पूरे दो साल बाद आज बमुश्किल वक्त निकाल पाई हूँ मैके जाने का, फोन पर बार-बार माँ की शिकायत ने विवश कर दिया, सो घर की जिम्मेदारियाँ कुछ दिनों के लिए शेखर को सौंपकर शहर की आपा-धापी भरे जीवन से दूर गाँव की सुकून भरी हवा में कुछ दिन तस्सली के बिताने की कामना लिए बस में बैठ गई। खिड़की से बाहर चिर-परिचित इमारतें, घने पेड़ों के बीच अपने अतीत और गाँव की स्मृतियों को तरो-ताजा करते हुए स्मृति की लहरों में गोते लगा रही थी कि जाने कब गाँव की सरहद आ गई पता ही नहीं चला बस कंडेक्टर ने आवाज लगाई -
‘‘मेडमजी! आप लालू गाँव ही उतरेंगी ना!’’
‘‘हाँ! भई! हाँ! ’’
‘‘तो गाँव आ गया।’’
‘‘ओह! गाँव आ गया...,पता ही नहीं चला।’’
बस स्टेंड से घर कुछ ही कदम की दूरी पर था, भैया तो शहर में हैं, सप्ताह के अंत में ही घर आते हैं, बाकी समय नौकरी। बचपन में मामा जब गाँव आते थे तो माँ को कहते थे, दीदी तेरा गाँव क्या है, “चार गली एक नाका गाँव का मुंह बांका” जहाँ से भी आओ एक ही जगह पहुँचता है इन्सान | गाँवों की यही तो सुविधा है वरना शहर में तो... समझो आधी उम्र ही सफर में कट जाती है। घर भी बस स्टैंड के पास ही था सो मैं उतरकर स्वतः ही घर की ओर चल दी, आज भी गाँव में रिक्शा जैसी कोई सुविधा नहीं। शायद यहाँ लोग अपने पैरों पर ज्यादा भरोसा करते हैं। इसीलिए दुल्ली काकी, फूलमती और रजिया चाची, रामू काका जैसे लोग इस उम्र में भी चुस्त-दुरस्त हैं। रास्ते की चौपाल पर गाँव के बुजुर्गों से दुआ सलाम करते घर का रास्ता तय कर रही थी कि कितने ही नौ जवान दौड़ पड़े हाथ का सामान लेने ,
‘‘लाओ बुआ हमें दे दो। ये बेग हम ले चलते हैं।’’
यही तो संस्कार है हमारे गाँवों के कि यहाँ प्रेम से पगे रिश्ते आज भी साँझा है। एक की बुआ, गाँव की बुआ...., अच्छा लगा वरना मुए एक ‘आंटी’ शब्द ने सारे नारीत्व को समेट दिया।
ये मैके की अनुभूति भी ना कितनी सुखद होती है खासकर एक लड़की के लिए, वह चाहे उम्र के किसी भी पड़ाव पर पहुँच जाए, मगर मैके का नाम लेते ही उसके मन में अपना बचपन करवट लेने लगता है। माँ का स्नेह भरा स्पर्श, उनकी मान-मनुहार ... रास्ते में सोचती जा रही थी कि माँ दरवाजे पर टकटकी लगाए बैठी होंगी, जाते ही शिकायत करेंगी ।
‘‘मिलगई फुरसत अपनी गृहस्ती से ... तूने तो बिटिया माँ को भुला ही दिया।’’और मैं ... झट माँ से लिपटकर उनकी सारी नाराजगी दूर कर दूँगी। उनकी गोद में सिर रख सारी थकान धो डालूँगी। फिर एक माँ जब सिर पर अपनी ऊँगली फेरते हुए अपनी बेटी के चेहरे पर सुख की रेख देखकर भी यही शिकायत करेगी, “कितनी कमजोर लगने लगी है री ... अपना भी कुछ ख्याल किया कर।“ चंचल दिव्या जब माँ को चिड़ाने के लिए झट दौड़कर चश्मा देकर कहेगी, अरे! दादी ! जरा ठीक से देखो, बुआ दुबली नहीं उल्टे मोटी हो गई हैं।“ तो थू थू करते हुए माँ झट कहेगी, ‘‘चल हट परे ... नजर लगावेगी का।’’
सच! कितनी मधुर स्मृतियाँ होती हैं ये जीवन की, जो हमें जीवन के लिए उर्जा प्रदान करती रहती हैं। सोच ही सोच में घर की चौखट तक आ गई | मगर यह क्या? कोई नहीं है यहाँ तो, दरवाजे पर पसरा सन्नाटा मुझे मायूस कर गया। लगा मेरे उम्मीद के घरौंदे पर किसी ने बाल्टी भर पानी उड़ेल दिया हो। भारी कदमों से अंदर पहुंची तो छोटी भतीजी दिव्या लिपट गई मुझसे, ‘‘अरे! बुआ आ गईं आप! हम तो आपका ही इंतजार कर रहे थे।’’
‘‘मगर दिव्या! मुझे तो ऐसा नहीं लग रहा कि यहाँ किसी को ... भी मेरा इंतजार है।’’ मैं अपनी कसक को छुपा नहीं पाई। कुछ नाराजगी जाहिर करते हुए कहा, “देखो! माँ अभी तक नहीं आई मुझसे मिलने।’’ नजरें माँ को खोज रही थी |
‘‘वो बुआ! दादी ना...!” कुछ कह पाती दिव्या इससे पहले ही भाभी वहाँ आ गईं।
‘‘राधे –राधे ! दीदी! कैसी हैं?आखिर इतने दिनों बाद हमारी याद आई ?’’
‘‘राधे राधे! भाभी मैं ठीक हूँ। आप कैसी हैं?’’
बात भाभी से मगर अभी भी मेरी नजर माँ को खोज रही थी, आखिर उन्हीं की तड़प तो यहाँ खींच लाई थी मुझे वरना ... घर की उलझनों और बच्चों के बीच कितना मुश्किल हो रहा था निकलना। भाभी समझ रही थी मेरी आकुलता बोलीं, ‘‘दीदी आप फ्रेश हो लीजिए, तब तक मैं नाश्ता लगाती हूँ, माँ ने आपकी पसंद के कांजी बड़े बनाए हैं।’’
‘‘चलो! माँ को कम से कम मेरी पसंद तो याद है। मेरा गुस्सा बेकाबू हो रहा था। हम बेटियाँ आखिर माँ से ही तो अधिकार के साथ नाराज हो पाती हैं।’’
तभी भाभी बोलीं, ‘‘तब तक माँ भी आ जाएंगी ... तब-तक आप ...’’
‘‘क्या! माँ घर पर नहीं हैं! कहीं बाहर गई हैं? ऐसा कौन सा जरूरी काम आ गया कि माँ ...”
‘‘नहीं! वो बस आती ही होंगी।’’ लगा भाभी कुछ छुपाने का प्रयास कर रही थी मुझसे।
बुझे मन से चाय नाश्ता किया, माँ फिर भी ना आई मेरा घैर्य छूट रहा था, मैंने भाभी से फिर पूछा- ‘‘आखिर माँ गईं कहाँ हैं?’’
भाभी ने बड़े धीमे स्वर में कहा, “दीदी! वो दुल्ली काकी है ना ...’’
‘‘हाँ! हाँ! क्या हुआ उन्हें?”
‘‘उनकी तबियत ठीक नहीं ... बहुत सीरियस हैं वो।’’
‘‘मगर अभी कुछ महीनों पहले तो ठीक थीं, अचानक ऐसा क्या हुआ है उन्हें?’’
‘‘कुछ होने में कसर ही क्या छोड़ी थी भगवान ने दीदी! जीवन का अकेलापन आखिर डस गया काकी को, डॉक्टर कह रहे हैं वो एकाध दिन की मेहमान हैं। बस, उन्हें ...’’
भाभी शायद कुछ कह रही थी मगर मेरी आँखों के आगे काकी का निश्छल साँवला चेहरा नाचने लगा। तेल से लथ-पथ बालों को सीधा कर सँवारना, चौड़े माथे पर वही एक रूपये के सिक्के को रखकर उछाला गया बड़ा सा टीका जिसे बिन्दी कहना तौहीन होगी। मांग के बीच गहरी सिंदूर की लंबी रेखा और उस रेखा में खोया काकी के जीवन का सुकून, मैं दुल्ली काकी के जीवन की गहराई में खो गई। कोई खून का रिश्ता नहीं था उनसे हमारा, मगर थीं वो हमारी बेहद अपनी, हमेशा हँसती मुस्कुराती, सबसे प्रेम से बतियाती, बचपन से ही हमने काकी को अपनी देखभाल करते देखा है। सुबह आँख खुलते ही काकी हमारे सामने होतीं। कभी नहाने के लिए पानी लिए हुए तो कभी हमारा कमरा व्यवस्थित करते हुए। जिस अपनत्व के साथ वो हमें तैयार कर स्कूल भेजतीं कभी माँ को देखना ही नहीं पड़ता। हमें टिफिन में क्या पसंद है, क्या नहीं, कभी उन्हें कहने की आवश्यकता नहीं पड़ी। मन के भाव वे माँ की तरह ही जान लेती थीं। इतना ही नहीं बचपन में शैतानियाँ करने पर जब माँ हाथों में छड़ी लिए हमारे पीछे दौड़तीं तो काकी सदैव माँ और हमारे बीच दीवार बन हमें बचा ले जातीं- ‘‘अरी! बहुरिया! तू भी का बालकन के संग लग गई हाँ ! अए! बालक हैं उधम ना करिहैं तो का हम करिहैं? चल छोड़ इने, रसोई मैं देख कित्तो काम पडौ है।’’
और पीछे से हाथ के इशारे से हमें भाग जाने को कहतीं। काकी का आँचल बड़ी महफूज़ जगह थी हमारे लिए, माँ के क्रोध से बचने के लिए। बीमारी में रातों को काकी ने हमारी जो देखभाल की है वो हम कैसे भूल सकते हैं। आज वही काकी कुछ पल की मेहमान हैं। सुनकर मेरा घर पर रुकना संभव ना था ।
‘‘भाभी! मैं दिव्या को लेकर काकी को देखने जा रही हूं।’’ अब तक मेरी सारी नाराजगी दूर हो चुकी थी।मेरे कदम खुद ब खुद काकी के घर की ओर बढ़ रहे थे, किन्तु मन-मस्तिष्क में काकी की जिन्दगी के पन्ने परत दर परत उलटते जा रहे थे। काफी दिनों तक हम यही समझते रहे कि काकी हमारे परिवार का ही हिस्सा हैं मगर जब रात में वो हमें घर में दिखाई नहीं देती तो हमने माँ से पूछा था।
‘‘ माँ ! ये काकी रात को कहाँ चली जाती हैं?’’
तब माँ ने बताया कि वे अपने घर सोने जाती हैं।
‘‘ तो क्या ये घर उनका नहीं....? ’’
‘‘नहीं बेटा ! वो दीनू बाबा की बेटी हैं। वो तो बस हमारी मदद के लिए दिन में हमारे घर रहती हैं। तब भी माँ ने नौकरानी वाला कोई शब्द इस्तेमाल नहीं किया था और ना ही काकी ने कभी पराएपन का एहसास होने दिया। वो तो समय के साथ काकी का रहस्य हमारे सामने आता चला गया। वे परित्यक्ता हैं। उनके पति को उनका सादगी भरा व्यक्तित्व पसंद नहीं आया सो उन्होंने उन्हें अनपढ़ गंवार पत्नी का खिताब देकर छोड़ दिया। हमारी शिक्षा ने अब तक हममें तर्क-वितर्क के बीज बो दिए थे अतः हमने जब काकी से पूछा आखिर क्यूँ छोड़ दिया उन्होंने आपको? और काकी जब उन्हें तुम्हारी परवाह नहीं तो उनके नाम का यह सिंदूर क्यों?” वे बड़े भोलेपन से कहतीं - ‘‘अब का बतावैं बिटिया! हम तुम्हारी तरह सकूल तो गए नाहिं, बस घर में अपनी अम्मा और काकी को देखे रहे | वे रोज नहाए धोए के म्हौं पे ढेर सारौ तेल चुपड लेवै हीं, अउर दिया सलाई की सींक लै के माथे में जे लंबी-चौड़ी सिंदूर की लकीर खींच के माथे पे बड़ी सी गोल बिंदी लगाय के जब तैयार हैंती तो हमकेा बहुतइ भाती । एक दिन बिटिया हम हमार महतारी से कहैं कि ‘‘माई! हमई लगालैं ई बिंदी अउर सिंदूर,’’ तब माई कहत रहीं, ‘‘नाहि बिटिया! ई तो सादी सुदा औरत जात ही लगावै हैं | अबए धीरज धर तेरौ ब्याह हैजइहैं तब तू भी लागवै करियौ ई सिंदूर, लाली, काजल , बिंदी।’’ अब बिटिया हम कहा जानै ब्याह का होत है सो हम रोजई माई से जिदियात रहे, ‘‘माई री! हमौ ब्याह करादै, कब करावैगी बतादै, हमरौ सिंदूर बिंदिया लगावै को बहुतइ मन है।“ माई हँस के समझाउत रही, ‘बिटिया ! ब्याह होइएं तो ये देहलीज छूट जेंहि।‘ अउर टेम आत देर नाहि न लागत। पर बिटिया हमें तो सिंदूर की चमक इत्ती भाइ कि कछु और दिखाई ही ना परो।’’ सिंदूर के प्रति इतना मोह, कि कोई विवाह के लिए इतना आतुर हो जाए! असंभव काकी का यह अल्लहड़पन शिक्षा का अभाव ही तो कहा जाएगा ।
खैर! बाल विवाह का जमाना था काकी का विवाह भी आठ साल की उम्र में हो गया हालाकि गौना अभी काफी दूर था, मगर यह बाल विवाह उनके जीवन का अभिशाप बन गया। बचपन में किया गया ब्याह जिसकी बस धुंधली सी स्मृति थी काकी को, जब उनसे उनके पति के बारे में पूछते तो चेहरे पर वही लाज लिए वे कहतीं - ‘‘बिटिया! हम तो उनको जानत भी नाहि, नाहि कबौ देखे रहे। उ दिन तो घूंघट में रहे, फेर उ कभी ना आए घर। फेर भी बहुत खुस थे हम कि अबए हम भी माई और काकी के संग म्हौं पे तेल चुपड़, बड़ी सी बिंदिया और सिंदूर लगा इठलाएके इहाँ ते उहाँ घूमेंगे। ’’
काकी सीधी-सादी, भोली अपनी खुशि में मस्त थीं, उधर काकी के पति शहर में इंजीनियर की पढ़ाई पढ़ रहे थे। भविष्य के किसी सपने या फिर दांपत्य जीवन से अनजान थी काकी, यूं साल पर साल बीत रहे थे काकी से ज्यादा उनके घर के लोगों को उस दिन का इंतजार था जब गौना होकर उनकी बिटिया अपने घर जाती मगर अफसोस यह इंतजार इंतजार ही रह गया। काकी के ससुराल से खबर आई कि शहर में पढ़े उनके पति को गाँव की अनपढ़ और बेसलीकेदार पत्नी पसंद नहीं ... उसने पढ़ी लिखी शहरी लड़की से शादी कर ली है, चाहें तो वे भी अपनी बेटी का दूसरा ब्याह कर लें, चाहे तो खाना खर्चा ले लें। परिवार पर मानो आसमान टूट पड़ा। बैठे-बिठाए बिटिया पर लांछन लग गया। फेरों की दोषी बन गई बेटी उनकी। तिस पर स्वाभिमानी बाप को बेटी के लिए खाना खर्चा लेना मंजूर न था।
मगर काकी जिन्होने पति का संसर्ग कभी जाना ही न था बिछड़ने का दुख समझ न पाई। जिन्दगी की इतनी बड़ी घटना घट गई मगर वे बेखबर वही माथे की बिंदिया और सिंदूर की चटक में खोई रहीं तब उन्हें समझ ही न आया कि क्यों घर में इतना कोहराम मचा है? क्यूँ माता-पिता इतने दुखी हैं? उल्टे रोती हुई माँ को समझातीं, ‘‘अम्मा का फरक पडिहैं उहाँ रहैं कि इहाँ रहैं। काहे बापू इत्तौ दुख मनावै हैं?’’
‘‘किन्तु काकी केवल माँग में सिंदूर भरना, बड़ी सी बिंदिया लगाना यही तो सुहागन होना नहीं, एक पति का भी कोई फर्ज होता है कि अपनी पत्नी को शारीरिक, मानसिक, आर्थिक, समाजिक सुख और सम्मान दे। आपने उनसे कभी शिकायत क्यों नहीं की, काकी?’
‘‘हम का सिकायत करतै बिटिया ! हमउ कभई बापू के सामनें ना बतियाए तो उ पराए मरद के सामने कैसन कछु कह देते? और फेर जो भाग में लिखाकर लाए थे उ तो भोग भोगवैके पड़ि ना !’’
‘‘ काकी ! क्या सचमुच आपको कभी उनसे कोई शिकायत नहीं ?’’
‘‘नाहिं बिटिया! हमहूँ तो सदा येई माँगत रहे भगवान से वे जहाँ रहें सुख पावै।’’
धन्य है भारतीय नारी, शायद धरती सा धैर्य इसी को कहते हैं और अपने इसी गुणों के कारण ही देवता की दृष्टि में वंदनीय है नारीं।
पुरुषप्रधान समाज की एक और पीड़िता काकी। मैंके की यह बेटी मैंके की ही होकर रह गई। जब सात फेरे लेने वाला ही अपने वादे से मुकर गया तो ससुराल वाले भला क्यों कर उन्हे अपनाते अतः ससुराल की देहली चढ़ने का सौभाग्य ही न मिला काकी को। सबने काकी के साथ हुए इस हादसे को अपने हिसाब से देखा, किसी ने वर पक्ष को कोसा तो कई ऐसे भी लोग थे जिन्होंने काकी को ही भाग्यहीना नाम दिया।
‘बदनसीब है दुल्ली, जो ससुराल की ड्योरी भी नसीब न हुई अब सारी उम्र यूं ही सुहागन होकर भी बेवा बनकर उसी के नाम की माला जपती रहेगी।’
मगर उनका दूसरा विवाह करने की क्यों कर किसी के मन में नहीं आई यह बात मेरे समझ से परे थी। उनके परिवार से हमारे पुराने संबंध थे अतः काकी अपना समय बिताने माँ के पास आ जातीं और यूं धीरे-धीरे वह हमारे परिवार का अभिन्न अंग बन गई। यहीं रहतीं खाना-पीना सब हमारे साथ; बस रात को सोने के लिए घर चली जातीं और सुबह जल्दी ही आ जाती। हमसे मन जो मिल गया था उनका।
दिव्या रास्ते में बताते जा रही थी कि बुआ जब तक दीनू बाबा और उर्मि दादी रहे तब तक वे उनकी देखभाल करते रहे, सब कुछ ठीक-ठाक चलता रहा मगर साल भर हुआ दीनू बाबा और दादी जब से नहीं रहे, तब से काकी के भाई- भतीजों का व्यवहार उनके प्रति रूखा हो गया। वे उनकी उपेक्षा करने लगे जिससे भीतर ही भीतर टूटकर रह गई हैं काकी ,अब उन्हें जिन्दगी की कमी का एहसास होने लगा। हमेशा हँसती- मुस्काती काकी मानो हँसना ही भूल गई। यही खामोशी अंदर ही अंदर उन्हें तोड़ गई। रोग लगा बैठी हैं मन को ना खाने का होश ना सोने का, दरअसल उन्हें डर बैठ गया है कि ससुराल की दहलीज छूटने पर मैके में शरण मिली किन्तु अब अगर यह ठिकाना छिन गया तो कहाँ ठौर मिलेगा। पति का घर ही एक औरत का स्थायी ठिकाना होता है बचपन में माँ से सुना था बदकिस्मती से वह भी नसीब नहीं हुआ। फिर इसी घर को अपना स्थायी ठिकाना मान बैठीं क्या पता था कि इस अवस्था में यह भी एक प्लेटफार्म साबित होगा। अब ... कहाँ ठिकाना खोजे? बस इसी चिंता में घुलती रही। दुनिया क्या कहेगी ... ‘करमजली! कहीं ठिकाना ना पा सकी, ना ससुराल ने अपनाया ना मैके ने। कैसा फूटा भाग लेकर जन्मी कि कोई अपना ना सका।’
जिसे परणा उसका तो चेहरा भी याद नहीं। बदकिस्मती का लांछन लेके इस दुनिया से जाना उनके लिए बड़ा त्रासद है। आखिरी इच्छा यही थी कि जिसके नाम का सिंदूर उम्र भर माँग में सजाए रही जाते-जाते उसे एक बार देख लेती, उसके हाथों अगर चुटकी भर सिंदूर सजाती सो सारी उम्र का दुख भूल कर चैन से मर पाती। भले ही जिसने सारी उम्र इस देह को तिल-तिल कर जलाया हो किन्तु इस मृत देह को तो मुक्ति उसी के हाथों दी अग्नि से होगी। सारा जीवन दुनिया के सामने सिर नीचा किए जीते रही कम से कम अब तो दुनिया को बता सके कि मैं करमजली! नहीं ... और जीते जी यह दहलीज नहीं छोड़ना चाहती हैं वो बस इसी फिक्र में ‘उनका यह हाल हुआ कि आज वे आखिरी साँस गिन रही हैं।
‘‘तो क्या उनके पति को खबर की है?’’
‘‘हाँ! फोन तो किया है देखें क्या होता है?’’
“भगवान करे कुछ गैरत जाग जाए उसकी।“ यूं तो उस शख्स के प्रति तनिक भी अपनत्व का भाव न था मगर काकी के सुख की खातिर यह दुआ माँग रही थी भगवान से कि जाते-जाते कुछ तो सुख उनकी झोली में डाल दे भगवान। वरना तेरे न्याय के तराजू का अपमान होगा । हम काकी के घर के सामने थे बाहर गाँव के लोग जमा थे, भारी कदमों से अंदर पहुंची तो देखा काकी बिस्तर पर निष्प्राण पड़ी थीं। खाना-पीना तो उन्होंने कभी का छोड़ रखा था, सदा खिलखिलाती रहने वाली काकी ने गहरी उदासी ओढ़ रखी थी। वही भाई-भतीजे जिनकी वजह से आज उनका यह हाल हुआ उनके मुँह में गंगाजल और तुलसी पत्र डाल रहे थे। काकी मूक आँखों से अपनी जिन्दगी का यह तमाशा देख रही थीं। मैंने हौंले से आवाज दी।
‘‘काकी! मैं आपकी सोना ... धीरे से आँखों की पुतलियाँ मेरी ओर घूमी फिर दो बूँदें आँसू की आँखों के किनारे तर करते हुए गालों में ढुलक गई। बस कुछ ही पल की मेहमान है ये जिन्दगी और फिर खेल खत्म, उनकी पीड़ा देखी नहीं जा रही थी, ना जाने कहाँ प्राण अटके थे जो उन्हें मुक्त नहीं होने दे रहे थे। बाहर खड़े गाँव के लोगों के बीच खुसफुसर हो रही थी ।
‘‘कम ते कम अबई आ जाते जमाई! आखिरी बेर ही खबर ले लेते, ई जनम का कर्ज ई जनम में उतर जातौ, ऐसे तो मर के भी मुक्ति ना पाने की दुल्ली।’’
दरअसल काकी को जो डर था कि गाँव वाले उन्हें करमजली कहेंगे मगर आज हर गाँव वाले की सहानुभूति काकी के साथ थी। सभी की इच्छा थी कि जिनकी खातिर सारी उम्र तमाम कर दी, वो काकी के रहते एक बार तो आ जाते, मरते तन को कुछ तो राहत मिलती जिस व्यक्ति के नाम पर उन्होंने पूरी उम्र न्यौछावर कर दी जाते-जाते उसका मुंह तो देख लेती। रात गहराती जा रही थी काकी के स्वास्थ्य में लगातार गिरावट आती जा रही थी |
न जाने क्यूँ उस रात की कालिमा कुछ गहरी लग रही थी, पहाड़ सी वीरान रात काटे नहीं कट रही थी रात की पहर बीतते न बीतते सबकी राय हुई कि काकी को बिस्तर से उतार लिया जाय, अब कुछ ही पल की मेहमान हैं सो बिस्तर से उतार कर उन्हें नीचे लिटा दिया गया। मैं आदमी की लाचारी देख रही थी कैसे औरों के हाथों की कटपुतली बन जाता है इंसान, मगर शायद तकदीर को रहम आगया काकी पर। बाहर से फुसफुसाहट सुनाई दी, “काकी के मरद आय गए|” माहौल में सरगरमी बढ़ गई। कुछ लोगों की नजर उन्हें एक अपराधी की भांति देख रही थी, कोई कह रहा था - ‘‘चलो अंतरात्मा ने झकझोरा तो ... ‘‘ कोई काकी को इसका श्रेय दे रहा था कि ये काकी के सिंदूर की साधना है जो उन्हें यहाँ खींच लाई। वो काकी के सामने खड़े थे। काकी जो शायद इसी पल के लिए अपने प्राण संग्रह किए हुए थी। पति के आने की खबर सुन मरणासन्न मुख पर भी लाज की लाली छा गई। अपलक उस मुख को निहारती रही अपने जीवनधन को जिन्दगी रहते तो न देख सकी मरने से पहले मानो इन स्मृतियों को कैद कर देना चाहती है ताकि कभी भगवान के सामने मुलाकात हो तो पहचान सके। कहीं कोई शिकायत नहीं बल्कि चेहरे पर अपूर्व तृप्ति का आभास था। उनकी भाभी कह रही थी।
‘‘देख लो लाला! पूरी उमर तुम्हाय खातिर बैठी रही जी ... जी, जो अबई नाहि ना आते तो चैन से मर भी न पाती जी ... जी |”
“अब तो तनिक बोल्यो उनसे मन की निकर जैहे ...’’ बड़ी बुढ़ियों ने कहा-
‘‘ला ... री बहुरिया! तनिक सिंदूर की डिबिया दे दे दुलारी की मांग भरिदैंहे लाला।’’
भाभी झट सिंदूर की डिब्बी ले आई लेओ भर देओ लाला! अपन पति के हाथों से मांग में सिंदूर भरते ही जैसे काकी के मुरदा चेहरे पर खुशी की चमक आ गई, मैं जानती थी यह उस गर्व की चमक है जिसे काकी ने अपनी जंग का विषय बना लिया था। उनकी निष्छल हँसी मानो कह रही हो - ‘‘देख लो गाँव वालों मैं करमजली नहीं, नहीं! मैं करमजली!‘‘
मानो कुछ कहना चाह रही हो काकी मगर कुछ कहने से पहले ही काकी की गर्दन एक ओर लुढ़क गई। जिंदगी का व्यापार पूरा हो गया। जिन्दगी के रंगमंच पर यह चरित्र अब अपनी भूमिका पूरी कर किसी ओर मंजिल को बढ़ गया। जैसे-तैसे काली रात बीती, सुबह तड़के अंतिम सफर की तैयारियाँ होने लगी अर्थी को नहला घुलाकर तैयार किया गया ,फूल माला, चंदन गुलाल सब हाजिर था काकी की पार्थिव देह आखिरी श्रृंगार कर चुकी थी। उनके माथे पर वही एक रूपए के सिक्के के बराबर की गोल बिंदिया चमक रही थी। पति के हाथों आखिरी बार काकी की माँग में सिंदूर भराया गया, इतनी साज-सज्जा के साथ ससुराल तो न जा सकी काकी मगर आज यह डोला पूरे मान-सम्मान से अपने अंतिम सफर पर था। महिलाएं सिसक रही थीं। आखिर ! इसी पल का ही तो इंतजार किया था काकी ने, अब वे गर्व से गर्दन उठा कर जा सकेंगी ,कोई उन्हें अभागन! करमजली! या भाग्यहीना नहीं कहेगा। जिन्दगी के आखिरी सफर में ही सही जीत तो उनके हिस्से ही आई। यह खुशी और उत्साह का भाव उनके मृत चेहरे पर मेरी भावना भरी आँखे स्पष्ट देख रही थीं। अर्थी उठी, अपने पति के काँधे पर सवार काकी महायात्रा पर चल पड़ी। लोग राम नाम की दुहाई दे रहे थे, महिलाएं ये सोचकर कि भागों वाली थी काकी जो सुहागन मरी, उनके माँग से सिंदूर लेकर अपनी माँग में भर रही थीं और मैं ...! मैं सोच रही थी कि क्या यही है सिंदूर का सुख ?
लेखक डॉ लता अग्रवाल – परिचय
नाम- डॉ लता अग्रवाल (वरिष्ठ साहित्यकार एवं शिक्षाविद)
शिक्षा - एम ए अर्थशास्त्र., एम ए हिन्दी, एम एड., पी एच डी हिन्दी.
जन्म – शोलापुर महाराष्ट्र
अनुभव- महाविद्यालय में प्राचार्य ।
पिछले 9 वर्षों से आकाशवाणी एवं दूरदर्शन पर संचालन, कहानी तथा कविताओं का प्रसारण , राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय पत्रिका में रचनाएँ प्रकाशित |
मो – ९९२६४८१८७८
संग्रह प्रकाशनः-
शिक्षा पर - 16 पुस्तकें (जो विद्यालय और महाविद्यालय में पाठ्यक्रम में हैं| )
कविता संग्रह –4 मैं बरगद,(बरगद पर 131 कविता का एकल संग्रह ,गोल्डन बुक ऑफ़ रिकार्ड, बुक ऑफ़ रिकार्ड) आँचल,(माँ पर ११ कविता का संग्रह) सिसकती दास्तान,(किन्नर पर १२१ कविता का एकल संग्रह ) हस्ताक्षर हैं पिता (पिता पर ११११ कविता का एकल संग्रह)
बाल साहित्य – 5 (असरआपका , मुझे क्यूँ मारा ? , मेरा क्या कुसूर ?, पुस्तक मित्र महान ,मुस्कान)
कहानी संग्रह – 2 (सिंदूर का सुख- साँझी बेटियाँ)
लघुकथा संग्रह – 5 (मूल्यहीनता का संत्रास, गांधारी नहीं हूँ मैं ,तितली फिर आएगी , लकी हैं हम, धीमा जहर )
साक्षात्कार संग्रह – 1 (लघुकथा का अंतरंग)
उपन्यास – 1 (मंगलमुखी - किन्नर पर उपन्यास )
समीक्षा – 2 (पयोधि हो जाने का अर्थ , उत्तर सोमारू)
लघुरूपक – ( २० पुस्तकें )
साँझा संग्रह – (लगभग १२ )
सम्पादन – (प्रज्ञा ,गीत गागर ,लघुकथा कलश ,किन्नर समाज की लघुकथा ,स्त्री : संघर्ष से शिखर )
सम्मान
अंतराष्ट्रीय सम्मान -
(1, साहित्य रत्न" मॉरीशस हिंदी साहित्य अकादमी । 2. प्रथम पुस्तक ‘मैं बरगद’ का ‘गोल्डन बुक ऑफ़ वार्ड रिकार्ड’ में चयन 3. विश्व मैत्री मंच द्वारा ‘राधा अवधेश स्मृति सम्मान ।)
राष्ट्रीय सम्मान –
महादेवी कौशिक (लघुकथा) पुरस्कार सिरसा हरियाणा ,प्रतिभा सम्मान प्रज्ञा मंच रोहतक, शांति देवी सम्मान लखनऊ , शब्द्निष्ठा सम्मान अजमेर ,श्रीमती एवं श्री खुशहाल सिंह पयाल स्मृति कहानी पुरस्कार दिल्ली, परशुराम शुक्ल सम्मान देवपुत्र इंदौर , शब्द शिल्पी सम्मान अभिनव कला परिषद भोपाल , सशक्त नारी सम्मान अग्रवाल युवा चेतना मंच भोपाल। "स्व. मोहिनी रिजवानी स्मृति सम्मान इंदौर । कथाबिम्ब द्वारा दो बार कहानी को कमलेश्वर स्मृति सम्मान । लघुकथा रत्न सम्मान शीर्षक साहित्य परिषद भोपाल । स्वतंत्रता सेनानी ओंकारलाल शास्त्री पुरस्कार सलूम्बर , महाराज कृष्ण जैन स्मृति सम्मान शिलांग, राजस्थान नाथद्वारा साहित्य मंडल द्वारा मानद उपाधि । श्रीमती सुषमा तिवारी सम्मान भोपाल, प्रेमचंद साहित्य सम्मान,रायपुर , श्रीमती सुशीला देवी भार्गव सम्मान आगरा, श्रीमती सुमन चतुर्वेदी श्रेष्ठ साधना सम्मान भोपाल ,श्रीमती मथुरा देवी सम्मान भोपाल, सन्त बलि शोध संस्थान , उज्जैन, तुलसी सम्मान , विवेकानंद सम्मान , इटारसी, शिक्षा रश्मि सम्मान, होशंगाबाद, अग्रवाल महासभा प्रतिभा सम्मान, भोपाल ,"माहेश्वरी सम्मान ,भोपाल ,सारस्वत सम्मान आगरा, अन्य कई सम्मान एवं प्रशस्ति पत्र।
डॉ.लता अग्रवाल, 30 एमआई जी , यश विला, अप्सरा कोम्पेक्स A सेक्टर, इन्द्रपुरी ,भेल क्षेत्र , भोपाल-462022 , मो -09926481878
मन को झकझोर देने वाली एक सशक्त रचना। लेखिका बधाई की पात्र हैं।