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  • हुस्न तहस्सुम निहाँ

विष सुंदरी, उर्फ़ सूरजबाई का तमाशा



राजपुर ग्राम की पगडंडियों पर सांझ की लालिमा धीरे-धीरे फैल रही थी। कुंवार के दिन। घरों में संझाबाती की जा चुकी थी। चूल्हों से उपलों की सुलगन निकल कर असमानी फजां में तैर रही थी। गांव भर के खिलंदड़े बच्चे खलिहान में जुटे पड़े थे। कोई पयार और भूंसे के बड़े से ढेर पर से फिसल रहा था तो कोई कबड्डी और पकड़ी-पकड़ान खेल रहा था। एक आद इधर-उधर लगे पेड़ों की शाखाओं से झूल रहे थे। अजीब सोंधा सा माहौल। कुछ बूढ़ी अधबूढ़ी महिलाएं यहां वहां टेर रही थीं। कुछ समूह बनाए घर के द्वारों पर बैठी थीं। यही होता है जिंदगी का सबसे खूबसुरत यथार्थ...कि जमीन से जुड़ी जिंदगानियाँ।

अभी गांव अपनी छटा पे लहालोट ही था कि सयास चौंक उठा है वह। एक तरफ दूर से बजती हुई घण्टियों ने सबका ध्यान खींच लिया। लोग उधर ही देखने लगे। बच्चे कुछ देर तक ठिठक कर खड़े रहे फिर उधर ही दौड़ लगा दी। वहाँ पहुँच के एक बार फिर ठिठक गए। सामने बैलगाड़ियों की छोटी सी कतार। उन पर पर्दे तने हुए हैं। सबसे आगे वाली बैलगाड़ी पर सामने की ओर बड़ा सा पोस्टर चिपका हुआ है- ‘‘राजबाला का तमासा‘‘ एक कुछ पढ़े बच्चे ने हिज्जे लगा कर बमुश्किल पढ़ा और फिर सारा बच्चा समूह झूम उठा। हर ओर गूंज मच गई- ‘’तमासा वाले.....तमासा वाले...’’.और फिर उसी बैलगाड़ियों के रेले के साथ चलने लगे। पोस्टर वाली गाड़ी से तेज-तेज गीत बजने की भी आवाज आ रही थी। जब रेला गांव के भीतर पहुँचा तो स्त्री-पुरूश सभी दौड़ कर करीब भाग आए और उत्सुकता से देखने लगे। एक आदमी बैलगाड़ी चालक के पास बैठा कुछ लाल हरे रंग के पर्चे भी उछाल रहा था जिसे बच्चों समेत बाकी स्त्री-पुरूश भी लपक-लपक कर लुक ले रहे थे। एक उत्सव सा हो गया था। रघू ने हरक कर चैतू को पुकारा था-

‘‘अरे हो चैतुवा...द्याख....अपन गंव्वम तमासा आई गवा...जनौं ठण्ड कम होई गए‘‘

और फिर जहाँ-जहाँ से गुजरता वो रेला धूम मच जाती। राजबाला समेत उनके तमाम साथियों को गांव वाले राम-राम कहते जा रहे थे और राजबाला व साथी बाहर हाथ निकाल के लहराते हुए उनका अभिवादन स्वीकार रहे थे।

अंततः सफर खत्म हुआ। रेला गांव के एक छोर पर पड़े विशाल मैदान में जा के रूका। बैलगाड़ियों के पर्दे खुले और कुछ लाल पीले लोग बाहर निकल कर मैदान में फैल गए। तम्बू कनात गाड़े जाने लगे। उड़ते-उड़ते खबर मुखिया देवी ठाकुर के वहाँ तक पहुँच गई। वह चौंके-

‘‘अरे...बिना हमारी अनुमति कै...?

झट धोती संम्भलते उठे और दोचार कारिंदों को लेकर वहां जा पहुँचे। लोग अपने काम में लगे हुए थे। फिर उन्होंने एक लड़के से पूछा ‘‘तोहार मालिक कऊन?‘‘

लडके ने राजबाला की तरफ संकेत कर दिया। वह उसके पास जा के बोले-

‘‘के हो बाई....किसकी अनुमति से हमार गंवम ई तंबू लगाए रही।‘‘

‘‘आप कऊन बाबू जी?‘‘

‘‘मुखिया जी‘‘ कारिंदे एक साथ बोले। राजबाला ने हाथ जोड़ अभिवादन किया और बोली-

‘‘ मुखिया जी, अभी आ ही रही थी।‘‘

‘‘आ ही रही थी मतलब?‘‘

‘‘ई तम्बू कनात ठिकाने से लगाए के आतीन हुजूर...तनि तहदिलयाए कै। आप गांवकै माई बाप हौ आपसे बच कै कहाँ जाईब हुजूर‘‘

-देवी ठाकुर ने एक गहरी निंगाह डाली उस पर, नीचे से ऊपर तक देखा और फिर होंठ काटते हुए बोला-

‘‘कोई बात नाहीं बबुनी...लागत हय काफी खाद्य पानी से पगाई गई हव, चलौ अब तौ मुलाकात होतिन रही।‘‘ और बड़े दम्भी अंदाज में कदम उठाते ठाकुर वहाँ से चला गया।


गांव में उत्सव जैसा था। सबके अंदर दिन भर के काम जल्दी निबटा लेने की हड़बड़ी थी। शाम छः बजे राजबाला का तमाशा शुरू हो जाना था। उधर राजबाला के डेरे में जोरों पे तैयारी चल रही थी। एक रंग-बिरंगा, फूलों, गुम्मों से सजा, हुआ बड़ा सा मंच बना दिया गया था। जगह-जगह कृत्रिम फूलों की लड़ियां झूल रही थीं। पिछले हिस्से की दीवारनुमा ढाल पे सितारे चमक रहे थे। इन सितारों की एक खास उपयोगिता थी। जब मंच पर तमाशा शुरू होता तो इनकी आभा कलाकारों के चेहरों पर पड़ती जिससे उनकी सुंदरता में इजाफा होता। राजबाला की बांहें इन रंगों के संग एक-मेक होती रहतीं। शाम होते-होते उस मैदान में विशाल मजमा सा लग गया था। राजबाला निहाल हो गई थी। तमाशा शुरू हुआ। कलाकारों ने खूब रंग बिखेरां पब्लिक झूम उठी। उधर पहले ही दिन हजारों की आमदनी देख राजबाला के भी पंख लग गए थे।

इस समूह में मात्र आठ लोग थे। एक राजबाला, उसकी माँ, दस साल की बेटी। साथ में साथी मोहन, रवींद्र (तबलासाज) पीरू (बांसुरी वादक) सखी नसीमा और पल्लो। इस तमाशे का असली मालिक राजबाला का पति था लेकिन एक दुर्घना में उसकी मृत्यु के बाद यह जिम्मेदारी राजबाला पर आ गई थी। राजबाला बेहद सुंदर सांवली सी महिला। चेहरे पे भींगी सी छांह हर वक्त तैरती रहती। स्वर में मिठास। व्यवहार उतना ही आत्मीय। एक दिन वह औपचारिकतावश ठाकुर से मिल भी आई थी। ठाकुर का सारा गुस्सा हवा हो गया था।

खैर तमाशा अपने चरम पर थां बहुत अच्छी आमदनी हो रही थी। इसके अंतर्गत नित नई नाटिकाएं खेली जातीं। कभी शकुंतला, कभी हरिष्चंद्र तो कभी लैला-मंजनू या सोहनी-महिवाल।

उस दिन ठण्ड जल्दी ही जमीन पर उतर आई थी। जिस्म लरजता रहा ठण्ड की तुर्शी से। उस दिन तमाशा बंद था। राजबाला की बच्ची बहुत बीमार हो गई थी। भीड़ बटुरी तो लेकिन जब पता चला कि आज बंद रहेगा तो वापस लौट गई। सांझ के ठीक सात बजे डेरे में दया ठाकुर पधारे। राजबाला ने उन्हें अपने ही शयनगार में बुला लिया जहाँ वह बेटी की देख-भाल में लगी थी। ठाकुर आए तो उठ कर उनका अभिवादन किया और फिर आने का कारण पूछा। वह बैठते हुए बोले-

‘‘कुछ नहीं, बस हाल चाल लेने चले आए। सुना आज तमासा बद है।‘‘

‘‘हां ठाकुर जी, बेटी कुछ अस्वस्थ है, इसीलिए।‘‘

‘‘अरे, का हुआ बिटिया को?‘‘

‘‘कुछ खास नहीं, बुखार सर्दी, दवा दी है कल तक आराम हो जाएंगा, कल से तमासा अपने नियत समय पै लगैगा‘‘

‘‘अच्छा...अच्छा.,‘‘ फिर कुछ देर किन्हीं विचारों में गुम रहे और फिर बोले-

‘‘अच्छा सुनौ, हमैं कुछ कहिना हय‘‘

‘‘जी बतावा जाय‘‘

‘‘एक दिन मां तुम कत्ती आमदनी कय लेती हव?‘‘

‘‘ हूँ.....वही पांच, सात सै।‘‘

‘‘ठीक है ई लेव हमसे हजार रूप्या, बिटेवक इलाज करवाव‘‘

‘‘नाहीं ठाकुर जी, हमरे पास मल्लब भरेक पईसा है।‘‘

‘‘अरे नाहीं, लई लेव, तू हमरे गांव कै महिमान हव औ हमरा ई फर्ज है।‘‘

-राजबाला ने झिझकते हुए हाथ बढ़ाया कि ठाकुर साहब आगे बोले-

‘‘मगर तुमहौ का हमरी एक ख्वाहिस पूरी करैक पड़ी।‘‘

‘‘मतलब?‘‘ उसने हाथ पीछे समेट लिए।

‘‘तु सात सौ कमात हौ ई हजार रूपया, कल पण्डाल पूरा खाली रही और तू खाली हमरे लिहे नचिहव‘‘

राजबाला के चेहरे का रंग ही उड़ गया जैसे। अगले ही क्षण खुद को संभालती हुई बोली-

‘‘ठाकुर साहेब ई बात थोड़ी टेढ़ी है। ठाकुर साहेब, हम एक छोटी-मोटी कलाकार होई। ई तमासा हमार रोजगार आए कोनौ टेमपास नाहीं। औ हम सभै अपन पेसे का बहुतै सम्मान करित है। हमरा हर एक गाहक हमरे लिए सम्मानित है। हमरा तमासा बिकाऊ नाहीं ।‘‘ ठाकुर का चेहरा उतर गया। झेंप मिटाते हुए उसे दुत्कारते से बोले-

‘‘हुं...ह...काम नचनिया केर और सान रानीन अस‘‘

‘‘देखौ ठाकुर जी...हम कोई नचनिया वचनिया नाहीं। तमासा एक कला हय, ई भारतीय संसकृति कै हिस्सा हय। हम लोग अपनी कला बेचित हय, अपन सरीर नाही। अब आप जाव।‘‘

‘‘अरे...अरे...तू त बड़ा दर्सन बतियाय रही हय मनै...तू का कत्ता चाही....कत्ता चाही...रे‘‘ ठाकुर गमछा फटकारते बोले और खड़े होके उसकी ओर बढ़े, वह चिल्लाई-

‘‘ठाकुर जी, दूर से बात कीन जाए...नजदीके नाय आयो....

ठाकुर अपमान का घूंट पीते हुए बेशरमी से बोले-

‘‘ठीक हय, अपन ई टीम टामड़ा उठाव औ चलती बनव। सुबह देखी न ई तोरे डेरे मोड़े का, बड़ सति सवित्री बन कै आई हंय‘‘

और झल्लाते हुए ठाकुर बाहर चले गए।

ठाकुर के इस तरह कदम पटकते हुए बाहर निकलने से तमास के बाकी सदस्य समझ गए थे कि कुछ गड़बड़ हो गया है। गांव के आस पास घूम-टहल रहे लोग भी सशंकित हो कर देखने लगे थे। राजबाला स्वयं अंदर तक कांप गई थी। माँ बाहर से डरी-डरी आई और कुरेदने लगी-

‘‘कुछ समस्या हय का? काहे आए थे ठाकुर?‘‘

‘‘हमरे सरीर की बोली लगाने‘‘ राजबाला खेाई खोई सी बोली।

‘‘का...उकी अत्ती मजाल..?‘‘ वह सकते में बैठी रही। न खाना पीना कर सकी न ही रात भर नींद ही आई। एक भयावह संकट की कल्पना से वह कांप-कांप जाती। अंततः रात बीतते-बिताते वह किसी निर्णय पर पहुँची और सुबह का इंतजार करने लगी।

सुबह

अभी सूर्य पूरी तरह से उदय भी न हो पाया था कि वह मुँह पर पानी डाल के सीधे पूर्व सरपंच ठाकुर बलजीत सिंह की तरफ निकल ली। बलजीत सिंह रिष्ते में तो दया ठाकुर के भाई ही लगते थे लेकिन दोनों में छत्तीस का आंकड़ा था जिसकी वजह कुछ खानदानी थी और कुछ राजनीतिक। फिर भी गांव में उनका दबदबा आज भी था। उनके बेटे बड़े सरकारी ओहदे पर थे। उसका भी दबाव था। राजबाला ने उनसे सारी व्यथा कह सुनाई। उन्होंने राजबाला को अष्वासन दिया-

‘‘आप अपन तमासा निश्चिंत होई कै जारी राखौ, कोई माई का लाल नाहीं जो इमा बाधा डाल सकै।‘‘

राजबाला को बड़ा इत्मीनान हुआ। वह सुकून से चली आई और तमाशा अपने समय पे होता रहा। दया ठाकुर को बड़ी कोफ्त हुई कि उनकी धमकी का कहीं कोई असर ही नहीं। उन्होंने एक दिन अपने एक कारिंदे से चेतावनी भिजवाई कि फौरन गांव खाली कर दें। कारिंदे ने राजबाला के डेरे पर जा कर अपना संदेश कहा तो राजबाला ठनक कर बोली-

‘‘ठाकुर से कह दो तमासा नाही हटैंगा, ठाकुर बलजीत सिंह कै आदेस प अब हम तमासा चलाईब‘‘ कारिंदा चुपचाप लौट गया।

जवाब में कारिंदे ने आकर जब बताया कि तमाशा नहीं हटेगा अब वो ठाकुर बलजीत सिंह की छाया में है। दया ठाकुर जलबला गया और चिल्लाया-

‘‘चला जा हमारी नजर कै सामनेस।‘‘ उसे लगा था जैसे किसी ने तड़ा तड़ कई तमाचे जड़ दिए हों। फिर मन ही मन बुदबुदाया था-

‘‘अच्छा...तो ई बात है।‘‘ और उसने मन ही मन कोई निर्णय ले लिया। तमाशा अपनी पूरी रफ्तार में था। रोज ब रोज दर्षक बढ़ते ही जा रहे थे। आस पास के गांव से भी लोग खिंचे चले आते। एक छोटा सा मेला सा लगा रहता। रोज शाम को खोंचे वाले भी वहीं पहुँच जाते। गांव बेहद सजीला सा हो गया था। हर ओर राजपुर गांव के तमासे का बोलबाला था। सबकी जुबान पर राजबाला का नाम। महिलाएं राजबाला के जैसी पहन-होड़ और साज-श्रंगार करने लगी थीं। उनकी चाल-ढाल तक में राजबाला का सा पन झलकने लगा था। वहीं दया ठाकुर को किसी करवट चैन नहीं। रात-रात को उठ बैठता। सपनों में भी तमाचों की आवाज सुनाई पड़ती। अंततः उन्हें एक युक्ति सूझी-

अलस्सुबह ही दयाप्रधान की आँख खुल गइ्र्र। उठे। नित्यकर्म से फारिग होकर वह अपने मुनीम के घर की तरफ निकल गए। मुनीम चौंक पड़ा-

‘‘अरे...सरपंच जी। अत्ती सबेरे-सबेरे?‘‘

‘‘हाँ, जरूारी काम रहा। अंदर चलौ तनि, एक कागज तैयार करैक है‘‘

फिर दोनों जन अंदर आ गए। जो-जो बताया ठाकुर ने मुनीम लिखता गया और कागज पूरा कर वह उसे लेकर घर गए मोटर साईकिल उठाई और चल दिए। पास के गांव सरैंया गए और सरपंच से मिले। सरपंच भजन सिंह देखते ही चहका-

‘‘का हो ठाकुर, तुरे गंव्वम अत्ती रऊनक हय औ तू हिंया हुंवा टहरत हव, तनि हमहौ का एक दिन दिखाए देव तमासा।‘‘ मिली जुली हंसी। गाड़ी खड़ी करके दोनों लोग बैठक में चले आए। फिर दया ठाकुर ने अपनी बात शुरू की-

‘‘दद्दा, ई जऊन तमासा की बात करत हौ हम वहय मसला लई कै आए हन। दर असल ई तमास ठाकुर बलजीत सिंह कै कारनामा आए। ऊ अपन अईय्यासी मिटावैक खत्ती ई सब रास रचिस है। बड़ी गंध फईली है। गांव कै बहु बिटिया सभै बिगड़ी जाई रहीं। उमा तुमरैव गांव कै बहु बिटिया हैं औ हमरेव। गांव वाले अलगै सिकायत लगाय रहे। इससे अब सोंचा हय ई तमासा का तमासा खतम होएक चाही। लेकिन उमा ई बलजीत ठाकुर रोड़ा बन रहा। लेकिन आप लोन कै दबदबा आए। अगर हम पांच छः जनै कै सहमति होई गई तो ऊ ससुरा कुछौ नाय बिगाड़ पायी। बस ई करार पै साईन कई देव‘‘ और दया ठाकुर ने कागज उनके आगे कर दिया। भजन सिंह ने चुपचाप सुना। कुछ सोंचा फिर बोला-

‘‘बात तो तुम सही कहि रहे।‘‘ फिर कागज ले लिया और दया ठाकुर से कलम ले के हस्ताक्षर कर दिए। यही प्रक्रिया दया ठाकुर ने बाकी के आस-पास बसे गांवों के पांचों सरपंचों के वहां की।

शनिवार का दिन। सुबह काफी खिली-खिली और धोयी-धोयी सी। दया ठाकुर सुबह ही जाग गए। जैसे रात भर वह सुबह होने का ही इंतजार करते रहे हों। फिर सुबह होते ही तमासा के डेरे की तरफ बढ़ गए। राजबाल सामने ही दिख गई। वह बेटी के साथ षौच से निवृत्त होकर वापस आ रही थी। दया ठाकंुर उसके डेरे के बाहर ही ठहर गए। समीप आ कर उसने ठाकुर को अभिवादन किया-

‘‘नमस्कार....अऊर ठाकुर का हाल-चाल‘‘ वह सीधे सपाट लहजे में बोली-

‘‘हाल-चाल मनै ई कि अबही तक हमरे हुकुम की तामील नाय हुई। ई तमासा अभी तक काहे नाय हटावा गवा‘‘

‘‘आपका परेसानी का है इससे?‘‘

‘‘हमार बहू बेटिन का खतरा हय इससे, सब बिगड़ि रही है।‘‘

‘‘ठाकुर जी बहू बेटिन का खतरा हमसे नाय आपसे हय।‘‘

‘‘हे...जबान संभाल के...ई देख छः गंवन कै राजीनामा लाए हन, पढ़ ले। अब तो तुका गांव खालिन करैक पड़ी।‘‘ राजबाला ने उसे हाथ में लिया और अगले ही क्षण उसके कई टुकड़े कर दिए और उनकी तरफ बढ़ाती हुई बोली-

‘‘लेव अपन राजीनामा....‘‘ दया ठाकुर गुस्से से कांप रहा था। अपना अंगौछा झटका-

‘‘हुंह....अब होई आर पार कय लड़ाई।‘‘ कहते हुए वह पांव पटकते हुए चला गया।


राजबाला अंदर आ कर बैठ गई थी। उसने बाहर ठाकुर से धृष्टता तो कर ली थी लेकिन भीतर-भीतर सिहर गई थी। फिर धीरे-धीरे बात आई गई हो गईं। राजबाला को ठाकुर बलजीत सिंह से बहुत संबल मिला था। वह एक समझदार, सुलझे हुए और सज्जन व्यक्ति थे। गलत विचारों और गलत लोगों का न तो वह साथ देते और न ही उसे फलने-फूलने देते। पिछले कई साल से वह गांव के मुखिया रह चुके थे लेकिन इस बार चाल उल्टी चल के मुखिया की जगह दया ठाकुर ने ले ली थी। लेकिन इसके बावजूद जो दबदबा ठाकुर बलजीत सिंह का था वो दया ठाकुर का नहीं था। उनकी वजह से ही राजबाला निष्चिंत थाी। तमाशा अपने शबाब पर था। इसकी धूम दूर-दूर तक गांवों में थी। शाम को तमाम बैलगाड़ियां आ कर उस मैदान में फेल जातीं। दूसरे गांवों से गाड़ी भर-भर के लोग आते तमाशा देखने। इस प्रकार तमाशा अपनी जगह बरकरार था।



इतवार का दिन था। देवी ठाकुर ने आस पास के गांव के उन पाँचों प्रधानों को रात के खाने पर बुलाया था। पाँचों प्रधान मौजूद थे। रात आठ से दस के बीच खाना पीना हो गया था और पीने पिलाने का दौर जारी था। जब सब पी के टुन्न हो गए तो दया ठाकुर ने कहना शुरू किया-

‘‘दद्दा लोन, हम आप लोगन का हिंयां कौनव खास मकसद से बुलावा हय‘‘

‘‘अच्छा...तो बोलव‘‘ एक साथ ही कई स्वर उभरे।

‘‘दद्दा, ऊ का हम उई दिन आप लोगन सनी एक कागज प साईन करावा रहय।‘‘

‘‘हाँ....हाँ...ऊ तमासा वालीक निकारै खत्ती....का गई नाहीं अभीन?‘‘

‘‘कहाँ दद्दा, ऊ त आपौ लोन कै गारी निकारत हय। कहत है ठाकुर बलजीत सिंह कै आगे ऊ सबै की कऊन अऊकात‘‘

‘‘का....ऊ नचनियां अस बोलिस‘‘

‘‘अब त इका सबक सिखावैक परी‘‘

‘‘तो देरी काहे की, उठ लेव‘‘ देवी ठाकुर ने लोहा गर्म देख के उकसाया। कोई थोड़ा झिझका-

‘‘अभिन?‘‘

‘‘अऊक्का...अग्नि मैया जिन्दाबाद। चलौ दस मिनट मां काम तमाम होई जाई।‘‘ दया ठाकुर ने जोर दिया।

‘‘ठीक है चलौ, छमिया का निबटाईन आई।‘‘ और सभी छः जन चल पड़े डेरे की ओर।


रात के लगभग तीन बजे होगे। रात 12 बजे तक तमाशा चला था। एक बजे तक सारे कलाकार घोड़ा बेच के सो गए थे। थकान की वजह से सबको नींद भी जल्दी ही आ गई थी। रात तीन बजे के करीब अचानक राजबाला की बेटी के पेट मे कुछ गड़बड़ी महसूस हुई। वह दर्द से उठ गई और माँ को जगाने लगी। माँ गहरी नींद में थी। कुनमुना के रह गयी और कह दिया-

‘‘लल्लू को साथ ले जा‘‘ उसने लल्लू का पट्टा पकड़ा और बाहर निकल गई।

लेकिन जब बाहर निकली तो उसे पण्डाल के पीछे की ओर कुछ आहट सी महसूस हुई। वह कुछ ठिठकी। फिर कुछ सोच कर या षौच की हड़बड़ी में उसने पीछे जा कर देखा नहीं बल्कि सीधी गांव के उस छोर की तरफ निकल गई जिधर लोग षौच के लिए जाते थे। कुत्ते लल्लू को कुछ दूरी पर ही बैठा के वह खेत के बीच गुम हो गई। लेकिन अभी वह बैठी ही थी कि एक दम से उसे अपने डेरे की ओर से आग की लपटें उठती सी दिखीं। वह उल्टी-सीधी शरीर पर पानी डाल के भागी। एक हाथ में पानी का खाली डब्बा दूसरे में कुत्ते की रस्सी। तेजी से दौड़ती हुई आई और फिर कुछ फर्लांग पीछे ही ठिठक गई। पूरा पण्डाल आग से घिर चुका था। अंदर से चीखें आ रही थीं। सूर्या को कंपकंपी सी हो गई। ठंड के मौसम में भी वह पसीने से भींग रही थी। बदहवास सी देखे जा रही थी। सामने आठ आठ दस लोग खड़े जोर-जोर से हँसे जा रहे थे। उनमें वो व्यक्ति भी था जिसे लोग ठाकुर कहते थे और जो अक्सर उसकी माँ से भिड़ने आया करता था। उस आग के उजाले में उन दरिंदों के चेहरे साफ नजर आ रहे थे। उसका चेहरा आंसुओं से भीगता जा रहा था लेकिन आगे बढ़ने की हिम्मत नहीं हो रही थी यह सोंच कर कि अभी उसका भी वही हस्र होगा। तभी कुत्ता रस्सी छुड़ा के भाग खड़ा हुआ और डेरे के पास आ के उछल-उछल कर भोंकने लगा। किसी ने कहा उनमें से कि-

‘‘सार, यहौ का किरिया करम कई देव, बडका स्वामी भक्त बनत हय‘‘ और किसी ने उसे पकड़ना चाहा, लेकिन कुत्ते ने उछल कर उसे दबोच लिया और पूरा चेहरे पर का मांस उतार कर तेजी से भाग खड़ा हुआ। यह दृष्य देख बच्ची की हिम्मत जवाब दे गई। बिना कुछ सोंचे समझे उसने डेरे की उल्टी दिशा की ओर बेतहाशा दौड़ लगा दी जिधर षौच के लिए गई थी। बिना यह जाने कि वह किधर जा रही है, वह दौड़ती जा रही थी जान छोड़ के। फिर दौड़ती गई जहाँ तक दौड़ पाई।



आज सुबह काफी कोहरा था। पूरा आस पास कोहरे में डूबा हुआ था। लोग बाग अभी जाग ही रहे थे। लेकिन जब तक दिन निकलता-निकलता गांव एक मनहूस गंथ से भर उठा था। तमाशे के डेरे के पास भीड़ बढ़ती ही जा रही थी। लेकिन वहाँ तमाशे का कोई आदमी नहीं दिख रहा था केवल उनका मलबा दिख रहा था। पूरा डेरा राख का ढेर बन चुका था। पुलिस और गांव के लोग राख कुरेद-कुरेद लोगों की अस्थियां तलाश कर रहे थे। उनमें छोटे-छोटे बच्चे तक थे। गांव की महिलाएं जोर-जोर से कारन करके रो रही थीं जैसे कोई उनके घर का ही व्यक्ति चला गया हो। पुलिस ने इसे आकस्मिक दुर्घटना मान कर लाषों का पंचनामा किया और पूरा मलबा गाड़ी में भरवा के नहर में फिंकवा दिया। हांलांकि गांव वाले सब समझ रहे थे मगर ऐसे उद्दण्ड व्यक्ति के सामने किसी का साहस ही न हुआ कि चूं तक करे।


राजपुर से ही लगा हुआ ग्राम सेमरा था जहां लोग बाग अभी जागने-जागने को हो रहे थे। एक कच्चे रास्ते पर काला कुत्ता बैठा बड़ी देर से कूं-कूं कर रहा था। सुबह के चार बजे थे। तभी उधर से एक साईकिल चालक गुजरा और कुत्ते के पास पहुँच कर ठिठक गया। क्या देखता है कि कुत्ते के पास एक छोटी सी बच्ची भी बेहोश पड़ी है। उसने उसे फौरन उठाया और किसी तरफ छाया में ले जा कर जेब से माचिस निकाली और आस-पास से पत्ते इकट्ठा कर उन्हें सुलगा दिया। बच्ची को अपना कोट पहना दिया। उसके पैरों को रगड़ता रहा। कुछ देर बाद उस बच्ची की आँख खुली। वह सहमी सी इधर-उधर देख रही थी। जैसे कुछ तलाश रही हो। व्यक्ति ने सोंचा अभी उसकी मनःस्थिति काम नहीं कर रही है। उसने उसे साईकिल पर बिठाया और चल दिया। पीछे-पीछे कुत्ता भी। घर पहुँच कर व्यक्ति ने बच्ची की दवा दारू शुरू की और फिर धीरे-धीरे वह थोड़ा सामान्य हुई तब उस व्यक्ति ने पूछा उसके बारे में। बच्ची ने उसे पूरी सूरत-ए-हाल बता दी। सुन कर वह सन्न रह गया। उसने बच्ची को दिल से लगा लिया-

‘‘अब से तु हमारी औलाद।‘‘ कुत्ता कृतज्ञता से दुम हिलाते हुए कूं...कू...करने लगा।

सूर्या को अपने घर लिवा लाने वाला व्यक्ति एक किन्नर था। सेमरा गांव के हाट में फल-फ्रूट की दुकान लगा कर वह अपना जीवनयापन कर रहा था। उसे अच्छा लगा कि उसके उपेक्षित जीवन में एक फूल खिला है। अब सूर्या का वही घर था। घर में तीन सदस्य हो गए थे, वो किन्नर रंगी, सूर्या और कुत्ता लल्लू। धीरे-धीरे घाव भर गए थे। रंगी सूर्या को जान की तरह संभाल के रखता। पास के स्कूल में उसका दाखिला भी करवा दिया। वह नया परिवार पा कर धीरे-धीरे अतीत से उबर गई थी। मगर उसकी आँखों के सामने से वो दृष्य कभी न ओझल हो सका था। उसकी माँ का आग से लिपटा शरीर, नानी का रूदन और सभी साथियों की बेबस चीखें। फिर उन राक्षसी शैतानों का शैतानी अट्ठास। कभी-कभी वह नींद से जाग जाती और चीख पड़ती। वो आग उसके भीतर कभी ठण्डी नहीं पड़ी। वो आग हमेशा उसके सीने में दहकती रही थी जिसमें व