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  • निर्देश निधि

उसे आने दो अम्मा


शाम के चार बजे हैं, ना सर्दी है और ना ही गर्मी, अम्मा आँगन में मूढ़े पर पाँव ऊपर किए बैठी शाम की सब्जी के लिए मटर छील रही हैं। अम्मा के ठीक सामने पीढ़े पर बैठी मनिहारन साजी हाथ नचा–नचा कर अम्मा से बातों की नियमित किश्त अदा कर रही है। आस–पास के सारे गांवों की औरतें आज भी दुकान की चूढ़ियों की बनिस्बत इसी साजी की पहनाई चूढ़ियों को तरजीह देती हैं। अनपढ़, अनगढ़ मनिहारन होने से इतर साजी एक सम्वेदनशील महिला है। यही कारण है कि यह अपनी ग्राहक स्त्रियों की चहेती है। इसकी वे ग्राहक स्त्रियाँ इससे अपने सुख-दुःख साँझा करती हैं। यूँ तो साझी विस्तार में कहा जाने वाला पात्र है परंतु इसके विषय में कभी फिर कहूँगी, अभी बस यही बता दूँ कि इस वक्त मैंने इसे गाँव भर में कहाँ–कहाँ नहीं ढूंढा और ये यहाँ मेरे ही घर में बैठी कोरोना की वैश्विक महामारी सम्बन्धी अपना सारा ज्ञान अम्मा के सामने उड़ेले दे रही है।

“अम्मा आज की नूज (न्यूज़) देक्खी तुमने? ‘कुरोना’ के सबसे ज़ादा केस मुंबई में ई मिल रे।“ कहकर वह ठिठक गई है। उसे अम्मा का धनु याद आ गया है। वह भी तो मुंबई में ही काम करता है।वह थोड़ा रुक कर बोलती है, “अम्मा धन्नू भाईजान की कोई खैर-ख़बर?”

वह इतना ही कहती है और आगे के शब्दों के लिए अम्मा का मिजाज जानने के लिए उनकी ओर देखती है। अम्मा कोई उत्तर नहीं देतीं, सारा ध्यान मटर की फली पर लगा कर उसमें कीड़ा खोज निकालने का उपक्रम करती हैं। साजी उत्तर की प्रतीक्षा में अम्मा की तरफ एकटक देख रही है।

“साजी घर जा, और जल्दी जा तुझे इरफ़ान चचा बुला रहे हैं।“ मैं उसके शगल में व्यवधान डालती हूँ।

“हाय अल्ला ! ऐसा क्या हो गया भला, अब्बी तो आई हूँ, अबी तो साँस बी ना लई ठीक सै।“

“कुछ हुआ नहीं है, कोई आया है तेरे घर, वैसे भी तू ‘अब्बी’ नहीं आई है घंटे भर से गपिया रही होगी अम्मा से, मैं ही तुझे ढूंढ रही हूँ, बहुत देर से तो, अब जल्दी जा।“

“हाय अल्ला ऐसे में कौन आ गिया है ना जाने, कोई तो किसी के घर ना आ-जा रिया आजकल, मेरे घर कौन आ धरा बताओ। अई कुरोना से बी ना डरा वो जाहिल तो।“

वह उठ कर अपना कुर्ता सम्भालती हुई दरवाज़े पर जाकर पल को पीछे पलटी है।

“अच्छा अम्मा तो मैं जाऊँ, जाक्के देक्खूं कौन बेखौफ़ की औलाद आया है।“

मैंने इस बार उसे घूरकर देखा और वह थोड़ा सकपकाकर अपना बड़ा सा उन्नाबी दुपट्टा संभालती हुई, थुल-थुल काया लिए अपने घर की ओर तेज़ी से भाग गई है।

अब घर में अम्मा और मैं ही हैं, हालाँकि मेरा इकलौता बेटा वासु भी हॉस्टल से गाँव ही आ गया है पर इस समय वह घर पर नहीं है। वह गाँव के लड़कों के साथ, गाँव में प्रवेश करने वाले रास्ते पर पहरा देने गया है ताकि कोई कोरोना से संक्रमित बाहरी व्यक्ति गाँव में ना घुस जाए। प्रतिक्रिया जो भी हो अम्मा को बताना तो है ही, यही सोचकर बिना मोड़–तोड़ के मैं अम्मा को बताती हूँ।

“अम्मा धनु आया है।”

पल भर को अम्मा अवाक रह गई हैं, मुंह खुला का खुला ही रह गया है। जीवन यात्रा की इस गोधूलि में अपने धनु से मिल लेने की आशा अम्मा के चेहरे पर सर्दी की धूप सी खिल उठी है।हालाँकि अम्मा के चेहरे की उस सुखद धूप पर, पल भर में अतीत की विरूपता का काला बादल छा गया है। ख़ुद को संयमित करने के लिए उन्होंने मटर के दानों से भरा अपना बायाँ हाथ मोड़कर सीने से सटा लिया है। फिर भी आयु की अधिकता के कारण सिकुड़ आए अम्मा के होंठों की कोरें मुस्कुराने के लिए बस ज़रा सी फड़फड़ाईं भर हैं और वे तुरंत अपने पहले आकार में लौट आईं हैं। उन्होंने मुझसे अपनी यह प्रतिक्रिया छिपाने के लिए गोद में से धोती का पल्ला उठाया और अपने मुँह पर फिराया है। मैं उनका चेहरा पढ़ने का प्रयास कर रही हूँ।

उनकी उम्र के आँगन में सलेटी गोधूली उतर चुकी है। अतीत की विरूपता ने पल भर में बेटे से मिल लेने के उनके उछाह पर मिट्टी डाल दी है। अम्मा जीवन की तमाम विद्रूपताएँ सहते-सहाते अब तक अपने ऊपर संतुलन साधकर तटस्थ रहना सीख गई हैं। वे आँगन में पड़े मूढ़े पर पलोथी लगाए लगभग पहले जैसी ही बैठी मटर छील रही हैं। हाँ इतना ज़रूर हुआ है कि इस बार उन्होंने दाने ज़मीन पर और छिलके दानों वाले कटोरे में डाल दिये हैं, फिर भी वे सामान्य रहने का भरसक प्रयत्न कर रही हैं।परंतु भीतर मचा तूफान उन्हें असफल किए दे रहा है।उन्होंने बेचैनी में अपना दाहिना पाँव उतार कर नीचे रखी मूढ़ी पर रख लिया है। अम्मा के पैर एक तरह से रखे–रखे जब थक जाते हैं तो वे अक्सर यह वैसे भी करती ही हैं। अतीत का चेहरा कितना भी विद्रूप क्यों ना रहा हो पर बरसों बाद, जीवन यात्रा के लगभग इस अंतिम जैसे ही किसी पड़ाव पर अपने धनु का मुंह देख लेने का लालच वह लाख छिपाना चाहे पर कम से कम मुझसे नहीं छिपा सकती।मैं उनका चेहरा जन्म से जो पढ़ती आई हूँ।

अम्मा के मस्तिष्क में अतीत की एक रील सी चल पड़ी है, मैं अनुमान लगा सकती हूँ वे क्या सोच रही हैं। यही कि धनु के एक बार कहने पर ही उन्होंने उसका ब्याह कितने शौक से कामना के साथ करा दिया था।


पर कामना ने ना जाने कौन सा पूर्वाग्रह पाल लिया था ब्याह से पहले ही कि धनु बस माँ का ही होकर रहेगा और मैं पराई। इसीलिए वह अम्मा के पास बहुत कम आई थी और धनु जब भी गाँव जाने की इच्छा ज़ाहिर करता वह किसी ना किसी बहाने जाना टलवा देती। धनु अकेला ही गाँव चला जाता तो महीनो अबोला रखती, घर में कलह रखती। अपनी माँ को बुला लेती, माँ भी बेटी का पक्ष लेती। इस तरह धनु अकेला कर दिया जाता। हर बार की कलह ने धनु का आना भी प्रतिबंधित ही कर दिया। धीरे–धीरे माँ और बेटे, गाँव और शहर की दूरी बढ़ती चली गई।

कामना जब भी कभी-कभार अम्मा के पास आई थी, उसमें उसने गाँव घर और अम्मा के तौर तरीक़ों की या घर गाँव की निंदा ही की थी। गाँव भर में अपने प्रेमिल व्यवहार के लिए जानी जाने वाली अम्मा पर वह हर वक्त कोई ना कोई लांछन रख कर उन्हें बदनाम करने का प्रयास ही करती रहती। गाँव और घर को तो ऐसे सिद्ध करती जैसे गाँव, घर ना हुआ कोई बुराइयों का गट्ठर हो गया, कोई जेल, काला पानी हो गया।अम्मा से और मुझसे तो हर वक्त झगड़ने को तैयार रहती।

अम्मा कभी फ्रिज का पानी नहीं पीतीं। उस पर वह बोली घड़े का पानी कौन पीता है भला आजकल, कितना अन्हाइजेनिक है इसका पानी पीना। उसने इंसान से मिट्टी के रिश्ते, प्रेम और उसकी ताकत, सबको एक सिरे से ख़ारिज कर दिया था। अम्मा ने घनौची के नीचे की ज़मीन कच्ची ही रखकर उसके पास गुलाब के पौधे लगा रखे थे, जहाँ बीसियों गुलाब बारहों मास ही खिले रहते। घड़े से लेते वक्त ज़मीन पर गिरी पानी की एक–एक बूंद इन गुलाबों को जीवन देने के काम आती थी। इस पर कामना ने कहा, पानी के नीचे तमाम घास उगी है, इसमें ना जाने कितने कीड़े बिलबिला रहे होंगे। यहाँ खुली नाली, मक्खियाँ भिनकाती धोवन की हँडिया। छिः–छिः, यहाँ-वहाँ हर जगह सड़ांध ही सड़ांध। यहाँ कीचड़, वहाँ धूल, यहाँ घास, वहाँ कीड़े। बरसात के पानी में आँगन में बह कर आई मछलियां और कछुओं के बच्चे और केंचुए देखकर तो उल्टियाँ करती फिरी थी कामना। और धनु? वह तो उसके पीछे–पीछे सहमा हुआ सा उसकी लल्लो-चप्पो ही करता फिरा था। और घर के इंडियन पाखाने में तो उसने जाने से इंकार ही कर दिया था। तब उसकी नित्य कर्म कि व्यवस्था प्रधान्नी ताई के घर करनी पड़ी थी। जल्दी ही अम्मा ने भी अंग्रेज़ी पाखाना बनवा दिया था। पर समर लगाकर पानी की टंकी रखवाने के लिए पैसों की व्यवस्था के लिए अम्मा गन्ने की पर्चियाँ भुनने का इंतज़ार कर ही रही थीं कि उस बार धनु अम्मा को बताए बिना ही कामना के साथ गाँव आ गया था।तब तक टैप में पानी की व्यवस्था नहीं हो पाई थी, सिस्टन काम नहीं कर रहा था।सो इस बार कामना टैप में पानी ना आने से नाराज़ हो गई जबकि अम्मा ने खुद बाल्टी भरके पानी अंदर रखा था। धनु से ज़िद करके वह अगले दिन ही वापस लौट गई थी।

जब गर्मियों में वह आई तो समर लग चुका था, घर में अब पानी सहित हर बात की सुविधा हो चुकी थी। परंतु उस बार आई तो नीम की ही जानी दुश्मन बन गई थी। नीम पर फल आया हुआ था आँगन में तमाम निबोलियाँ टपक रही थीं। एक दिन उसका सैंडल पकी निबोली के ऊपर पड़ कर फिसल गया, वह गिरी तो नहीं पर गिरने से कुछ कम भी नहीं रही। खाट का पाया ना पकड़ लिया होता तो मुंह के बल गिरती ही। हाथ पर सारे शरीर का बोझ पड़ा तो वह दर्द करने लगा था।उस दिन तो वह ज़िद पर ही अड़ गई थी।

“इसे कटवाओ अम्मा, मैं गिर जाती तो फ्रेक्चर हो जाता, मैं तो महीनों के लिए बिस्तर पर पड़ जाती ना। वैसे भी इसकी निबोलियों में दुर्गंध आती है, इस पर पंछी बैठते हैं और घर गंदा करते रहते हैं।“

“नीम काट दो, अरी कैसे काट दें नीम? यो नीम तो धन्नू के बाप के बी बाप का लगाया होया है बेट्टे।“

“तो?” कामना ने अकड़ कर कहा।

“अरी तो क्या? यो तो पुरखा दाक्खिल (सरीखा) है हमारा, इसै कैसै कटवा दें?“

“पेड़ भी पुरखे हैं आपके, हाऊ फ़नी?” कामना ने व्यंग्य किया था।

“हाँ-हाँ पुरखे ई क्या पेड़ तो दई–देता (देवता) हैं म्हारे।पोक्खर की ढाँग प खड़ा पीप्पल पूज्जा जा म्हारे हें तो, उसके नीच्चे बना देता का थला पोक्खर कू बी पवित्तर बना दे है। जो कोई पढ़-लिख कै पेड़ों का महात्तम ना जान्ना तो उसकी पढ़ाई-लिखाई तो सब गुड़-गोब्बर है।“

“हाँ-हाँ नहीं जानी मैं इस गंदगी का महत्व, मुझे जानना भी नहीं है। इसे जानना आपको ही मुबारक हो, आप ही करो इनकी पूजा-अर्चना, आप ही मानो इन्हें अपने देवी–देवता। घर के इंसानो को ना मानकर इन्हें ही मानो सब कुछ।“ कामना तैश में आकर बोली थी।

“इतना तैश खाने की तो कोई ज़रूरत ना है बेट्टे।” माँ ने अपनी आवाज़ में संतुलन साधकर कहा था।

“हैल है ये घर और सबसे बड़ा हैल है ये गाँव, एक पाँव भी मैं तो बिना देखे ज़मीन पर नहीं रख सकती यहाँ।“

“यो हैल क्या हो है?” शब्द से अनजान अम्मा ने धनु की ओर देखा, पर धनु चुप ही रहा।

“कोई अच्छी चीज तो नाई होगी, इसके तेवर बता रए हैं।“ अम्मा शांत स्वर में बोली थीं।

“हैल, नर्क होता है नर्क।“ कामना ने खुद बताया था।

अम्मा थोड़ा रुक कर बोली थीं, “और कोई तमग़ा बी देना है इस घर कू इस गाँव कू या बस?”

“हुँह…” कामना ने घृणा से मुँह बनाया।

“देख बेट्टे हम गाँव वालों का तो जितना नाता आदमी का आदमी से आपस में है, उतना ही आदमी का धरती की मट्टी और दूसरे जीउ–जिनाबरों (जीव - जानवर) सै भी है। यो नात्ता प्रेम और करुना का तो है ई है, यो रिश्ता आपसी ज़रूरत का रिश्ता बी है बेट्टे। कोई अकलमंद ही जान सकै कि धरती पै पेड़–पौधे, कीड़े–मकौड़े, जीउ–जिनाबर हैं तो ही आदम जात का अस्तित्तव है।“

“हाँ जी मैं तो बेअकल हूँ।“ कामना ने अम्मा द्वारा खुद का अपमानित किया जाना जानकर तिलमिलाते हुए कहा।

“बेद–पुरान तो नू (यूँ) भी बताए करें कि आत्मा तो कीड़े-मकौड़ों में भी हमारी जैसी ही है, सरीर ही बदला हुआ है और किसी एक जनम तो हम बी उसी सरीर में थे।“ अम्मा अपनी ही धुन में बोलती जा रही थीं।

“बहुत हो गया अम्मा...” धनु ने अम्मा को टोका, खुद धनु को भी अब गाँव कामना की दृष्टि से ही दिखाई देने लगा था।

“मरम की बात कहूँ धन्नु, जो इंसान जीव–जिनावरों, पेड़–पौधों और घास–फूँस सै घिरना पाल्लै ना बेट्टा, वो तो अपनी औलाद सै बी सच्चा प्यार ना कर सकै।“ अम्मा धनु की तरफ़ मुख़ातिब हुई थीं, पर वह चुप ही रहा।

“स्ट्रीट डॉग को रिश्तेदार बना के रखा है। जब देखो तब घर में आकर खड़ा हो जाता है।बिल्ली अलग से पली हुई है, दुवारी में गौरैया के घोंसले और उनसे गिरती बीट, पंख उफ़ ! घर है कि अजायब घर? और कुछ नहीं तो उस घायल नील गाय के बच्चे को ही उठवा कर घर ले आईं आप तो।“ कामना ने मन में घृणा भर कर कहा।

“धरती के सब जीउ (जीव) सै प्यार करना चइय आदमी कू। अर इस घायल बच्चे कू ना लाती तो यो बिचरा तो दम तोड़ देता जंगल में पड़ा-पड़ा।“

“ठेका ले रखा है आपने सारी दुनिया के जानवरों के ना मरने का?” कामना का तीर निकला।

“मैं कोई ठेकेदार थोड़े ही हूँ, यो तो सबका धरम है।“ अम्मा दृढ़ता से बोलीं।

“अब बस भी करो अम्मा।” धनु ने अम्मा की तरफ़ नाराज़गी से देखा।

“आप ही रहना फिर इस अजायब घर में अपने कीड़े–मकौड़ों, देवी–देवताओं, गाद–कीच और शिट के साथ। मैं तो आज के बाद यहाँ आने वाली हूँ नहीं कभी।“ जैसे कामना तो बस ना आने का निर्णय लेने का कोई बहाना ही ढूंढ रही थी।

बुजुर्ग अम्मा के विश्वास से भिन्नता तो फिर भी ठीक थी पर इतना बड़ा निर्णय कर लेना, एक तर्कहीन बात ही तो थी। और वाकई उसके बाद कामना कभी नहीं आई, धनु कभी-कभार आया और फिर उसका आना भी धीरे–धीरे बंद ही हो गया। उस अंतिम बार कामना गाँव को, घर को बदबू घर बता गई।

मैं देख रही थी अम्मा के दिमाग में अतीत की इस रील का तेज़ी से घूमना और उनके दिल का असामान्य गति से धड़कना, पर मजाल है जो वे मुझे भाँप लेने देंगी, हरगिज़ नहीं। बेटा, जिसके लिए वे बाबूजी तक से लड़ जातीं, मुझे ही क्या वे उसके आगे हर किसी को दोयम दर्जे का समझतीं रही थीं। वह लड़का-लड़की का भेद वाला दोयम दर्जा नहीं था शायद, वह तो था अपनी पहली–पहली संतान से पहला प्यार और दूसरी संतान के लिए दोयम दर्जा। मेरे साथ उन्होंने कोई अन्याय तो नहीं किया पर मेरी तुलना में धनु तो सदा उनका प्रिय रहा ही।

बाबू जी एक छोटे काश्तकार थे।पैरेलिसिस के बाद तो वे बेचरे अशक्त होकर दूसरों पर ही निर्भर हो गए थे, सो खेती की देखभाल का जिम्मा भी माँ पर ही आन पड़ा था। खेती जितना देती है लगभग उतना ही खा भी जाती है, ऊपर से बाबू जी की दावा–दारू के खर्चे के चलते घर में कभी सम्पन्न आ ही नहीं पाई थी। पर यह बात सुखद थी कि मैं और धनु दोनों पढ़ाई में बहुत अच्छे थे। दो बच्चों की पढ़ाई का खर्च साथ–साथ नहीं उठाया जा सकता था, सीधी बात है अम्मा ने धनु को ही पढ़ाना चुना था। वह चाह कर भी मुझे तो बारहवीं के बाद नहीं पढ़ा सकी थी कॉलेज में। धनु को तो उन्होंने अपने गहने बेचकर भी पढ़ाया ही था, ख़ैर। यहाँ जो अम्मा ने किया था उसे तो मैं पुरुष के वर्चस्व वाला अन्याय ज़रूर कह सकती हूँ।

उसी धनु के लिए आज एक बार को ममता अपना सिर उठाती तो दूसरी बार अतीत की विद्रूपता भी अपना मुंह चमका कर अम्मा के दिल के घावों पर धड़ी भर नमक बिखेर देती और वह ऐसे तड़प उठती जैसे नमक पड़ने पर केंचुए का तन। यह सब उन्हीं चंद पलों में घट रहा था। मैं एक टक अम्मा का चेहरा पढ़ने की चेष्टा कर रही थी। अम्मा ने भले ही तमाम विपरीत परिस्थितियों को तोड़ना-मरोड़ना सीख लिया था पर धनु का लौटना अप्रत्याशित था, और था उम्मीद के उलट, जिसे वे तोड़–मरोड़ नहीं पाईं। कभी–कभी उम्मीदें अपनी एक्सपायरी डेट के बाद जीवंत हो उठती हैं, वही हुआ था।मेरे विचार से इस परिस्थिति की तैयारी नहीं थी अम्मा की, वे जैसे अटक गई थीं किसी एक बिन्दु पर।

“अम्मा–अम्मा“, पुकार कर मैंने उन्हें झकझोर दिया। इसीलिए मैं धनु और कामना को साजी के ओसारे में बैठाकर प्रतीक्षा करने के लिए कह कर आई थी। सीधे घर नहीं लाई थी उसे इस डर से कि धनु को इस तरह अप्रत्याशित और अचानक देखकर अम्मा की मनःस्थिति एक दम से ना जाने कैसी हो जाए। कहीं गुस्से और नाराज़गी में बात बिगाड़ ही ना बैठें। अम्मा को उनकी बेतहाशा नाराजगी ने पल भर भी तो उन्हें वर्तमान में ना खड़े रहने दिया। उनके दिमाग में एक के बाद एक घटना आती और सुलझाव का कोई ना कोई धागा बुरी तरह उलझा कर चली जाती।

कामना कायस्थ परिवार की चतुर और शहरी बेटी थी। उसे तो हम सब गंवार लगते थे और बिस्तर पर पड़े बाबा के तो वह कभी पाँव भी छूने नहीं गई। खुद धनु को भी हम सब गंवार लगने लगे थे। अम्मा? हाँ अम्मा भी, वे अम्मा जिन्होंने खून–पसीना एक किया था उसे सभ्य–सुसंस्कृत बनाने के लिए।

मुझे तो वह हर बात पर ही झिड़क देता, करुणा की बच्ची तूने तो पढ़-लिखकर भी डुबो दिया, तू तो बिलकुल गंवारपने की बातें करने लगी है।“

मैं प्रत्युत्तर में कहती, “जब रहती गाँव में हूँ तो सिंगापुर की बातें कैसे करूंगी भाई?“

शुरू में तो अम्मा कुछ ना बोलीं पर बाद में तो कह देतीं कि, “ये बिचारी कैसे हो पाती महानगर वाली, इसे तो मौक़ा ही ना दिया गया। पढ़ाया–लिखाया तो मैंने तुझे था महानगर वालों की तरह।“ धनु को अम्मा की यही बात चुभ जाती और वह उनसे थोड़ा और दूर खिसक जाता। वह अम्मा को पहले जैसी ही देखना चाहता था, केवल और केवल उसका पक्ष लेने वाली अम्मा। पर अब काफ़ी कुछ बदल गया था, बिस्तर पर पड़े बाबू जी, जंगल–जंगल अकेली जूझती अम्मा, कुछ भी पहले जैसा नहीं रहा था। धनु ना तो आया ही और ना उसने कोई आर्थिक सहायत ही की थी घर की। पर धनु अपने लिए सब कुछ पहले जैसा ही चाहता था, अतर्किक नहीं था?

इसी बीच दादी चल बसीं। दादी की जान भी इकलौते पोते में ही तो बसती थी। दादी कई बार अम्मा पर ग़ुस्सा करतीं, धनु से नाराज़ हो जाने पर। उसी दादी के दिवंगत होने की सूचना पाकर भी धनु नहीं आया। बहाना था कि कामना की माँ सख्त बीमार हैं, वहाँ जाना पड़ेगा, कामना का और कोई नहीं, ले दे कर एक माँ ही तो है। अपनी दादी का मरना-जीना तो उसे किसी मायने का लगा ही नहीं। दादी का अंतिम संस्कार भी मेरे बेटे वासु को ही करना पड़ा था।

जब वासु के पिता का एक्सीडेंट हुआ, और वे अट्ठारह दिन अस्पताल में रहे, तब धनु आया तो पर आया गैरों की तरह और अठारह मिनिट भी अस्पताल में नहीं रुका। वासु के पिता को बचाया नहीं जा सका था। उनकी मौत पर भी वह आया नहीं था या आ पाया नहीं था क्योंकि तब इत्तफाकन कामना की माँ का देहांत हो गया था।अम्मा को सगे और इकलौते बहनोई की मौत पर उसका ना आना अखर गया था और अम्मा ने धनु को अपने मन की भीतरी सतह से फिसला कर दूर कर दिया। आया तो धनु बाद में भी नहीं ही। धनु की वजह से अम्मा ने मेरे साथ कई बार अन्याय किया ही था। उसका पश्चात्ताप भी तो छिपा बैठा होगा ना उनके मन में कहीं। मैंने बहुत चाहा कि अम्मा धनु को माफ़ कर दे, पर मैं हर बार असफल रही। अम्मा ने अब उसका ज़िक्र करना भी बंद कर दिया था। मैं जानती थी ऐसा करके वे खुद को किस कदर त्रास दे रही थीं। क्योंकि मैं यह जानती हूँ कि चाहे कुछ भी क्यों ना हो जाए, अम्मा धनु के बिना तो खुश रह ही नहीं सकतीं।

मैं भी अगर बचपन की कोई स्मृति अम्मा से साझा करने लगती तो वे मुझे निर्मम होकर बुरी तरह झिड़कतीं, ”ज़िंदगी तेरी कहाँ से कहाँ पहुँच गई, तू अभी तक धनु के साथ ही खड़ी है, धनु है भी कहीं तेरे आस-पास?”

और धनु के ज़िक्र से हुई अम्मा की परेशानी देखकर मैं अगली बार उसका ज़िक्र ना करने का निश्चय करती पर कोई अपने इकलौते सहोदर के साथ बिताया अपना बचपन भूल सकता है भला? उसे याद करने से मना करके भी अम्मा मेरे साथ एक दूसरी तरह का अन्याय ही कर रही होतीं।

अम्मा के चेहरे पर एक अजीब सा तनाव खिंच गया है, दोनों भ्रकुटियाँ आपस में भिड़ने को तैयार हैं, वे होठों ही होठों में कुछ बुदबुदा रही हैं। वो जब गुस्से में होती हैं तो उसके शरीर में तेज़ी आ जाती है। वे जल्दी से उठी और सहन में तार पर से सूखे कपड़े समेटने लगी हैं, हालांकि यह जिम्मा मेरा होता है।

जैसा कि मैंने पहले बताया की मेरा बेटा वासु भी गाँव आया हुआ है। जब से उसके पिता नहीं रहे उसका गाँव भी यही, मंडावली गाँव हो गया है, और घर भी यही। उसके राँची इंजीनियरिंग कोलेज में सलेक्शन के बाद मैंने शहर छोड़ दिया। वासु राँची चला गया और मैं अपनी ससुराल के गाँव ना जाकर अम्मा के पास चली आई थी। क्योंकि वासु के दादा–दादी तो पहले ही गुज़र चुके हैं। इसके ताऊ जी का व्यवसाय दिल्ली में है।इसके एक चाचा ही गाँव में रहते थे, बच्चों के पढ़ने का समय आया तो वे भी शहर चले गए। इस तरह ससुराल के गाँव में कोई बचा ही नहीं था सो मुझे अम्मा ने आपने पास बुला लिया था।

गाँव के लड़कों के साथ फुटबॉल खेलकर लौटते ही वासु ने टी वी चला कर समाचार लगा दिये हैं। एंकर तेज़ आवाज़ में कह रही है, “और आज की विशेष खबर, कोरोना वायरस के द्वारा फैलाई गई वैश्विक महामारी के भारत में सबसे ज़्यादा केसेज़ महाराष्ट्र के मुंबई महानगर में पाए जा रहे हैं।“ अम्मा बेचैन होकर कमर पर हाथ रख कर टीवी के सामने खड़ी हो गई है।

“अम्मा धनु कोरोना महामारी से इतना परेशान हो गया है कि वह मानसिक रूप से बीमार हो गया है, घर में ही पड़ा है ना दो महीनो से। दिन रात के काम से फुर्सत मिली तो आत्मा ने भी तो कचोटा ही होगा ना अम्मा।“

“तो यहाँ क्यों आया है, नरक मैं हम गँवारों के पास?”

साजी दरवाज़े से झाँक रही है उसकी तरफ़ अम्मा की पीठ है। वह इशारे से पूछ रही है आने दूँ धनु भाई जान को। मैं उसे रुकने का इशारा करते हुए अम्मा से मुख़ातिब होती हूँ, “अम्मा कामना फ़ोन पर लगातार बता रही थी मुझसे पिछले डेढ़ महीने से कि उसने बस तुम्हारी ही रट लगा रखी है। अम्मा के पास जाना है, अम्मा के पास जाना है। जैसे बच्चे ज़िद करते हैं ना अम्मा ऐसे ही कर रहा है। डॉक्टर ने कहा है कि ये मानसिक बीमारी तो हालात से पैदा हुई है, ठीक हो सकती हैं अगर आप इन्हें किसी ऐसी जगह ले जा सकें, जहां इनके कुछ अपने लोग भी हों, जहां ये खुले में भी थोड़ी सांस ले सकें, और पुरानी कुछ सुखद बातें याद कर सकें।“

“..........” अम्मा चुप है।

“अम्मा मैंने तुमसे बिना पूछे ही हाँ कर दी थी उसे यहाँ आने को, ये घर आखिर उसका भी तो है।“

“जब तू पहले ही ख़ुदमुख्तार बन गई करुणा, तो फेर अब क्या पूच्छै है…“

“अम्मा ज़रा सोचो धनु के लिए उसकी बददिमाग बीवी ने, जो कल ही उसके साथ बंधी है, अपनी ज़िद छोड़ दी और वो उसके स्वास्थ्य के लिए यहाँ चली आई है।बदबूघर, नरक में, जैसा कि वह गाँव को मानती थी। तो क्या धनु की माँ ना छोड़ेगी अपनी ज़िद धनु के लिए, जिसने उसे जनम दिया है? बीवी को ही हो जाने देगी उसकी सबसे ज़्यादा सगी?“

“...”

मेरी इस बात का उत्तर अम्मा के शब्द नहीं दे सके हैं, बल्कि बेटे की झलक बिना किसी देरी के पा जाने की उनकी प्रतीक्षारत आँखों से बहते आँसू और नाक से बहता पानी दे रहे हैं, जिन्हें वो अब मुझसे छिपाए बिना ही अपनी सूती धोती के पल्लू से पोंछ रही है। यानि मैंने सही जगह पर चोट की है, अम्मा के दिल का घाव भरने के लिए यह चोट बेहद ज़रूरी है। मैंने साजी को इशारा किया है धनु को बुला लाने का। वह मेरा इशारा पाते ही खुश होकर भाग ली है धनु को बुलाने अपने घर की ओर।

“अम्मा धनु बड़ी मुसीबतों से ना जाने कैसे–कैसे कितने–कितने पास बनवाकर पुलिस की नाराज़गियाँ और गाली–गलौच सुनता, सहता हुआ यहाँ तक आया है। यहाँ तक चार दिनों में पहुंचा है अम्मा।“

“तो मैं क्या करूँ, आने दे, मैंने क्या नौत्ता (न्योता) भेज्जा था उसै।“

अम्मा की आवाज़ ऐसे आई है जैसे कोई उसके गले में रस्सी बांध कर खींच रहा हो। चेहरे पर गहरे तनाव की स्पष्ट रेखा खिंच गई है।

“अम्मा धनु अपने आप में बिल्कुल अकेला है, लड़का तो उसका वैसे ही नाकारा है, और बीवी किसी की भी हो उसकी माँ जैसी देख–भाल तो ना कर सकती खैर। ज़रा सोचो अम्मा, वो तुम्हारा धनु है।“

“जब हम सबकू लात मार कै अकेल्ला चला गया उस हूर परी कामना के साथ और रया भी है ई अब तक। तो वो ई ठीक भी कल्लेगी उसे।अब इस बदबूघर, नरक में जहां कुत्ते, बिल्ली, चिड़िए, गाय, भैंस, घड़े, घनौच्ची के साथ रहने बाले हम गँवारों के साथ कैसे रह लेगी?”

“अम्मा…”

“कितना धुआँ है इस घर में, मेरी तो आँख ही खराब हो जाँगी। अम्मा तो सौ बरस पीछे चल रही हैं दुनिया से। कौन खाता है कंडों पर बना खाना, कौन जलाता है चूल्हे में लकड़ियाँ आज - कल। बाहर वाले चबूतरे पर गोबर लिपता हुआ देखकै कैसे उल्टी सी करने लगी थी उस बार, हें (यहाँ) तो अब भी कमोबेस वोई सब हो रया है।“ अम्मा अपनी धुन में बोलती चली जा रही हैं। कामना ने वाकई बहुत नाटक किया था उस बार।

“सब भूल जाओ अम्मा, क्या पा लोगी उसके साथ पैज (बहस) बाँध के भला? बाबू जी होकर भी ना ही के बराबर हैं, वासु के पापा हैं नहीं।ले–दे कर एक ये धनु ही तो है, हम उसे नहीं खो सकते अम्मा।“

“अरी बेट्टी नासमझ ... धनु तेरे साथ खड़ाई कब था, जो तुजै उसके खोने की चिंता सता रई है?“

“अम्मा वो समय निकल गया, उसने सुधार ली है अपनी गलती।अब वो साथ खड़ा होने को खुद चलकर आया है अम्मा, तुम तो नहीं गईं ना, तुम्हारा मान तो ऊपर ही है, उसे आने दो अम्मा।“

“मेरा मान तो बड़ा रक्खा इसने, मतलब में आया है थक हार के, हम मरे–गिरों सै सहारा मांगने, आखिर तो बदबूघर ही काम आया।गाँव कू कोई ना नकार सका कभी, सहरी कित्तेई बन लो। कित्ताई खुदा बन जाइयो आदमी गाम की सत्ता कू ना नकार सकता कन्नू।“

“हाँ-हाँ वो तो ठीक है अम्मा।वो हमारा साथ मांगने आया या हमारा साथ देने, ध्यान से सोचो तो एक ही बात है और जो थोड़ी सी बेपरवाही से सोच लो, तो भी एक ही बात है अम्मा, हुए तो हम साथ–साथ ही ना।ठंडे दिमाग से सोचो अम्मा, जिंदगी के इस मोड़ पर भी अगर वो तुम्हारे साथ खड़ा रहा, तो तुम चैन से जी-मर सकोगी। नहीं तो नाराजगी ही लेकर उठोगी धरती से और खुदा ना खस्ता उसके साथ वहाँ कुछ ऊंच-नीच हो गई तो तुम खुद को कभी माफ़ कर सकोगी अम्मा, ज़रा सोच कर देखना तो?“

अम्मा चुप-चाप आँचल से आँखें पोंछती हुई चाबी उठाकर बड़े गेट का ताला खोलने चल दी हैं ताकि धनु की कार अंदर आ सके…


 

लेखक नर्देश निधि – परिचय




नाम - निर्देश निधि

शिक्षा – एम. फिल. (इतिहास)


लेखन की मुख्य विधाएं – कहानी ,कविता, ,समसामयिक लेख, संस्मरण आदि ।


विभिन्न स्तरीय पत्र - पत्रिकाओं जैसे “कथादेश” ”नया ज्ञानोदय”, ‘हंस’,‘पाखी’,‘कथाक्रम’,‘इंद्रप्रस्थ भारती’, ”कादम्बिनी”, “गगनांचल”, "अमरउजाला”, “जनसत्ता”, “दैनिक जागरण” ,”पंजाब केसरी”, "विभोम स्वर," "कथा’ (मार्कण्डेय) “पुरवाई” (लंदन से प्रकाशित), बिहार ग्रंथ अकादमी की अकादमी पत्रिका,हिन्दुस्तानी भाषा अकादमी की “हिन्दुस्तानी भाषा भारती”, हिन्दी प्रचारिणी सभा कनाडा की “हिन्दी चेतना”, “कृति ओर”, “निकट” (अरब इमारत), “नई धारा,” ‘अभिनव इमरोज,’ ‘उद्भावना’,‘परिंदे’, ‘विपाशा’, ”यथावत” ,"दोआबा", राष्ट्रीय पुस्तक न्यास की “पुस्तक संस्कृति” ‘द्वीपलहरी’,‘सम्बोधन’ ‘अविराम’, ‘विज्ञान गरिमा सिंधु’ ‘सरिता’ ,’पूर्वकथन’, ‘बुलंदप्रभा’, ‘गाथांतर’, " सृजन से” ,“सम्प्रेषण”, “किरण वार्ता”, ‘बिंदिया,’अट्टहास’, जनक्षेत्र, विश्वगाथा आदि अनेक पत्रिकाओं में लेख,कहानियाँ, कवितायें संस्मरण,लघुकथाएँ,आदि प्रकाशित।


एक कहानी संग्रह “झांनवाद्दन” प्रकाशित,

“बुलंदप्रभा” साहित्यिक त्रैमासिकी में उपसंपादक,

आकाशवाणी से निरंतर रचनाएँ प्रसारित,

रेडियो नोएडा से साक्षात्कार एवं वार्ता प्रसारित,

विभिन्न स्तरीय पत्र-पत्रिकाओं में रेखाचित्र प्रकाशित,

कई कहानी और कविता संकलनों में कहानियाँ, संस्मरण और कविताएं प्रकाशित,

नगर पालिका बुलंदशहर की त्रैमासिक पत्रिका ”प्रगति” का सम्पादन,

एक सामूहिक काव्य संग्रह “परिवर्तन” का सम्पादन ।

ग्यारहवें विश्व हिन्दी सम्मेलन (मॉरीशस) में भारत सरकार के प्रतिनिधि के रूप में भागीदारी,

साहित्यिक गतिविधियों में सक्रिय

जन कल्याणकारी कार्यों में सक्रिय, विशेषकर छोटे बच्चों की शिक्षा एवं स्वास्थ्य सम्बन्धी

पर्यावरण के सुरक्षित रख - रखाव के लिए सक्रिय,

सम्मान

संस्कार भारती से “काव्य गरिमा” सम्मान – 2014

शुभम संस्था से “हिन्दी श्री” सम्मान 2018

समन्वय संस्था से “सृजन सम्मान” 2018

बिहार हिंदी साहित्य सम्मेलन में पुरस्कृत 100 विदुषियों में चयन 2019

एवं अन्य


निर्देश निधि, विद्या भवन, कचहरी रोड, बुलंदशहर, (उप्र ) पिन – 203001

ईमेल – nirdesh.nidhi@gmail.com mob- 9358488084



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