मंगलसूत्र गायब हो गया यह मालूम हुए दो घंटे हो गए थे। सुमंगला जी जैसी हिम्मती स्त्री को भी काटो तो खून नहीं। अच्छा भला देवरानियों से मिलने बनारस आयी थीं। वह भी अकेली ट्रेन से। घर में पतिदेव ने हालांकि समझाया था कि जरुरत भर गहने ले जाओ तो बेहतर है। आखिर किसको दिखाना है। परंतु अक्ल पर पत्थर पड़ गए थे। रात में सभी रिश्तेदारों को चाव से अपनी संपदा के दर्शन कराए। यह कर्णफूल है। अरे भूल गई क्या? सुखदा की शादी के तीन साल बाद खरीदे थे। अपना प्रमोशन होते ही पहला तोहफा यही दिया। कहते थे कि तुम्हारी सारी कमी पूरी कर दूँगा। बस एक बार सैटल हो जाने दो। देवरानियाँ मौन होकर सुनती और एक दूसरे को कनखियों से देखकर मुह बनातीं।
अपना मंगलसूत्र दिखाते हुए उन्होंने विस्तार से इसकी पृष्ठभूमि पर प्रकाश डाला। सबसे छोटी देवरानी तो वहाँ से बिना बताए खिसक ली। कौन इनका पुराण सुने। इस गहने-कपड़ों के मामले में हम किसी से कम हैं क्या?
रात में देर तक बातचीत होती रही थी। फिर एक बार जब उनकी नींद खुली तो उठकर पानी पिया। न जाने कितना बजा होगा। अगले दिन सुबह मालूम हुआ कि मंगलसूत्र गायब...। कौन उड़ा ले गया और कब? देवरानियों की सहानुभूति और कौतुहल को छद्म मानकर वे बद्हवास सी उन स्थानों को भी भभोड़ने लगीं जहाँ मंगलसूत्र रखने की कोई संभावना नहीं थी। ऐसे वक्त इंसान घड़े में भी हाथ डालकर तश्तरी ढूढ़ने की कोशिश करता है।
दिल्ली अपने पति को फोन करके सुमंगला जी ने जब इस वाकये को बताया तो वे क्रोधित होने के बजाए शांत भाव से बोले,''मुझे पहले से अंदाजा था। तुम जब घर से निकल रही थी तभी टोका था कि इतनी सारी चीजें वहाँ ले जाने की जरूरत नहीं है। लेकिन तुम्हें तो सबको अपना वैभव दिखाना था...। खैर! चलो छोड़ो। रिश्तेदारी का मामला है। मेरे भी रुपए-पैसे वहाँ गायब होते रहे हैं।'' अंतिम वाक्यांश पर वे भिन्नायी। ''यह बात छिपाने के बजाए अगर पहले बताई होती तो हादसा होता ही नहीं।'' अंत में उन्होंने बस इतना कहा कि जहाँ एक किलो सोने की मालकिन थी वहाँ समझो कि नौ सौ ग्राम की हूँ। मेरा कोई भाग्य थोड़े न लेकर जाएगा।
आज से कुछ दशक पूर्व बनारस में अपना खासा दबदबा रखने वाले खानदान की सुपुत्री सुमंगला जी के दादा-पिता और चाचा लोग प्रजा पर एक तरह से राज किया करते थे। बेहद दबंग और शीघ्रकोपी। परंतु दुख-दर्द में दिल से मदद करने वाले भी। गमी व बीमारी में सुमंगला जी नौकर-चाकरों और उनके परिवार के बीच आर्त्त होकर हालचाल पूछने जातीं। खानदान में सबसे गुस्सैल और तेज वही थीं। तुमसे निबाह करना धरती के किसी आदमी के बस का नहीं है। चाचियाँ कटाक्ष करतीं। मुझे कोई लल्लू-पंजू चाहिए भी नहीं। वे अपने समय के हिसाब से बेहद साहसी और उद्दण्ड़ उत्तर देतीं। कोठी के पीछे वाले हिस्से में लगे आम, अमरूद और दूसरे फलदार वृक्षों पर वक्त-बेवक्त चढ़कर या डंड़े से कच्चे–पक्के फल तोड़कर खाना-खिलाना घर वालों द्वारा बेहद गैर औरताना कृत्य माना जाता। इस अमर्यादित आचरण के बावजूद परिजनों तथा अड़ोस-पड़ोस में लोकप्रिय थीं। रोबदाब पूरा पंरतु स्नेहिल व्यवहार भी प्रचुर। घर वालों ने उनका रिश्ता बनारस में ही निवास करने वाले एक परिवार से किया।
शादी के बाद ऐसे प्रेमल परिवेश से एक प्रकार से विस्थापित किए जाने से आत्मीयता से परिपूर्ण सामुदायिक जीवन व जीवन्त सामाजिक ताने-बाने को पीछे छोड़कर वे एक प्रवक्ता के घर आ गयीं। लेकिन जल्द ही अपने संपन्न व सुख-सुविधाओं से युक्त मायके की जगह अपेक्षाकृत अभावग्रस्त ससुराल में स्वयं को न केवल व्यवस्थित किया अपितु यहाँ भी लोग उनके अलग किस्म के स्वभाव को समझने लगे। ननदों के घर के मामले में बिन माँगे ही परामर्श के तौर पर अपनी सारी ज्ञान-गगरी उड़ेल देतीं। ऐसे मौकों पर न केवल सास की भृकुटि चढ़ती बल्कि ननदों के चेहरे पर भी व्यंग्य भरी तिर्यक मुस्कान आकाश में उत्पन्न दामिनी की भांति क्षण भर के लिए उभरती। पर जब छोटी ननद अपने पति और ससुराल वालों से लड़कर अपने अबोध शिशु को लेकर आयी तो उसे बूढ़े-बुजुर्ग की तरह देर रात तक समझाती रहीं। बच्चे की बीमारी में सेवा-सुश्रुषा ऐसी की कि पीठ पीछे उनके लिए लाट-साहब और गर्वनर साहिबा जैसे विश्लेषणों का प्रयोग करने वाली ननद अभिभूत ही नहीं अपितु विस्मयाभिभूत हो गयी। ननदों के बच्चों को चाँदी का कटोरा या सोने की जंजीर जैसा कुछ थमाकर वे लोगों को चौंका देती। उस समय तक पति की आय सीमित कही जा सकती थी। पर न जाने कहाँ से वे बंदोबस्त कर लेतीं। परंतु जब किसी आयोजन-प्रयोजन पर अपेक्षित प्रेम तथा आदर से बुलाया नहीं जाता तो बवाल खड़ा कर देतीं।
जिन्हें उनका यह रुप अबूझ लगता वे कोई प्रत्यक्ष टकराव न मोल लेकर पीछे भर्त्सना करते। गनीमत थी कि सुमंगला जी के पति परमेश्वर बिल्कुल विपरीत स्वभाव के थे। बेहद ठंड़े मिजाज के। हर चीज को तार्किक द्दष्टि से देखने-समझने एवं परखने वाले। वे अपनी धर्मपत्नी को भी समझते थे। इसलिए निभती थी। पति के दिल्ली स्थानान्तरित होने से पूर्व तक जीवन में एक संतुलन था।
इस उम्र में भी आइसक्रीम और गोला की शौकीन सुमंगला जी का रोजाना का खर्च सैकड़ों में था। कभी-कभार ज्यादा शौक चराया तो कोई सूट अथवा साड़ी खरीद लेती। भले ही वह आलमारी में एकाध बार पहनने के बाद पड़ा रहता। खर्च हजारों में भी पहुँच सकता था। पति की दरियादिली या लापरवाही, जो भी कहिए, परिजनों की नजरों में वे एक बिगड़ी हुई उम्रदराज महिला थीं। जहाँ तक लोगों को याद था एक दफा जरूर उनके बुद्धिजीवी पति ने मित्रवत् सलाह के तौर पर कहा था कि वे अपना खर्च नियंत्रित करे। साथ ही यह भी जोड़ दिया कि इतने पैसों से किसी औसत हैसियत वाले इंसान के पूरे परिवार का महीना निकल सकता है। इस पर वे अपने गहने निकाल कर रखने लगीं कि मेरी इतनी औकात है कि अपना बोझ खुद उठा सकूँ। मितभाषी एवं बुद्धिमान पति ने कोई प्रतिक्रिया नहीं प्रकट की। वे उठकर चले गए।
बनारस शहर ही नहीं अपितु गाँव की ममेरी, चचेरी बहनों के बेटों-बेटियों की शादी में वे हठ करके जाया करती थीं। मायका और ससुराल एक जगह होने का यही तो फायदा है। गर्मी में इसी प्रकार की एक यात्रा के दौरान उन्हें लू लग गई थी। एक मर्तबा वे खान-पान की कुव्यवस्था के कारण गाँव में बीमार भी पड़ी थीं। लेकिन क्या मजाल की उत्साह में तनिक भी शिथिलता आयी हो। नजदीकी रिश्तेदार जहाँ हजार-पाँच सौ की चीज थमाते वही वे मुक्त हस्त से मानो शादी की सारी सामाजिक-आर्थिक जिम्मेवारी वहन करने को आतुर दिखतीं। घर से बीस-पच्चीस हजार की नकदी बाँधकर निकलतीं। बहूएँ वक्र भृकुटि धारण कर कहतीं। माँजी तनिक अपनी पोतियों की ब्याह की फ्रिक भी कीजिए।
‘’चिन्ता न करो। सभी का बन्दोबस्त करके मरूंगी।’’ वे उस वक्त आश्चर्यजनक रुप से नाराज नहीं होतीं।
‘’बड़ी जगह पर रहकर बहनजी बिल्कुल गोरी मेम बन गयी हैं।’’ औरतें चुटकी लेतीं। ‘’हमारे बीच आप ही तो एक सेठ हैं।’’ समव्यस्क महिलाएँ कहतीं। अपने से छोटों को तो वे हड़का देती। हमउम्र को सलीके से कहतीं,’’अरे बहना हमारी आत्मा यहीं बसती हैं। वहाँ के साथ हम यहाँ के भी हैं। एक चिडि़या मुंडेर पर देखती हूँ तो शादी के पहले की सारी जिंदगी याद आ जाती है। मैं भी ऐसे ही आजाद थी।’’ उनकी वाणी में भावनाओं की थर्राहट सबको मौन कर देती।
अपने मायके के किसी लड़के-लड़की को बरसों बाद वयस्क होता देखकर वे उसे अपने पास बुलातीं और उसके माँ-बाप से अपनी पुरानी बातों की दास्तान छेड़ देतीं। फिर उसकी पढ़ाई के बारे में पूछती और अंत में उसकी शादी की बात उठातीं। तब तक वह लड़का या लड़की भाग जाते। ससुराल पक्ष में देवरों के बच्चों को उनके घर में रखे नाम में भी आधा-चौथाई कटौती करके बुलाती और पढ़ाई के प्रति सुस्ती के लिए लानत भेजतीं। उनकी माताओं की तनी हुई त्योरियों से बेपरवाह वे अपनी रौ में बोलती जातीं।
होली में हँसी-मजाक के दौरान छोटे देवर ने कहा कि अब भाभी बूढ़ी हो गयी हैं। राग-रंग इनके बस का नहीं। इस पर हरहराती नदी की भांति वे शुरु हो गयीं। ‘’इस गलतफहमी में मत रहना बाबू साहब। मरा हुआ हाथी भी सवा लाख का होता है।’’ उस दिन ज्यादा भांग पीने और हुड़दंगबाजी में युवाओं से होड़ लेने के चक्कर में वे शाम तक अस्वस्थ हो गयीं। पति की चिन्तित निगाह और सौम्य उलाहने के बीच देवरानियाँ बीच-बीच में मिजाजपुरसी के नाम पर सूँघने चली आयीं। दीदी जरा संभल के रहा कीजिए। इतना जंग छेड़ने का क्या फायदा। ‘’हाँ जरा तुम लोग इन्हें समझाओ कि ज्यादा पीया-वीया न करे।’’ उनके पतिदेव ने कहा। वे दुष्ट देवरानियों को कुछ न बोली पर अपने धीर गंभीर पति को आग्नेय नेत्रों से घूरने लगीं।
अगले दिन उनका सीधे-सादे शौहर से जमकर झगड़ा हुआ। ‘’उनके साथ मिलकर वार न किया कीजिए।’’
‘’अरे मैंने ऐसा क्या कर दिया?’’ वे बेचारगी का भाव मुख पर लपेटे हुए थे।
‘’चाचीजी कोई ऐसा उपाय बताइए जिससे इंसान हेल्दी बॉडी के साथ लम्बी उम्र पाए।’’ उनके बड़े देवर की युवती पुत्री ने फरमाया। ‘’मैंने तली-भुनी हर चीज छोड़ दी है। इवन पहले कोल्ड़-ड्रिंक वन्स ए वाइल पी लेती थी पर उसे भी छोड़ दिया। मैं रेगुलरली योगा करती हूँ। फॉरेन में तो लोग ऑरगेनिक फॉर्मिंग से पैदा अनाज खाते हैं।’’ उसने अपना सामान्य ज्ञान जाहिर करते हुए खुद भी ऐसा आहार ग्रहण करने की इच्छा प्रकट की।
‘’यह शरीर कुदरत की नियामत है बिटिया। बचपन, जवानी और बुढ़ापा इसके अलग-अलग मुकाम हैं। सभी को इनसे गुजरना है। देख पहले मैं भी तेरी तरह ही बछेरी की तरह उछलती-कूदती थी। बुजुर्गो की डाँट का कोई असर नहीं। लेकिन खाने-पीने की जहाँ तक बात है जो मर्जी हुई खाया। फिगर-विगर की फिक्र कभी नहीं की। आज बुढ़ापे में भी चाट-पकौड़ी जो भी मिले चूकती नहीं। देख नही रही हो यह काया। तुम्हारी जैसी दो-तीन समा जाए। लेकिन चुस्ती–फुर्ती में अभी भी जितनी कहो उतनी सीढि़याँ चढ़ कर दिखा दूँगीं। उछल-कूद तो खैर रहने दो। जरूरत पड़े तो अकेले घर का काम निपटाने का हौसला रखती हूँ।...और बेटी जहाँ तक जीने की बात है वह ऊपर वाले के हाथ में है।’’ इस बात पर उन्होंने मामला ऊपर वाले को सुपुर्द किया वरना अब तक बड़े तार्किक तरीके से बात चला रही थीं।
‘’दम-खम की जहाँ तक बात है आज भी पंचकोशी की जितनी परिक्रमा करवा लो हँसते हुए कर लूँगीं। आज के छोकरे क्या कर पाएगें।’’ इस बात पर प्रतिक्रिया समवयस्क महिलाएँ ही दे सकती थीं। अत: देवर की पुत्री चुप रही। शाम को आंगिक शिथिलता को दूर करने के लिए जब उन्होंने एक पुरानी महिरन को तेल मालिश हेतु अपनी काया सुपुर्द की तो दोपहर वाला दावा भुरभुरे दीवाल सा कमजोर लगा।
अपने जीवन के पूवार्द्ध को पुन: जीने के लिए बरसों पहले दिवंगत हो चुकी गाय की न जाने कौन सी पीढ़ी की बछड़ी को सहला-पुचकार कर मन को सांत्वना देतीं। अपनी उम्र की लड़कियों की शादी कहाँ हुई और उनके ठौर-ठिकाने अभी कहाँ है, इसकी खबर लेतीं। बिजली के दो खम्बों के बीच की तारों पर अकेली बैठी चिडि़याँ जैसी न जाने क्या सोचने लगती। गोदेलिया का ठठेरी बाजार घूम कर अपनी पसंद का कुछ ले आए। दिल्ली में कौन सी चीज नहीं मिलती है। पर बात चीज की नहीं है। अपनी जगह का सामान अलग मान रखता है। एक बार भदोही के कालीन ले गयी थीं। हफ्तों तक सबको बुलाकर दिखाती रहीं। ‘’बहनजी दिल्ली हाट और प्रगति मैदान में भी हमने देखा है।’’ पड़ोसिन ने कहा।
‘’सब उधर से ही तो आता है।’’ वे तल्ख स्वर को अतिथि के प्रति बरतने वाली मुलामियत घोलकर बोलीं।
‘’अरे महिमा जरा बताना दोनों बाजुओं का लड्डू-गोपाल बना भुजबन्ध कहाँ बढि़या मिलेगा। अपने दोनों छोरों की घरवालियों के लिए लेना है।’’ वे अपनी मझली देवरानी को सम्बोधित करती हुई बोली़। महिमा के पति कारोबारी थे। महिषी की भाँति स्वर्णाभूषण धारण कर रखे थे। मुँह बनाकर बोली,’’बनारस में जौहरियों की क्या कमी है। कहीं भी बन जाएगा।’’
बाद में वह महिलाओं के साथ लगाई-बुझाई के दैनिक कार्यक्रम में बोलीं,’’बहूएँ अगर जरा सा पूछती तो शायद उनके पाँव धो-धो कर आचमन करतीं। रत्ती भर पूछ नहीं है तब ये महारानीजी उन लोगों पर दोनों हाथों से दौलत लुटा रही हैं।’’
काशी में गंगाजी उत्तरमुखी हो जाती हैं। यहाँ बड़े-बड़ों की मति बदल जाती है। अनेक घाटों पर पुण्य–लाभ के लिए स्नान करने श्रद्धालु, पाप धोने की अभिलाषा से आए मनुष्यों और जलती चिताओं से संसार की माया के साथ इस नश्वर जगत की निस्सारता का बोध भी होता है।
दिल्ली आकर बहूएँ सांत्वना देने वाले भाव में उनके पास बैठीं। ’’जाने दीजिए माँजी किस्मत के लिखे को कोई थोड़े न टाल सकता है।’’ बड़ी ने मंगल सूत्र की चोरी के प्रति एक तरह से भावभीनी श्रद्धांजली दी। वे दोनों हाथ ऊपर उठाकर कुछ बुदबुदायी।
’’आप ऐसे लोगों के यहाँ जाती ही क्यों हैं?’’ छोटी बहू ने एक सामयिक प्रश्न उठाया। ’’सारे चोर-उचक्के भरे हैं। मेरे घर में क्या मजाल की एक दमड़ी भी इधर-उधर हो जाए। सच मेरे पापा उसूल के बड़े पक्के हैं। गलत लोगों से जिंदगी भर कभी बात नहीं करते।’’ उसके इस कथन पर बड़ी बहू देवरानी-जेठानी की लाग-डाँट क्षण भर हेतु भुलाकर उसे प्रशंसा से देखने लगी। ‘’आइंदा से कभी बनारस वालों के दरवाजे पर थूकने भी मत जाइएगा।’’ दोनों बहुओं ने समवेत स्वर में परामर्श के मधुवेष्ठक में आदेशनुमा कुछ सुनाया।
वे सहसा कुछ समझती हुई अपनी हथेलियों के सहारे उठीं। ‘’देखो तुम लोग बड़ी अच्छी हो। तुम्हारे घर के लोग बड़े अच्छे हैं। लेकिन खबरदार जो ऐसी वैसी बात कही। मैं आधी जिंदगी उधर बीता कर आयी हूँ। मुझे दुनिया का हाल पता है....।’’ वे बोलते-बोलते सहसा स्वयं चुप हो गयीं। चोरी तो हुई थी। दुनिया वालों की राय दो-तीन रोज में बदल जाएगी लेकिन दिल इतनी आसानी से माफ नहीं करता है। उखड़ती सांसों को संभालते हुए उन्होंने पुन: कहा,’’जिंदगी में सब लोग कभी न कभी इंसान को ठेस पहुँचाते हैं। अब यह हमारे ऊपर है कि हम उनकी दी हुई चोट को तरजीह दे या उनसे अपने रिश्ते को। कहना चाहिए पर वे हमसे कोसों दूर हैं। कभी-कभार का मिलना है। जो हमारे इर्द-गिर्द हैं वे रोजाना चोट पहुँचाते हैं।’’ उनकी आवाज बेधड़क थी। ‘’अभी भी वहाँ गुण ज्यादा हैं और दोष कम। जब तक जीती हूँ मन का नाता टूटेगा नहीं।’’ उन दोनों की नजरों में क्रोध व वाणी के व्यंग्य को देखने-सुनने के लिए वे रुकी नहीं। मुंह में पान डालकर बाहर निकल गयीं।
घर के बाहर सड़क पर चलते हुए टी-प्वाइंट तक पहुँच गयीं। वहाँ चाइनीज फूड वालों की गाड़ी का पहिया जमीन में कर्ण के रथ के चक्र की तरह धरती में आधा धंसा हुआ था। मन उड़कर गाँव के बगीचे में पहुँच गया। आम के बगीचे को निहारने की इच्छा हो रही थी। अभी भी एक-दूसरे से हिले-मिले साथ-साथ खड़े होगें। दूर से देखने पर ऐसा लगता होगा कि कई पेड़ नहीं बल्कि हरियाली की एक ही चादर बिछी है जैसे मनुष्यों को एक साथ, एक परिवार में जीना सिखा रहे थे। और वहाँ के नाते के क्या कहने। चार दिन पहले जो टोकरी भर पके आम प्रेम सहित घर में देकर गया था अगर उसके बगीचे में हम पत्थर चला दे तो क्या एक आम के लिए लड़ने चला आएगा। कनक चम्पा के विस्तृत पत्ते पर जामुन को स्वाद लेकर खाना उसी दौर की बात है। गाँव के मकान में दीवालों पर दरारें भी पड़ चुकी होगीं। धृष्ट पौधे उन दरारों में पाँव जमाकर माफिया की भांति फैले होंगे। क्या पता! सब यहीं से कल्पना कर रही हैं। वहाँ पता नहीं क्या हाल होगा। बनारस वाले घर पर गर्मी में छत को अच्छी तरह कई बालटी पानी से धोकर रात में खाट बिछाकर लेटे हुए गप हाँकते-लड़ाते निद्रामग्न हो जाने का सुख डबल बेड पर सोने से उच्चतर आनन्द प्रदान करता था। यह आत्मीय अनुभूति थी या नॉस्टेलिजिया से ग्रस्त लिजलिजी भावुकता? कहना कठिन था। सुमंगला जी के व्यक्तित्व, सोच का निर्माण जिस युग में हुआ था उससे भिन्नकाल में उन्हें अपना उत्तरार्द्ध व्यतीत करना पड़ रहा था। अच्छा भला घूम-टहल रही थीं कि मन में ख्याल आया कि घर लौटकर कैलेण्डर देख लेती हूँ। बुढ़ापे में यादाश्त सही नहीं रहती है। कहीं आज से गंगा दशहरा तो शुरू नहीं हो रहा है। दशाश्वमेध और पंचगंगा घाटों पर खूब गहमागहमी होगी। लंगड़ा आम और बनारसी पान का स्वाद और सुगन्ध महसूस कर विगत का आनन्द वर्तमान में लेती हुई एक मंदबुद्धि वृद्धा सद्दश्य चिंतन कर रही थीं। चौक, गोदलिया का ठठेरी बाजार, लहुराबीर, गोलघर और दालमंड़ी में मन एक अल्हड़ षोड़शी का विचरण कर रहा था।
कभी लगता कि वे श्मशान में बैठी कापालिक की भांति मुर्दे को जलाने के लिए शव-साधना कर रही हैं। इस तांत्रिक क्रिया में लोगों से हिलने-मिलने और यहाँ तक कि परकाया प्रवेश के द्वारा उनका मन जानने के लिए तमाम मंत्र जाप एवं अनुष्ठानों का सहारा ले रही हैं। कभी इन कृत्यों की निस्सारता का बोध होते हुए प्रतीत होता कि शव चिता पर लेटा हुआ है। अब और कोई उपाय नहीं हो सकता। परंतु फिर भी शरीर आग में भस्म होने में अपना समय लेती है। घी, लकड़ी, चंदन इत्यादि ज्वलनशील पदार्थ पूर्ण क्षमता से उसे भस्म करने में अग्नि का साथ दे रहे थे। परंतु शरीर के अंदर का पानी अभी भी आग से जूझने में उसका साथ दे रहा था।
लेखक परिचय – मनीष कुमार सिंह
प्राथमिक शिक्षा खगौल, जिला पटना में। बाद की पढ़ाई इलाहाबाद में हुई। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं यथा-हंस,नया ज्ञानोदय, कथादेश,समकालीन भारतीय साहित्य,साक्षात्कार,पाखी,दैनिक भास्कर, नयी दुनिया, नवनीत, शुभ तारिका, अक्षरपर्व,लमही, कथाक्रम, परिकथा, शब्दयोग, इत्यादि में कहानियॉ प्रकाशित। सात कहानी-संग्रह ‘आखिरकार’(2009),’धर्मसंकट’(2009), ‘अतीतजीवी’(2011),‘वामन अवतार’(2013), ‘आत्मविश्वास’ (2014), ‘सांझी छत’ (2017) और ‘विषयान्तर’ (2017) और एक उपन्यास ‘ऑंगन वाला घर’ (2017) प्रकाशित।
भारत सरकार, महिला एवं बाल विकास मंत्रालय में प्रथम श्रेणी अधिकारी के रूप में कार्यरत।
पता- एफ-2, 4/273, वैशाली, गाजियाबाद, उत्तर प्रदेश। पिन-201010
मोबाइल: 8700066981
लेखक आत्म-व्याख्या
लिखने की शुरुआत पढ़ने से होती है। मुझे पढ़ने का ऐसा शौक था कि बचपन में चाचाजी द्वारा खरीदी गई मॅूँगफली की पुड़िया को खोलकर पढ़ने लगता था। वह अक्सर किसी रोचक उपन्यास का एक पन्ना निकलता। उसे पढ़कर पूरी किताब पढ़ने की ललक उठती। खीझ और अफसोस दोनों एक साथ होता कि किसने इस किताब को कबाड़ी के हाथ बेच दिया जिसे चिथड़े-चिथड़े करके मूँगफली बेचने के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है। विश्वविद्यालय के दिनों में लगा कि जो पढ़ता हूँ कुछ वैसा ही खुद लिख सकता हूँ। बल्कि कुछ अच्छा....।
विद्रुपता व तमाम वैमनस्य के बावजूद सौहार्द के बचे रेशे को दर्शाना मेरे लेखन का प्रमुख विषय है। शहरों के फ्लैटनुमा घरों का जीवन, बिना आँगन, छत व दालान के आवास मनुष्य को एक अलग किस्म का प्राणी बना रहे हैं। आत्मीयता विहीन माहौल में स्नायुओं को जैसे पर्याप्त ऑक्सीजन नहीं मिल पा रहा है। खुले जगह की कमी, गौरेयों का न दिखना, अजनबीपन, रिश्ते की शादी-ब्याह में जाने की परम्परा का खात्मा, बड़े सलीके से इंसानी रिश्ते के तार को खाता जा रहा है। ऐसे अनजाने माहौल में ऊपर से सामान्य दिखने वाला दरअसल इंसान अन्दर ही अन्दर रुआँसा हो जाता है। अब रहा सवाल अपनी लेखनी के द्वारा समाज को जगाने, शोषितों के पक्ष में आवाज उठाने आदि का तो, स्पष्ट कहूँ कि यह अनायास ही रचना में आ जाए तो ठीक। अन्यथा सुनियोजित ढंग से ऐसा करना मेरा उद्देश्य नहीं रहा। रचना में उपेक्षित व तिरस्कृत पात्र मुख्य रुप से आए हैं। शोषण के विरुद्ध प्रतिवाद है परन्तु किसी नारे या वाद के तहत नहीं। लेखक एक ही समय में गुमनाम और मशहूर दोनों होता है। वह खुद को सिकंदर और हारा हुआ दोनों महसूस करता है। शोहरत पाकर शायद स्वयं को जमीन से चार अंगुल ऊँचा समझता है लेकिन दरअसल होता वह अज्ञात कुलशील का ही है। घर-समाज में इज्जत बहुत हद तक वित्तीय स्थिति और सम्पर्क-सम्पन्नता पर निर्भर करती है। कार्यस्थल पर पद आपके कद को निर्धारित करता है। घर-बाहर की जिम्मेवारियाँ निभाते और जीविकोपार्जन करता लेखक उतना ही साधारण और सामान्य होता है जितना कोई भी अपने लौकिक उपक्रमों में होता है। हाँ, लिखते वक्त उसकी मनस्थिति औरों से अलग एवं विशिष्ट अवश्य होती है। एक पल के लिए वह अपने लेखन पर गर्वित, प्रफुल्लित तो अगले पल कुंठा व अवसाद में डूब जाता है। ये विपरीत मनस्थितियाँ धूप-छाँव की तरह आती-जाती हैं। दुनिया भर की बातें देखने-निरखने-परखने, पढ़ने और चिन्तन-मनन के बाद भी लिखने के लिए भाव व विचार नहीं आ पाते। आ जाए तो लिखते वक्त साथ छोड़ देते हैं। किसी तरह लिखने के बाद प्रायः ऐसा लगता है कि पूरी तैयारी के साथ नहीं लिखा गया। कथानक स्पष्ट नहीं कर हुआ, पात्रों का चरित्र उभारने में कसर रह गयी है या बाकी सब तो ठीक है पर अंत रचना के विकास के अनुरूप नहीं हुआ। एक सीमा और समय के बाद रचना लेखक से स्वतंत्र हो जाती है। शायद बोल पाती तो कहती कि उसे किसी और के द्वारा बेहतर लिखा जा सकता था। मनीष कुमार सिंह
एफ-2,/273,वैशाली,गाजियाबाद, उत्तर प्रदेश। पिन-201010 09868140022 ईमेल:manishkumarsingh513@gmail.com
Comments