए तब यह समस्या पेश आई। बच्चे बार बार छेड़ने लगे। जब वह पीछे भागता तो बच्चे चिल्लाते: ‘‘ज्वाले! ज्वाले!! रोटी खाले! चा पीले! दाढ़ी बणाले! बाल कटाले! गंगा नहाले!!’’
पहले बेटी होस्टेल से आती तो ऐसे ही घण्टी बजा एकदम गेट के पीछे दीवार के साथ छिप जाती। वह आकर देखता, कोई नहीं। फिर बजाती, फिर छिप जाती। जब वह बुदबुदाता हुआ वापिस जाने लगता तो अचानक पीछे से आ कर आवाज लगाती: ‘‘पापा!......पापा!!’’ और दौड़ कर उससे लिपट जाती।.....बेटियों को बेटों से ज्यादा बेदण होती मां-बाप से, पत्नी कहती।
मां की मृत्यु के बाद छः महीने बाद बेटा आया तो उसे सीने से लगा देर तक रोता रहा ज्वालाप्रसाद। बेटे के लिए ऊपरी मंजिल में अलग दो कमरे, दो टाॅयलेट, किचन और चैड़ा चैबारा बनवाया था ज्वालाप्रसाद ने। अब तो प्राईवेसी चाहते हैं बच्चे।
बेटा दो दिन रह कर ही घबरा गया। हालांकि ज्वालाप्रसाद ने एक मां का फर्ज भी निभाते हुए बेटे को उसकी पसंद के वही व्यंजन पकाने की कोशिश की जो उसे मां खिलाया करती थी.....जिमीकंद का मधरा, रोंगी का खट्टा, खीर, मीठा भात। दालभरे भटूरू बना नहीं पाया। पहले हफ्ते में ही बेटा बुरी तरह ऊब गया और वापिस जाने को उतावला हो गया। आया था तो दस दिन की छुट्टी बता रहा था। फिर दिल्ली में कम्पनी का कोई काम बताने लगा।
पापा! आई एम नाॅट फीलींग कंफरटेबल हियर..... वह बोला। दो दिन दिल्ली रूकूंगा, कम्पनी का काम निपटाने, बस। वह समय से पहले ही लौट गया तो सालों लौटा ही नहीं।
सोचा था, इसकी मां के कपड़े गहनों की बात करूंगा। गहने तो लाॅकर में सेफ रखे थे। बेटे को अलमारी में रखी लाॅकर की चाबी दिखा दी। इतने कपड़े, कहां डालें अब इन्हें!
बेटी होती तो कुछ और बात होती। बेटे ने बेरूखी दिखाई..... अब क्या करें पापा! बांट देना इधर उधर ग़रीबों को।
पत्नी का इतना सामान पड़ा था, लेने वाला कोई न था। मरे हुओं का सामान लेने से लोग डरते हैं और परहेज करते हैं। जैसे ग्रहण लग गया था और ग्रहण का दान लेने वाला कोई न था।
गांव में भाई तो रहा नहीं, भतीजा था। गांव में जमीन की देखरेख वही करता था। गांव से नाता बना रहे, इसलिए जमीन अपने नाम रखी थी, पुराना घर भतीेजे को सौंप दिया। कुछ दिनों बाद गांव से भाई के बहू-बेटा बुलाए। बहू को कपड़ों के भरे टंक दिखाए। पहले तो वह डर कर आनाकानी करती रही फिर शायद लालच में आ गई। ट्रंक, अटेची में गर्म शालें जो कभी पहनी ही नहीं। कितने सूट नए के नए पड़े हुए थे।
‘‘च् च्.....कुछ नी लाणा पहनणा मिला।’’ बहू सिसकते हुए ट्रंक टोहने लगी।
‘‘अपने लिए छांट लेना बाकि किसी जरूरतमंद को दे देना या कहीं फैंक देना।’’ रूआंसा हो गया ज्वालाप्रसाद। बहू नए नए कपड़े ले गई, पुराने वहीं छोड़ दिए।
इतने बड़े सुंदर सलोने घर में अकेला रह गया ज्वालाप्रसाद। कानों में सांय सायं शोर गूंजता रहता। रात को शोर और ज्यादा तेज हो जाता। दिन में तो बरामदे में बैठा आते जाते लोगों को देखता रहता। कोई जानकार निकले तो हाल पूछ लेता। दाढ़ी बाल बढ़ाने पर बच्चे उसे चिढ़ाने और छेड़ने लगे।
उसका कुलीग एक बार विदेश गया तो उसने एक आदमी का किस्सा सुनाया जो बहुत पहले भारत से जा कर अमेरिकी नागरिक हो गया था। बहुत आग्रह कर उसे घर बुलाया। वह किसी तरह उस इलाके में पहुंचा तो उसके घर के आगे बहुत बड़ा लाॅन देखा। सामने अतिआधुनिक घर। चारों ओर हरी घास, फूल ही फूल। एक ओर स्विमिंग पूल। घण्टी बजाई तो बहुत देर बाद वह अधेड़ बना आदमी निकला। हाथ में बीयर का गिलास। एक बहुत बड़े ड्राईंग रूम में वे बैठ गए। पूरे घर, लाॅन में सन्नाटा छाया था।......और कोई नहीं है घर में! उसने जोर से सिर हिलाया.....कोई नहीं। मैं ही हूं। कभी मैं नीचे बैठ जाता हूं, कभी ऊपर चला जाता हूं। कभी पूल में नहाता हूं। यहां रह कर बहुत पैसा कमाया, अब उसका करूं क्या, यह समझ नहीं आता। इण्डिया वापिस जा कर भी क्या करूंगा!
उम्र के इस पड़ाव में ज्वालाप्रसाद को लगा, अपनों के बीच, अपने कुटुम्ब के बीच रहना कितना सुखदायी और सुरक्षित होता है। भाई बान्धवों से मटमुटाव सही, कोई न कोई टाईम कटा ही देता है।
घर के भीतर बिस्तर पर, जहां पत्नी अंत समय में लेटी थी, उसे बैठने से भी भय लगले लगा। निचली मंजिल के उस बेडरूम में उसने सोना ही छोड़ दिया। आंगन में जहां उसे अंतिम स्नान कराया गया, वह दृश्य बार बार आंखों के सामने आ जाता। अंत समय में घर और गांव से कुछ लोग आ गए थे। आसपास से भी बीसेक लोग जुट गए तो निपटारा हो पाया। अगले ही दिन गांव के सगे सम्बन्धी चले गए वरना पहले दस दिन तो कटवा ही देते थे। हरिद्वार भतीजे को खर्चा दे कर भेजना पड़ा। खुद जाता तो घर कौन देखता!
जाती बार भतीजे ने थोड़ा झिझकते हुए कहा था:‘‘चाचू! मस्तू कुम्हार की मां है ना मनसा कुम्हारी। आपको याद होगा। मस्तू ने उसे घर से निकाल दिया। बेटा बहू उसे बिल्कुल नहीें झेलते। इधर उधर बरतन मांज या मांग मूंग कर गुजारा कर रही है। आप कहें तो उससे बात करूं। वैसे तो गांव में गरीब लड़कियां भी मिल जाती हैं मगर मांबाप घर से दूर नहीं भेजते। वैसे भी लड़कियां रखना जोखि़मभरा काम है आज के जमाने में।’’
उसने दोबारा बात छेड़ी:’’अकेले आप क्या करेंगे इस उम्र में। सत्तर तक तो पहुंच गए होंगे। या घर चलिए गांव में। हम सेवा करेंगे। हम कब काम आएंगे, यह तो वक्त होता है। अभी तो कर-पैर चल रहे हैं, बाद में जब बैठ गए तो.....! इतना बड़ा घर है, यहां कहीं कोने में पड़ी रहेगी। पूरा काम करेगी। आप चाहें तो खाना भी बना देगी। आज के जमाने में कहां रही जातपात! कुम्हारी जुलाही कोई माथे पर थोड़े लिख होता है। और यहां किसे पता कौन जात है! अब कोई जातपात नहीं पूछता।’’
चुप रह गए ज्वालाप्रसाद। भतीजे को न मना किया ज्वालाप्रसाद ने। न हां की, न हां ही की।
मनसा कुम्हारी को भतीजा एक पुराने बिछौने की तरह लाया और स्टेार में बिछा गया।
वह उसे स्कूटर की पिछली सीट पर बिठा कर लाया एक मैली कुचैली खिंद सा। घर में किचन के साथ स्टोरनुमा कमरे की ओर इशारा किया ज्वालाप्रसाद ने तो भतीजा उसे भीतर ले गया जहां गूदड़ सी बिछ गई। एक दिन तो बाहर ही नहीं निकली।
ज्वालाप्रसाद को याद आया मस्तू के बाप फकीरू का घर जो सड़क के ऊपर था। फुलणू के ऊंचे झांड़ झंखाड़ होने से सड़क से घर नहीं दिखता, जब वे घड़े पका रहे होते तो वहां से धुआं ऊपर उठता जरूर दिखता था। घड़े, छोटे हण्डू जिनमें साग पकाया जाता, दीपावली के लिए दीवे, दीपक और कई तहर के मिट्टी के खिलौने वे बनाया करते थे जिन्हें मेले में बेचते। बहुत बार ज्वाला भी उनके घर घड़े या छोटे पात्र लेने जाता रहा। मस्तू का दादा भी तब जिंदा था। मस्तू का बाप जब अपने घास से छाए टपरू के बाहर गोल गोल घूम रहे चाक पर पात्र को आकार देता तो वे स्कूल जाते हुए ऊपर जा कर उसे खड़े हो कर देखते। मस्तू की मां से भी उसने कभी मिट्टी के पात्र लिए हों, क्या पता!
‘‘तूझे रोटी कपड़ा तो मिलेगा ही मनसा! खर्चा-पाणी भी मिलेगा। वैसे तो खर्चा भी कहां करेगी तू। यहां किसी चीज़ की कमी नहीं होगी तेरे लिए। चाचाजी का पता ही है तूझे। इतने बड़े अफसर रहे हैं पूरी उम्र। राज करते रहे। अब अंत समै में बुरे दिन आ गए। ये दिन देखने पड़े क्या करें! सब भाग को खेल है। तेरे बड़े भाग जे तू यहां बड़े घर में आई। सब्र से, नीमी हो कर रैहणा। सिर पर छत और दो जून रोटी ही तो चईए तूझे। चाचा का ख्याल रखियो। सेवा करेगी तो सब मिलेगा तूझे।’’
भतीजे ने जाती बार लम्बी सीख दे डाली मनसा को। वह बिना हिलेडुले सिर ढके बैठी रही। सुन समझ भी रही थी या नहीं, पता नहीं।
उसने किचन के साथ बाथरूम भी दिखा दिया। फ्लश इस्तेमाल करने और चलाने को तरीका भी सिखा दिया। ज्वालाप्रसाद ने एक स्टूल, थाली कटोरी गिलास, जग, एक पुराना गद्दा, सिरहाना, रजाई भतीजे से वहां रखवा दी।
इतने क्रियाक्लाप में कुछ नहीं बोली मनसा। मैली चादर से मुंह ढांप रखा था। ‘‘.......चाचू शायद बीड़ी पीने की लत्त है इसे। मैंने कई बार देखा है। पिएगी तो पीने देना। बुरा न मानना।’’
उसे पता था, तहसीलदारी में पीना पिलाना तो लाज़िमी था पर सिगरेट को हाथ नहीं लगाया चाचा ने।
‘‘मुझे क्या है! पीती रहे।’’ लापरवाही से कहा ज्वालाप्रसाद ने। गांव में पहले मेहनत-मजदूरी करने वाली निम्न वर्ग की लगभग सभी औरतें बीड़ी पीती थीं। बड़े घर और सम्भ्रांत परिवारों की औरतों ने भी हुक्के रखे होते थे और छिप कर पीती थीं, ख़ासकर विधवा और बड़ी उम्र की औरतें।
पहली शाम ज्वालाप्रसाद ने खुद ही कुकर में दाल, चावल, आलू डाल बरंज पकाई और मनसा की थाली में डाल दी और लाइट बुझाने, कुण्डी लगाने की हिदायत दे ऊपर चला गया।
अजीब तो लगा पर घर में कोई और भी है, इस एहसास से, एक पैग लेने के बाद भी बहुत गहरी नींद आई ज्वालाप्रसाद को। तीस बत्तीस पत्नी से रिश्ता रहा। घर की हर चीज़ में पत्नी की गन्ध समा गई थी। पत्नी मनोरमा दसवीं तक पढ़ी हुई थी। उस जमाने में इतनी ही पढ़ती थी लड़कियां। वह भी नया नया नौकरी लगा था। नायब तो बहुत बाद में बना। नौकरी ऐसी थी प्रायः रोज ही लेट पहुंचता घर। कई बार खाना भी खा कर ही आता। रात को बस पत्नी की बगल में सोना, सुबह उठ कर फटाफट नाश्ता खा कर जाना इतना ही संसर्ग रहता था। पूरे दाम्पत्य जीवन में पत्नी से देर रात का ही सम्बन्ध रहा, दिन का नहीं।
पन्द्रह दिन उस स्टोर में गया ही नहीं ज्वालाप्रसाद। दो तीन दिन दाल चावल खिचड़ी भी खुद ही बनाता रहा। जैसी तैसी चाय मनसा बनाने लगी थी। फिर एक दिन मनसा ने नवेली बहू की तरह नहा धो कर चपाती सब्जी भी बना डाली। पहले दिन अजीब सा स्वाद लगा। धीरे धीरे अच्छा लगने लगा। औरत खाना बनाना न जानती हो, ऐसा नहीं हो सकता। घर में भी तो खाना पकाती ही थी मनसा, बेशक घी तेल, मट्टे मसाले की कमी रहती।
एक दिन ज्वालाप्रसाद ने पत्नी के पुराने कपड़ों का ट्रंक उसके हवाले कर दिया कि जो अच्छे लगते हैं और ठीक आते हैं, पहन ले।
पत्नी का आसमानी सूट पहन कर मनसा निकली तो ज्वालाप्रसाद को धोखा लगने लगा कि यह पत्नी है कि मनसा। मनसा कद में छोटी थी। सांवली, लकड़ी सी सूखी कमजोर काया। माथे के ठीक बीच एक कट लगा था। साठ से ऊपर ही रही होगी, अतः बुढ़ाई सी लगती थी, छोटा सा माथा काला पड़ गया था हालंकि यहां आ कर सांवले चेहरे में निखार आने लगा था।
तीन महीने बीत जाने पर मनसा पूरे घर में नौकरानी नहीं, मालकिन सी डोलने लगी। ज्वालाप्रसाद एक पैग के बाद तोते की तरह उड़ने लगा। आदमी का साथ आदमी को करीब ला ही देता है। इसमें जात-पात, ऊंच-नीच, गोरा-काला, सुंदर-कुरूप आड़े नहीं आता।
औरत के हाथ में खाना बनाने का एक सलीका होता है, एक स्वाद होता है। औरत के घर में होने से कुछ बात ही और होती है भाई, ज्वालाप्रसाद को एहसास होने लगा। आदमी जवान हो या बूढ़ा, औरत का साथ कुछ और ही आन्नद देता है।
पहले अजीब सी गन्ध आती थी मनसा से। आगे से एक बार गुजर जाए तो देर तक अजीब सी हब्बक आसपास छाई रहती।.......तू रोज नहाया कर। बाथरूम में अंगे्रजी साबुन, शैम्पू, मुश्की तेल सब पड़ा है। चिंता न कर किसी चीज की। ज्वालाप्रसाद ने सलाह दी।
धीरे धीरे मनसा सूरजमुखी सी खुलने खिलने लगी। सिर से पल्लू उतार बेल सी लहराने लगी। ऊपर नीचे बेझिझक आने जाने लगी। आंगन में खुमानी के पेड़ के नीचे रोज हुदहुद का जोड़ा अपनी कंघीनुमा कलगी फुलाता हुआ कीड़े मकौड़े खाने लगा।
भईया! औरत कभी गोरी या काली नहीं होती। सुंदर या असुंदर भी नहीं होती। हिन्दुस्तान में पुरूष अन्धेरे में ही औरत को प्यार करता है अतः रंगरूप कोई मायने नहीं रखता।
औरत की कोई जात नहीं होती। न ऊंची जात होती है, न नीची। नीची जात तो होती ही नहीं। नीची जात होती तो कोई उसके पास फटकता ही नहीं। गांव में ऊंची जात और बड़े घरों के छोकरे और अधेड़ झोंपड़ियों से आते जाते दिख जाते थे। कुछ प्रेम प्रसंग चोरी छिपे तो कुछ खुलेआम थे। तहसीलदारी में तो उसने ऐसे बहुतेरे किस्से देखे सुने।
समय आया जब एक मादा की गन्ध से सारा घर महकने लगा। उसे अहसास हुआ सत्तर को छूने आए नथूनों में मादा गन्ध सूंघने की इच्छा जिंदा थी अभी। केटरेक्ट का आप्रेशन करवाने के बाद उसकी आंखों में सत्रह साल के नवयुवक की ज्योति आन बसी। चाल में तेजी आ गई, बदन में स्फूर्ति । कपड़े जो पहले पहनने छोड़ दिए थे, अलमारी से निकाल लिए। रोज शेव कर नहाने लगा। घर में भी अच्छा बन ठन कर रहने लगा। सुबह ही शहर सब्जी लेने चला जाता। दो किलो दूध लगवा लिया। रात को जब मनसा मलाई वाला दूध का बडा़ गिलास देती तो वह धन्य हो जाता........‘‘तू भी ले लिया कर मूई। शर्माती ही मत रहियो।’’ जुबान में मिठास घोल वह बोलता।
एकाएक एक दिन ज्वाला को लगा वह एक बूटी है कई औषधीय गुणों से भरपूर। वह फूलों की रंगीन क्यारी है, रंगों-सुगन्धों भरी। रात की रानी की महक है उसमें, कोयल सी चहक है उसमें। उसके सांवले शरीर पर लक्मे क्रीम का लेप लगा हुआ है। बालों में डव शैम्पू। मुंह में काॅलगेट माउथवाॅश। जब बीड़ी पीती तो अग्गरबत्ती सी सुगन्ध उड़ने लगी।
छः महीने बीत गए, जैसे पलक झपकते ही। गर्मियां अभी शुरू नहीं हुई थीं, जब आई थी। अब सर्दियां उतरने पर हैं। पहाड़ की चोटियां बर्फ ओढ़ने को बेताब हो रही थीं।
ऐसी गुनगुनी शाम जब मनसा कोने से उठ कर सोफे पर बैठ टीवी देखने लगी, मस्तू आ गया। उसके साथ एक आदमी और भी जो उसी का बिरादर लग रहा था। मनसा ने मस्तू को देखते ही जफ्फी डाल ली।
उसने मां के पैर छूए:‘‘कैसी है अम्मां!’’ जैसे रोने को हो आया मस्तू।
ज्वालाप्रसाद ने आदर से बरामदे में बैंच पर बिठाया दोनों को। मनसा तुरंत चाय ले आई।
......कुछ बिस्कुट बगैरा भी लाओ, ज्वालाप्रसाद ने कहा जैसे उसके ससुराल से आए हों।
चा-पाणी के बाद मस्तू सीधा मुद्दे पर आ गया। ज्वालाप्राद को किनारे ले गया मस्तू:
‘‘अच्छी टेहल सेवा तो कर रई है न अम्मा मेरी! कोई कमी तो नहीं!’’ मस्तू न पूछा।
‘‘ना भई ना।....कोई कमी नहीं।’’ ज्वालाप्रसाद के चेहरे पर सप्तुष्टि के भाव उभर आए।
‘‘बझिया! कुछ मिंहत-मजूरी तो दे दो।‘‘
ज्वालाप्रसाद को धक्का सा लगा फिर भी सयंत हो बोलाः ‘‘हां, बताओ। ऐसी कोई बात नहीं हुई थी फिर भी......मिंहत-मजूरी! यानि क्या चाहिए!’’
‘‘कुछ पैसों की जरूरत है। मकान का काम छेड़ा है।’’
‘‘ऐसी तो कोई बात नहीं हुई थी!....नौकरानी थोड़े ही है ये!’’ ज्वालाप्रसाद ने हैरानी से कहा।
‘‘नौकरानी नहीं है। ये तो हम भी देख रहे हैं। पर मालका! मालकिन भी तो नहीं है।’’
मस्तू के कहे का सार समझ नरम पड़ गया ज्वालाप्रसाद:‘‘तो क्या चाहिए अभी। साफ साफ बोल मस्तुआ!’’
‘‘मालका! पंजाह ज्हार देई दिया।‘‘
‘‘पचास हजार!..... ये तो बहुत ज्यादा है। कुछ थोह की बात कर। इतना मुंह न बाक मुआ।’’
अब तक दूसरा आदमी भी करीब आ गया और भारी आवाज में बोलाः
‘‘काम लगाया हुआ है मालका इसने घर का। इतना मेहताना तो बनता ही है। दिनरात सेवा कर रई है।’’
मामले की नाजुकता को समझ नरम पड़ गया ज्वालाप्रसाद। तहसीलदारी का दिमाग जागा:
‘‘अभी जेब में तो नहीं रखे हैं पैसे। चैक ले जाओ।’’ ज्वालाप्रसाद भीतर जा कर चैक काट दिया ताकि सनद रहे।
‘‘ठीक है। ग़रीब लोक, हल्की जात हैं हम। इसका ख्याल रखना। गाय की तरह है ये। बड़ी भोली है मेरी अम्मा। काम जितना मर्जी करवाओ, बुरा बर्ताव न करना। आप तो समझदार और सयाणे आदमी हंै।’’
मस्तू ने हिदायत सी दी और ताना सा माारा और दोनों प्रसन्नमन चल दिए।
ज्वालाप्रसाद ने रात को भतीजे को फोन लगाया कि पैसा लेेने देने की तो कोई बात नहीं हुई थी। सोच विचार के बाद उसे पचास हजार का चैक दे दिया है। भतीजे ने इस बात की पुष्टि की कि मस्तू ने घर का काम तो लगाया है, लेेनदेन की कोई बात उससे नहीं हुई थी।
सर्दियां आ लगीं। दिन छोटे पड़े। रातें लम्बी हो गईं। मनसा सर्दियों की रातों में गर्म पानी की बोतल की अहसास करवाती रही। कभी सुखाई हुई खुमानी तो कभी सूखे छुहारे की लगने लगी मनसा जो मुंह में घुलने के बाद स्वाद देती। कभी काठे अखरोट की तरह लगती जिसके भीतर से स्वादिष्ट गिरी बड़ी मुश्किल से नुकीली चीज़ से निकालनी पड़ती। कभी न्योजे की तरह भूरी और सख्त छाल के भीतर बहुत नरम गिरी सी।
धीरे धीरे पंछियों के जोड़े की तरह साथ रहते हुए मनसा उसकी आदत बनती जा रही थी।
इस बार सर्दियां बीतते ही तीन महीने बाद फिर आ धमका मस्तु। वही आदमी साथ था।
‘‘हां भई मस्तुआ! .....कैसा है।’’ खटका सा हुआ ज्वालाप्रसाद के भीतर रचे बसे तहसीलदार को।
ज्वालाप्रसाद ने उसे आदर से बैंच पर बिठाया। मनसा बिना बोले ही चाय के साथ बिस्कुट और नमकीन ले आई। इस बार मनसा से गले नहीं मिला मस्तु। मां के गर्म सूट और शाल को घूरता रहा।
‘‘ठीक है बझिया! अच्छी चल रही है टहल सेवा! कोई कसर तो नहीं! आपकी सेहत भी मुझे पहले से अच्छी लग रही है। अम्मा भी मोटी हो गई है।‘‘
‘‘मालका। मकान का काम पूरा होने को आया है,’’ वह सीधा मुद्दे की बात पर आ गया,’’ सोच रहा हूं सलेट की जगह टीन की छत डाल लूं। सलेट तो बरसात में चुड़ते रहते हैं। मालका! कुछ हिसाब-कताब हो जाए तो.....।’’
‘‘कैसा हिसाब-किताब!’’ चिढ़ गया तहसील साहब, ‘‘भई ऐसी कोई बात नही हुई जो तू हर महीने आने लगा है। इससे तो पहले ही तय हो जाता कि कितना महीना लेना है।’’
‘‘मालका! अब रोटियां काम्मा तो है नहीं ये मैय्या। गाय सी शरीफ है। दूध हो ना हो, आप तो दिनरात दूहे जा रहे हैं।’’
‘‘ये कैसी बात करते हो। नौकरानी तो नहीं है अब ये।’’ तहसीलदार के मंुह से निकल गया।
‘‘वही तो मालका! तो इसे मालकिन बनाओ ना। मुझे एकमुश्त में ही दे दो जो देना है। फिर कभी न आऊंगा इस दहलीज पर।’’
‘‘ना भई ना। ऐसे नहीं चलेगा। कल भतीजे को बुलाता हूं। फिर बात करते हैं। एक बार चोख़ी और कोरी बात हो जानी चाहिए।’’
‘‘ठीक है, बुला लीजिए। कल सुबह ग्यारह बजे आ जाएंगे। मुझे पांच लाख दे दो। कभी मंुह नहीं दिखाऊंगा न अम्मा का देखूंगा। अम्मा ने यहीं जीणा, यहीं मरणा। इसका क्रियाकर्म भी आपने ही करणा। हरिद्वार भी आपने ही छोडणी।’’
एकाएक उठ कर खड़ा हो गया मस्तु और दोनों चले गए।
मनसा गुमसुम रही। कुछ न बोली।
रात भर करवटें बदलता रहा ज्वालाप्रसाद। रात बेटे को फोन कर दिया कि तीन चार लाख एकदम भेज दे, जरूरत आन पड़ी है। भतीजे को भी सचेत किया कि मस्तू के इरादे नेक नहीं लग रहे।
तहसीलदार बन कर सोचने लगा ज्वालाप्रसाद। बहुत बेइज्जती हो जाएगी इस उम्र में जब सारे बाल सफेद हो चुके हैं। बाकी की जिंदगानी बापू आसाराम बन जेल में ना काटनी पड़ जाए। आजकल आदमी की कोई सुनवाई नहीं है। औरत जो कह दे, वह सच है। क्या पता उसके पुरूषत्व का टेस्ट किया जाए। राम!! राम!!
सुबह ही नाश्तापाणी कर तैयार हो गया ज्वालाप्रसाद। ग्यारह से पहले ही मस्तू दो आदमी साथ लिए आ धमका। चा-पाणी पीते पीते भतीजा भी आ गया।
‘‘ये मस्तू तो पांच लाख मांग रहा है जैसे रूपए पेड़ पर लगते हैं जब चाहे झाड़ लिए। ख़ू़न पसीने की कमाई है। इससे तो ऐसी कोई बात नहीं हुई थी। ऐसा कोई करार भी नहीं हुआ था, क्यों!’’ उसने भतीजे से पूछा।
‘‘मालका! ऐसे मुफ्त में कौन काम करता है भला! मेरी अम्मा रोटिया काम्मा तो है नहीं जो दो रोटियां फैंक दी, बस।’’
‘‘अरे! मैं तो पहले ही कह रहा हूं, ये नौकरानी नहीं है।’’ ज्वालाप्रसाद ने कहा
‘‘नौकरानी नहीं है तो इसे मालिकाना हक दो ना। आधे की मालिक बनाओ।’’
‘‘अरे! पागल तो नहीं हो गए! कौन सा हक मांग रहा है मस्तुआ। अपनी हद में रह।‘‘ भतीजे ऊंची आवाज में बोला।
‘‘मैं तो पंचायत बुलाऊंगा। अम्मां को पूरा हक मिलणा चईए।’’ मस्तू भी जोर से बोलने लगा।
‘‘क्या बात कर रहा है तू मस्तुआ। दिमाग फिर गया तेरा।‘‘ भतीजा बोला।
‘‘आपने कहा तो मैंने अम्मा को भेज दिया। काम के लिए रखा था यहां अम्मा को। मेरी मां के साथ गंदा काम किया है इन्होंने।’’
‘‘ऐसा बकवास न कर।’’ भतीजे की आवाज ऊंची हो गई।
‘‘बकवास नहीं है। अम्मा के साथ ये रोज गंदा काम करता है। आप कह रहे कि हिस्सा नहीं मिलेगा। मैं कोरट में ले जाऊंगा इस ठरकी बुड्ढे को। सारी तसीलदारी निकाल दूंगा।’’
सभी चुप हो गए। एकदक शान्ति छा गई। ज्वाला का मुंह खुला का खुला रह गया। ये तो ब्रह्मास्त्र छोड़ दिया मस्तु ने। भतीजा तहसीलदार को एक किनारे ले गया।
‘‘कुछ ले दे कर रफा दफा करो चाचू मामला। ये तो छोटे लोग हैं। इनका कुछ नहीं जाएगा, जो मर्जी आएगी, बकेंगे। हम कहीं के न रहेंगे।’’
भतीजा मस्तू को भी किनारे ले जा कर समझाने लगा.....तू तो मुर्गी को मार एक ही बार में सारे अण्डे ले लेना चाहता है मूरखा! मस्तू था कि अकड़े जा रहा था।
आखिर तीन लाख में मामला रफा दफा करने पर राजीनामा हो गया।
वे चारों चले गए तो ज्वालाप्रसाद भी मन में उथल पुथल लिए लम्बी सैर को निकल गया। बाजार में घूमने के बाद दही के पैकेट लिए लौटा कि आज बरंज के साथ दही खाएंगे।
थोड़ा अन्धेरा होने पर घर लौटा ज्वालाप्रसाद तो गेट खुला था। बरामदे की लाइट बंद थी। मनसा इस काण्ड से घबरा गई होगी। कहीं अन्धेरे में ही गठरी बनी बैठी होगी। अंदर गया तो दरवाजा भी खुला था। भीतर कोई न था। न नीचे न ऊपर।
गेट बंद कर बरामदे की लाइट जलाई। ऊपर नीचे सारी लाइट्स ऑन कर दी। मनसा कहीं न दिखी। उसकी कपड़ों की पोटली कहीं नहीं थी। पत्नी के कपड़ों का ट्रंक खाली था। फट उसने भतीजे को फोन लगाया कि मनसा गायब है, कहीं कोई और केस न बन जाए। भतीजे ने दिलासा दिया, चिंता न करें, जरूर वही लोग उसे साथ ले गए जब आप बाहर निकले थे। इन्हें आप भोला न समझें। गांव में लोग बहुत चुस्त चालाक हो गए हैं।
रात भर बरामदे की लाइट जलाए रखी ज्वालाप्रसाद ने।
रात को कुछ गिरने पर ढम्म् की आवाज़ देर तक गूंजती रहती।
लग रहा था, घर के भीतर सांप घुस आया है और कुण्डली मारे बैठा है। कभी भीतर के कमरे में होता है तो कभी बाहर के। कहीं भी हाथ डालने से डर लग रहा था। इस डर से ऊपर की मंजिल में सो गया ज्वालाप्रसाद। तब भी लगता सांप सीढ़ियां चढ़ ऊपर आ गया है। रात सोए हुए लगता सांप बिस्तर के ऊपर सरसरा रहा है। कभी पैरों के ऊपर सरसराहट महसूस होती। कभी टांग के ऊपर ठण्डा एहसास। कभी छाती के ठीक ऊपर। छाती पर सांप लोटना मुहावरा एकदम सच और डरावना लगता।
गर्मियां शुरू होने पर ये जीव घरों में घुस आते हैं। इस इलाके में तो वैसे भी सांप बहुत थे। गांव में तो बरसात के दिनों एक दो सांप जरूर पकड़वाने पड़ते। सांप भी कोबरा प्रजाति के, काले, लम्बे और चैड़े फन वाले। एक बार डस लें तो आदमी पूरा।
पत्नी को याद कर रोने लगा ज्वालाप्रसाद। बड़ा अफसर हो कर भी बड़े अफसरों की नौकरी बजाता रहा दिन रात। पत्नी के सारे टेस्ट, ईसीजी करवानी चाहिए थी.....हार्ट प्रोब्लम का पहले पता चलता तो कोई दवाई शुरू करता। सब कुछ पास में होते हुए भी उसका ढंग से ईलाज, टहल-सेवा करने में बड़ी चूक हो गई। साला पैसा क्या करना! महसूस होने लगा, सच ही पैसा हाथ की मैल है।
अगली सुबह तैयार हुआ ही था ज्वालाप्रसाद कि मोबाइल में टन् से मैसेज आया। उसके खाते में साढ़ेतीन लाख आ गए थे। शहर जा कर भतीजे और दो लोगों की मौजूदगी में ज्वालाप्रसाद तीन लाख का चैक मस्तु के हवाले कर दिया।
‘‘बस्स मालका! अब कभी मुंह नहीं दिखाऊंगा’’, कहता हुआ वह चला गया।
पूरी उम्र तहसीलदारी करने के बाद यह आख़री मुकद्मा पेश हुआ था ज्वालाप्रसाद के पास।
मनसा के बारे में न तहसीलदार ने पूछा, न मस्तू ने जिक्र किया। जैसे वह कभी थी ही नहीं।
वापिस आने पर मन का बोझ हल्का कर आराम कुर्सी पर पसर गया। रात नींद नहीं आई थी, अतः झपकी आ गई।
एकदम जोर से ‘ट्रिन !....ट्रिन....!! ट्रिन!!!’ की कर्कश आवाज़ ने जगा दिया। दौड़ कर गेट खोल दोनों तरफ देखा। दूर तक कोई न था।
94180-85595 ‘‘अभिनंदन’’ कृष्ण निवास लोअर पंथा घाटी शिमला-171009

परिचय
24 सितम्बर 1949 को पालमपुर (हिमाचल) में जन्म। 125 से अधिक पुस्तकों का संपादन/लेखन।
वरिष्ठ कथाकार। अब तक दस कथा संकलन प्रकाशित। चुनींदा कहानियों के पांच संकलन । पांच कथा संकलनों का संपादन।
चार काव्य संकलन, दो उपन्यास, दो व्यंग्य संग्रह के अतिरिक्त संस्कृति पर विशेष काम। हिमाचल की संस्कृति पर विशेष लेखन में ‘‘हिमालय गाथा’’ नाम से सात खण्डों में पुस्तक श्रृंखला के अतिरिक्त संस्कृति व यात्रा पर बाईस पुस्तकें। पांच ई-बुक्स प्रकाशित।
भाषा संस्कृति विभाग हि0प्र तथा हिमाचल अकादमी में सेवा के दौरान
70 से अधिक पुस्तकों का संपादन/सहयोजन के अतिरिक्त:
समय के तेवर (काव्य संकलनः1984), खुलते अमलतास(कहानी संग्रहः1983), घाटियों की
गन्धः कहानी संग्रह:1985), काले हाथ और लपटेंः कहानी संग्रह(1985), दो उंगलियां और
दुष्चक्रः कहानी संग्रह(1985), पहाड़ गाथाःकहानी संग्रह(2016), हिमाचल प्रदेश के प्रतिनिधि
व्यंग्य, हिमाचल प्रदेश की प्रतिनिधि लोककथाएं(2020)।
जम्मू अकादमी (’’आतंक’’ उपन्यास), हिमाचल अकादमी (‘‘आतंक उपन्यास तथा‘‘जो देख रहा हूं’’ काव्य संकलन), तथा, साहित्य कला परिषद् दिल्ली(‘‘नदी और रेत’’ नाटक) पुरस्कत। ’’व्यंग्य यात्रा सम्मान’’ सहित कई स्वैच्छिक संस्थाओं द्वारा साहित्य सेवा के लिए पुरस्कृत।
अमर उजाला गौरव सम्मानः 2017। हिन्दी साहित्य के लिए हिमाचल अकादमी के सर्वोच्च सम्मान ‘‘शिखर सम्मान’’ से 2017 में सम्मानित।
कई रचनाओं का भारतीय तथा विदेशी भाषाओं में अनुवाद। कथा साहित्य तथा समग्र लेखन पर हिमाचल तथा बाहर के विश्वविद्यालयों से दस एम0फिल0 व दो पीएच0डी0।
पूर्व सदस्य साहित्य अकादेमी, दुष्यंत कुमार पांडुलिपि संग्रहालय भोपाल।
पूर्व सीनियर फैलो: संस्कृति मन्त्रालय भारत सरकार, राष्ट्रीय इतिहास अनुसंधान परिषद्, दुष्यंतकंमार पांडुलिपि संग्रहालय भोपाल।
वर्तमान सदस्यः राज्य संग्रहालय सोसाइटी शिमला, आकाशवाणी सलाहकार समिति, विद्याश्री न्यास भोपाल।
पूर्व उपाध्यक्ष/सचिव हिमाचल अकादमी तथा उप निदेशक संस्कृति विभाग।
सम्प्रति: ‘‘अभिनंदन’’ कृष्ण निवास लोअर पंथा घाटी शिमला-171009.
94180.85595ए 0177.2620858
ई-मेल - vashishthasudarshan@gmail.com
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