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ताल-पाटन

ओ पी झा

Painting by J Griffiths (1872)

‘‘तालाब के उस पार से इस पार तक आने में बहुत देर लगा दी। जब तालाब बड़ा हुआ करता था तब तो जल्द ही इस पार आ जाती थी। अब जब तालाब सिकुड़ गया है तब इतनी देर कर दी!’’ - सोमेन ने एक ही साँस में इतनी बातें कामो से कह दी। वह तो बहुत-कुछ कहना चाहता था। मगर इतने दिनों में सोमेन ने जान लिया था कि जुबान से कम बोलने पर भी बहुत कुछ कहा जा सकता है यदि सुनने वाला आपकी आँखों को जानता हो। कामो ने तो आँखों की भाषा परखने की हुनर छोटी-सी उम्र में ही सीख ली थी, जबसे उसने मछली बेचना शुरु की थी। .... सोमेन के पूछने पर उसने कुछ कहने की कोशिश की मगर कुछ कह नहीं सकी। वह लजा गई। शायद इस तरह से वह पहली बार लजायी थी। संभवतः कामो को नहीं मालूम था कि उसके इस तरह से लजाने … सकुचाने के इंतज़ार में कोई अपनी तमाम उम्र भी गुजार सकता है। रात की नीरवता में उन दोनों की चुप्पी भारी होती जा रही थी। यदि गहन अंधेरा नहीं होता तो कामो के गाल पर संकोच की लालिमा को सोमेन ज़रूर परख लेते। पर ऐसा हुआ नहीं। कामो दूसरी ओर से इस तरह के अनुराग की अभिव्यक्ति की परवाह किए बिना अपना मुँह खोलने के लिए अंततः विवश हो गई।

‘‘उस समय की बात ही कुछ और थी। उस समय मैं जवान थी। जवानी के दिनों में मैं नदी और तालाब की चौड़ाई और गहराई की परवाह नहीं किया करती थी। मैं तैरकर इस पार आपके यहाँ मछली पहुँचा दिया करती थी। कई बार दिन में मेरा मछुआरा आपके दरवाजे के सामने तक आता था और आवाज देकर आपको बुला लेता था। एक बार मेरे मछुआरे को बाजार से लौटने में देर हो गई थी तो मैंने रात में जाल फेंककर आपके लिए मछली पकड़ी थी और जाड़े के दिनों में जब सर्द हवा से हड्डियाँ ठिठुर रहीं थीं उस समय मैंने तैरकर आपके यहाँ मछली पहुँचायी थी। आपने अंधेरे में मछली की पोटली के साथ मेरा हाथ ...’’ कहते-कहते कामो रुक गई। पुरानी तपन का भाप उसकी आँखों से रससिक्त होकर बहने लगा। उसका गला रुँध गया।

सोमेन भी कुछ कहना चाहते थे। मगर रुक गए। वह उस समय भी कुछ कहना चाहते थे पर कह नहीं पाए। वह अनेक बार कहना चाहते थे मगर कह नहीं पाए। जब कामो मछली बेचने निकला करती थी - अपनी जवानी के दिनों में - तब उसके सिर पर टोकरी हुआ करती थी और चलते समय उसके स्तन से लेकर नितम्ब तक के दोलन एवं पैरों की मटकती चाल पर सोमेन मुग्ध रहा करते थे। मछली लेने के बहाने उससे थोड़ा-बहुत गप्प भी लड़ाते थे। कामो जानती थी कि आधे घंटे के गप्प में काम की चीज तो दो मिनट की होती थी। कामो जानबूझकर मछली का भाव तेज बताती थी और सोमेन भाव को नीचा गिराने के लिए मोलभाव करते रहते थे। सोमेन अंत में कामो के भाव को मान लेते थे। कामो बड़े गर्व से इठलाते हुए बोलती थी, ‘‘अगर मेरे भाव पर ही सौदा लेना था तो इतना मोलभाव क्यों? आखिर जीत तो मेरी ही होनी थी।’’

सोमेन कामो की जीत पर मन ही मन प्रफुल्लित रहा करते थे। सोमेन की पत्नी और बच्चे अक्सर कहा करते थे कि अनेक वर्षों से मछली खरीदते रहने के बाद भी इन्हें मछली खरीदना नहीं आता। ये बिल्कुल अनाड़ी हैं। रोज कामो इन्हें ठगकर चली जाती है। इस तरह से ठगे जाने का मजा ही कुछ और होता है। भला सोमेन के सिवा इसे कौन जान सकता था!

सोमेन कामो की जीत से जितना प्रफुल्लित रहते थे उतना ही अपनी पत्नी और बच्चों के मुँह से अपने लिए अनाड़ी शब्द सुनकर। ऐसी हार की कामना तो हर कोई करना चाहेगा जो वास्तव में किसी का दिल जीतना चाहता है। सोमेन तो हमेशा कामो की ही जीत की कामना करता था। कामो भी इस बात को जानती ही होगी, ऐसा लग रहा था। स्त्री हार-जीत के हर उस दाँव को भाँप लेती है जो उसे रिझाने वाला चलता है, मगर उसके अंतस का प्रदीप्त सौंदर्य उसे उस भेद को खोलने से अक्सर रोक लेता है, वह बस मुसकुराकर रह जाती है। स्त्री की इस सहजता पर पुरुष सदियों से सम्मोहित होता रहा है। कामो ने भी मोल भाव के इस रहस्य को कभी भी उजागर नहीं किया। 

उस दिन सचमुच अंधेरा जल्द ही छा गया था। आसमान में काले बादल छाए हुए थे। बारिश की बूँदें रह-रहकर तालाब की सतह पर थिरक रही थीं। किसी भी क्षण मूसलाधार बारिश हो सकती थी।

यदि तेज बारिश हो गई तो तालाब का जल-स्तर उठ जाएगा। सुबह होते-होते बड़ी मछलियाँ तालाब को लाँघकर पास वाले खेतों में बहते हुए न चली जाएं। क्या रात में घर आए अतिथि बिना मछली के भोजन करेंगे? कामो के रहते हुए आज तक ऐसा नहीं हुआ है। मगर आज तो उसका मछुआरा लौटकर नहीं आया है। कामो के दो छोटे-छोटे बच्चे हैं। क्या उन्हें वे अकेले छोड़कर आ सकती है? टोली के दूसरे मछुआरे भी लौटकर नहीं आए हैं। कामो के सिवा दूसरी मछुआरिन भी टोली पर नहीं है। सब के सब बाजार गई हुई हैं। मगर कामो तो कामो है। वह भरसक प्रयार करेगी। मेरी तड़प की लहर तालाब को पारकर कामो तक ज़रूर पहुँचेगी और उसे भी बेचैन कर देगी। वह मानेगी नहीं, तालाब पारकर भी यहाँ आएगी। ऐसी तड़प न तो तालाब की परवाह करती है और न ही अंधेरे की। उसे कामो के आने की उम्मीद थी पर उसके अंदर की बेचैनी अंधेरी रात में आसमान में घुमरते बादलों के घटाटोप से कम नहीं थी। ऐसा सोचते हुए सोमेन अपने घर के आगे उस गहन अंधकार में बेचैनी से चहलकदमी कर रहे थे।

अचानक सोमेन ने अंधकार की नीरवता को भंग करने वाले पदचापों को सुना। हालांकि आहट बहुत ही मंद थी जैसे दो प्रेमियों के बीच की फुसफुसाहट हो। फिर वे पदचाप सोमेन के निकट आते गए। आने वाली की साँसों से मछली की गंध आ रही थी। उस गंध को अपनी साँसों में भरते हुए सोमेन ने भींगे हुए वस्त्रों को स्पर्श किया। आगंतुक स्त्री को सोमने के स्पर्श की ऊष्मा अच्छी लगी। वह चाहती थी कि स्पर्श थोड़ा और अंतरंग हो और उसकी ठिठुरन दूर हो मगर तेज बारिश की आशंका ने उसे अधिक देर तक स्पर्श के संपर्क में रहने नहीं दिया। साथ ही उसे अंधकार से भी भय लगता था। अंधकार में कौन-सी छाया कहाँ खड़ी हो, यह किसी को पता नहीं। इसके अतिरिक्त नीरवता में फुसफुसाहट भी कोसों दूर तक चली जाती है और फिर लोगों के बीच फुसफुसाहट होने लगती है। सोमेन और आगंतुक दोनों को इस बात का सहज ज्ञान था। परंतु आवेग को दबाना बहुत ही कठिन था। अनेक बार भय व्यक्ति को ऐसे ठंडा कर देता है जैसे लोहार का हथौड़ा पिघले हुए लोहे को मोड़कर औजार बना देता है। भय के चपेट में आवेग...हथौड़े के डर से लोहे का पिघलाव ... सदा के लिए शांत... ओह! कशिश और बेदर्द रात! लोक-लाज के भय से अपने आवेग को दबाते हुए सोमेन ने कहा, ‘‘तुम नहीं मानी। आखिर आ ही गई। अपने वचन की पक्की हो। इसका मूल्य तो लेती जाओ।’’

अचानक बिजली चमक उठी। उन्हें लगा कि रात्रि का रहस्य भंग हो जाएगा। मगर आगंतुक बिजली चमकते ही बिजली के वेग से तालाब में कूद गई। कूदने से पहले सोमेन के कानों में इतना कहने से रुक नहीं पाई, ‘‘हर रोज हारकर जो मूल्य देते हो, वह क्या कम है? दिन के उजाले में हारने वाले मर्द बहुत कम होते हैं। आज रात के अंधेरे में तुम जीत जाओ। फिर कभी इसका मूल्य ले लूँगी।’’

तालाब में छपाक से आवाज हुई और सब कुछ गायब। सोमेन को लगा कि उस अंधेरी रात में वह सचमुच ही हार गया है।

आगंतुक की नजरें तालाब पार करते समय अपनी झोंपड़ी पर थीं। जिसमें से उसके दो बिलखते बच्चों की आवाजें आ रही थीं। उन्हें प्रबोधन देने वाला कोई नहीं था। बच्चों के क्रंदन को सुनकर कामो आश्वस्त हो गई थी कि उसका मछुआरा अभी तक लौटकर नहीं आया है। तैरते समय कामो का दिल जो धक-धक कर रहा था उसे बच्चों के क्रंदन से सांत्वना मिली किंतु ममता भी उफनते हुए तालाब के जैसे हुंकार मारने लगी। प्रेम, भय और ममता के बीच से तैरते हुए कामो ने तालाब पार कर ली। उसकी झोंपड़ी में दीपक पहले की तरह ही टिमटिमा रहा था।

ममता के आवेग में कामो एक क्षण के लिए रात्रि मिलन के परिश्रम को भूल गई और वहाँ पहुँचते ही उसने अपने बच्चों को दिल से लगा लिया।

अतिथि के साथ-साथ घर के सभी लोगों को लगा कि सोमेन बाबू खुद ही बंसी से मछली पकड़कर लाए हैं।

सोमेन को कामो की जवानी के दिनों के ऐसे अनेक प्रसंग याद हैं। ऐसे की कामो के हृदय में बहुत-से रहस्य दबे हुए हैं।

सोमनाथ ठाकुर से सोमेन और कामता मछुआरिन के कामो बनने की यात्रा में तीन दशक गुजर गए थे।

पहले तालाब के एक ओर मछुआरों की छोटी-सी बस्ती और दूसरी ओर अन्य लोगों की बस्ती हुआ करती थीं। तालाब के तीसरे तट की ओर से पक्की सड़क गुजरती थी और चौथी ओर पेड़-पौधे एवं खेत थे।

धीरे-धीरे पेड़-पौधे कम होते गए। खेतों में भी मकान बनते गए। तालाब सिकुड़ते गया। लोग हैंड पंप और नलकों का इस्तेमाल करने लगे। लोग तालाब भरकर घर बनाने लगे। फिर कुछ लोग घर छोड़कर भी शहरों की ओर पलायन करने लगे। तालाबों का बंदोबस्त करके उसे सरकार ठेके पर देने लगी। अब हर कोई तालाब से मछली नहीं पकड़ सकता था। ऐसे में मछुआरे बेचारे क्या करते? वे भी शहरों में जाकर बसने लगे। कामो के बच्चे भी बड़े होकर शहर चले गए थे। पहले तो वे कभी-कभी गाँव आते थे परंतु बाद में उनका गाँव आना बंद जैसा ही हो गया।

यही हाल सोमेन के बेटों का भी था। वे सभी विदेश में जाकर बस गए थे। सोमेन उनके साथ विदेश में रहना नहीं चाहते थे। सोमेन की पत्नी ने अपने अंतिम समय में कामो को अपने पास बुला लिया और उससे कहा, ‘‘कामता, जो पंछी उड़ गए वे लौटकर नहीं आएंगे। तुम इनका ख्याल रखना। तुम्हारी मछली इन्हें बहुत पसंद है।’’

सोमेन की पत्नी की बात सुनकर कामता के मन में बहुत देर तक हलचल मचती रही। मगर उसने बिना कुछ कहे ही मृत्यलोक को विदा होने वाली उस यात्री को अपनी मौन स्वीकृति दे दी।

कामो को अंतिम विदाई का गहन अनुभव था। इससे कुछ ही दिन पहले उसके मछुआरे की मृत्यु सर्प-दंश से हो गई थी। मरते समय वह तालाब की दूसरी ओर इशारा कर रहा था। न जाने वह अपने गंतव्य की ओर संकेत कर रहा था, या फिर कामो के गंतव्य की ओर संकेत दे रहा था अथवा अपने मन की कोई अधूरी इच्छा व्यक्त करना चाहता था। कामो ने इस बात को जानने का प्रयास भी नहीं किया। जिस पति का हर बात वह मौन होकर मानती रही उसे मौन ही इस दुनिया से विदा की।.....ऐसा पहली बार हुआ था जब पति की अंत्येष्टि के बाद दो-तीन दिनों तक उसने सोमेन के लिए मछली नहीं लायी।

जैसे वह तालाब को आसानी से तैरकर पार कर जाती थी वैसे ही वह मृत्यु के अवसाद को पारकर जीवन के दूसरे तट पर पहुँच गई। कामो दो तटों की दूरी को सहज ही पाटने में अभ्यस्त हो गई थी। इसमें उसके पाँव कभी नहीं डगमगाए थे। हाँ, उसके पायलों की खनक आसपास में कभी-कभार अवश्य सुनाई दी।

इस घटना का एक वर्ष पूरा होने वाला था।

तालाब सिकुड़कर एक गड्ढ़ा जैसे बन गया था। चारों तरफ मकान बन गए थे। इस दौरान कामो हर रोज एक-आध मछली कहीं न कहीं से सोमेन के लिए अवश्य लाती थी। कामो के आने से सोमेन का अकेलापन दूर हो जाया करता था। दोनों बैठकर अक्सर बीते दिनों की बातें करके अपनी यादें ताजा करते थे। पिछले कुछ दिनों से अक्सर कामो सोमेन के यहाँ ही खाना खा लेती थी। एक दिन सोमेन ने कहा, ‘‘कामो, क्या हम पहले इस तरह से रह सकते थे?’’

कामो के अंदर की मछुआरिन जाग गई। उसने कहा, ‘‘चाहते तो पहले भी रह सकते थे। सिर्फ साहस ही तो करना था। तुम दिन के उजाले में समाज को देखते रहे और रात के अंधेरे में अंधकार से डरते रहे। तुम मर्द लोग बहुत स्वार्थी होते हो। अब तो मैं तुम्हें स्वार्थी भी नहीं कह सकती क्योंकि अब तुम क्या स्वार्थ रखोगे? परंतु आलसी तो हो। समय पर अपना काम नहीं करते। पर ऐसे में भी तुम अच्छे लगते हो।’’ ....

मेलजोल का ऐसा ही क्रम चलता रहा।

मगर उस संध्या में कामो के देर से आने पर सोमेन चिंतित हो गए जैसे वे अपनी युवावस्था में अपने परिवारजन के लिए चिंतित हो जाया करते थे। जब उनकी आतुरता बहुत बढ़ गई तब उन्होंने निश्चय कर लिया उस सिकुड़े हुए तालाब को तैरकर पार करने की, जैसे फैले हुए तालाब में अपनी जवानी के दिनों में कामो पार हुआ करती थी। जैसे ही वह उसमें कूदने वाले थे वैसे ही एक अदृश्य छाया की आवाज सुनाई दी, ‘‘रुकना सोमू। मैं आ गई हूँ।’’

पैर तो रुक गए मगर सोमेन को तीन दशक पहले उस अंधेरी रात की फुसफुसाहट याद आने लगी। वक़्त के तेजी से गुजर जाने का मलाल उसे सताने लगा। पर मलबे के नीचे दबते जा रहे तालाब की तरह उन्हंे भी अपनी अकथ भावनाओं को दबाकर आगे बढ़ना ही था। ‘रुकना सोमू’ ने उसके अंदर एक बौड़म लहर पैदा कर दी। इसे दबाने की ताकत सोमेन में नहीं रही। इसके आगे वे छितरा गए।

कुछ देर के बाद उन्होंने पूछा, ‘‘दिन में तो मछली बन ही गई थी। रात में भी हमलोग उसी में से बचे हुए मछली-भात खा लेते। इतनी देर तक उस झोंपड़ी में रहने की ज़रूरत क्या थी? कितनी बार कहा हूँ कि इतनी बड़ी हवेली में मैं अकेले रहता हूँ भूत की तरह। हम साथ में रहेंगे तो मन भी लगेगा और समय भी कट जाएगा। मगर हर शाम तुम उस झोंपड़ी में जाकर एक दीपक जला ही आती हो। यहाँ नहीं रहोगी तो चलो हम साथ में उसी झोंपड़ी में रहेंगे।’’ कामो की आँखों से खुशी के आँसू टपक पड़े।

सोमेन की बातों को ऊपर से अनसुनी करते हुए कामो ने कहा, ‘‘सुना है, कल सुबह से लोग तालाब को पूरी तरह से भरने का काम करने लगेंगे। इसलिए आज रात ही मैंने उसमें से एक मछली आपके लिए निकाल ली। यह अंतिम मछली है इस तालाब की। इसके बाद मैं किस नदी में जाकर मछली पकडूँगी?’’

‘‘इन दो किनारों के बीच तालाब के रहने से जीवन स्पंदित हो रहा था। पत्नी गुजर गई और बच्चे विदेश चले गए तो लगता था कि इस तालाब और तुम्हारे सहारे जीवन गुजार दूँगा। तालाब था तो मछली थी। तुम भी आर-पार होती थी। अब तुम्हें आर-पार करने की ज़रूरत ही नहीं होगी। .... अब दुनिया बदल गई है।’’

कामो को लगा कि सचमुच अब दुनिया बदल चुकी है। अब कुछ भी नहीं रहा सिवा हम दोनों के .... फिर हम दो भी कितनी देर तक.... शायद एक ही ....दो...एक...दो....उदासी और खुशी के बीच एक...दो...एक...

सोमेन और कामो एक-दूसरे से आलिंगनबद्ध हो गए। दोनों की आँखों से आँसू छलकने लगे। दो आत्माएँ आपस में जुड़ना तो चाहती थीं मगर तालाब के अंत से नहीं। धरती के दो टुकड़ों के इस तरह से जुड़ने पर उन्हें मिलन की गहराई में उतरते हुए एक अजीब टीस बेचैन कर रही थी।

साँसें एक हो गईं मगर उन साँसों में अब मछली की गंध और तालाब की चंचलता नहीं थीं। उलट......पलट.... दो...एक...दो...एक...

तालाब बंद होने से पहले उस अंतिम रात में उस अंतिम मछली के भाव को लेकर दोनों के बीच कोई मोलभाव नहीं हुआ।


 

संक्षिप्त लेखक परिचय

O P Jha

ओ पी झा हिंदी एवं अंग्रेजी में कविताएं और कहानियाँ लिखते हैं। इनकी हिंदी रचनाएं वागर्थ, समकालीन भारतीय साहित्य, साहित्य अमृत, दस्तावेज सहित पचास से अधिक पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हैं। इनकी हिंदी में दो कविता संग्रह - दिल्ली में बारिश, और आखिरी युद्ध प्रकाशित हैं। इनकी अंग्रेजी कविताएं रिग्रस, दि रोम रिव्यू, आलोका, शाट ग्लास, इन पैरेनथेसिस, दि ओडेशा कलेक्टिव, मेंटिस, दि पोएट्री पैसिफिक, दि इंडियन लिटरेचर, दि आइसब्लिंक, दि अंथ्राजाइन सहित लगभग सौ पत्रिकाओं में प्रकाशित हैं। इनकी अंग्रेजी पुस्तक, दि मैनेजमेंट गुरु लार्ड कृष्णा, काफी चर्चित रही है। इन्होंने तीन दर्जन से अधिक पुस्तकों का हिंदी/अंग्रेजी अनुवाद किया है। ओ पी झा अनुवाद अध्ययन में ‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌पी-एच. डी हैं। वर्तमान में ओ पी झा दूरदर्शन केंद्र दिल्ली में सहायक निदेशक के पद पर कार्यरत हैं।

संपर्क : email : opjha189@yahoo.com

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Convidado:
06 de jan.
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मनुष्य की दमित इच्छाओं को मार्यादा में बांधने की जगह मर्यादा में खोलती यादगार कहानी। भाषा संरचना में जल तरंग सुनने का आनंद।

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Abhinav Chaitanya
01 de jan.
Avaliado com 5 de 5 estrelas.

उत्तम कहानी!

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