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  • प्रेम गुप्ता 'मानी'

अंधेरा




वह बुरी तरह घबरा गया था। एक घने-काले अँधेरे ने उसे चारो ओर से घेर रखा था। हाथ को हाथ सुझाई नहीं दे रहा था। वह चीखना चाहता था पर चीख भी नहीं पा रहा था। आवाज़ गले में अटक-सी गई थी और गला प्यास से इस कदर चटक रहा था जैसे अरसे से उसने पानी की एक बूँद भी नीचे न उतारी हो।

उसका पूरा शरीर पसीने से तरबतर हो गया और धड़कन ने मानो फुल स्पीड पकड़ ली। उसे समझ नहीं आ रहा था इस रफ़्तार को कैसे कम करे...? यह कम नहीं हुई तो दुर्घटना हो सकती है...। बचने के लिए उसने हाथ बढ़ाकर कुछ पकड़ने की कोशिश की तो नीचे खाई में गिर गया।

गिरने से माथे पर बहुत ज़ोर से चोट लगी तो आँखें अपने आप खुल गई...। आश्चर्य से उसने अपने चारो ओर देखा, वह चारपाई से नीचे ज़मीन पर गिरा था...। आसपास कोई काला अँधेरा नहीं था और नीचे खाई नहीं, ठोस ज़मीन थी...। माथे से खून टपक कर उसकी अधमैली कमीज़ को और मैला कर रहा था।

काफी देर माथा पकडे हकबकाया-सा वह बैठा रहा, फिर पेट के भीतर से गुड़गुड़ की आती आवाज़ ने उसे उठने पर मजबूर कर दिया। उठकर उसने मुँह धोया और फिर उस मैली कमीज़ से ही मुँह पोंछकर अलगनी से उतार कर उस कमीज़ को पहन लिया, जिस पर जगह-जगह मिट्टी का दाग़ लगा था।

मिट्टी से उसे याद आया कि इन दो-तीन महीनों में उसने अपने कुछ साथियों को मिट्टी में मिलते देखा है...। किस वजह से वे मर गए, किसी को कुछ ठीक से पता नहीं...। पूरे देश में हाहाकार मचा था...उसे बस इतना पता था कि चीन से कोई राक्षस आया है, जो आदमियों को निगल रहा है...। लेकिन उसे या उसके साथियों को तो यह भी नहीं पता कि चीन है कहाँ...? जो उस राक्षस से किसी तरह बचे हुए हैं, उन्हें भूखों मरना पड़ रहा है। अमीर लोग तो अपने आलीशान घरों में बैठकर पेट भर रहे, पर गरीब-गुरबा? साला, कुत्ता हो गया आदमी...कुत्ते की तरह ही तो निकाल दिया गया था उसे और उसके साथियों को...। जब तक उन्हें ज़रूरत रही, ईंट-गारा ढोहाते रहे और जैसे ही चीन की राक्षसी चाल का पता चला, उन सबको मरने के लिए छोड़ दिया...पगार भी नहीं दिया। कितना गिड़गिड़ाये वे सब...। पता नहीं कब तक यह राक्षस देश में रहेगा । पगार नहीं मिली तो सबके भूखे मरने की नौबत आ जाएगी। मालिक भी इस राक्षस की तरह मोटी चमड़ी का था, तभी तो उन सबके पीछे पड़ने से चीखा था, “तुम सबको अपने मरने की फिकर है, पर हमारा सोचो...। अरे, यह कोरोना किसी को नहीं छोड़ रहा है...अमीर-गरीब सबको लील रहा है...। तुम लोग तो सूखी रोटी से भी गुज़ारा कर लोगे पर हम क्या करें ?” वह और उसके साथी लुटे-पिटे से खड़े रह गए थे, कुछ इस तरह से जैसे मुँह में ज़ुबान ही न हो।

सहसा, उसे याद आया कि कल से उसने कुछ खाया नहीं है...पाँच-छह बजे चारपाई पर लेटा सोच की नदी में डूबता-उतराता कब पूरी तरह गहरी नींद में डूब गया, पता ही नहीं चला...। पता तो उसे मुनिया व उसकी माई के बारे में भी नहीं है...। बेचारी न जाने किस हाल में है? पाँच महीने पहले जब गाँव गया था तो अपनी सारी जमा-पूंजी उसके आँचल में डाल दी थी, पर उसे बाँधने की बजाय मुनिया की माई उसके पैरों पर गिर पडी थी, “मुनिया के बापू, मुझे भी अपने साथ सहर ले चलो...अब यहाँ मन नहीं लगता। तुम्हारी चिंता सताती है, सो अलग। मेरी देह भी अब अपने को सम्हाल नहीं पाती।”

मुनिया की माई उसका पैर पकडे लगातार रोये जा रही थी। उसे लगा कि अगर अब वह चुप न हुई तो वह भी भरभरा कर रो पड़ेगा...और वह रोकर कमज़ोर नहीं पड़ना चाहता था। उसने किसी तरह अपने से अलग किया और खुद ही उसके आँचल में रुपया बांधकर बोला, “मुनिया की माई, थोडा सबर करो। वहाँ शहर में अपने ही खाने-रहने का ठौर नहीं, तुम दोनों को कहाँ रखूँगा...? अरे, यह तो कहो, कलुआ की दया से उसकी कोठरी में एक चारपाई और कोने में चूल्हे की जगह मिल गई, वर्ना...। अरे, भगवान् की कृपा से यहाँ रहने की जगह तो है । यह छोटी सी झोपड़िया और खेत...।”

सहसा, वह अचकचा गया...खेत? कहाँ है खेत-खलिहान...? उसने झोपडी से कुछ ही दूरी पर आँख मिचमिचा कर देखा तो लगा जैसे सीने के भीतर से किसी ने कलेजा नोचकर निकाल दिया हो। उसका वह छोटा-सा खेत फसल से लहलहा रहा था और उसके बीच बनी मचान पर चाचा बैठा बीड़ी फूँक रहा था।

उसके भीतर एक अजीब सी उथल-पुथल मची थी। कैसा समय आ गया है, जब अपना खून भी दगा दे जाता है। दो-तीन साल पहले तक तो सब कुछ ठीक था। बापू के रहते कितना अपनापा था। जब लीवर की बीमारी के चलते बापू की मौत हो गई, तब यही चाचा कितना दहाड़ मारकर रोये थे। इनका रोना देखकर पूरा गाँव रो पडा था, “अरे भैया...इस कलजुग में ऐसा भाई सब को मिले।”

उसे भी बड़ी तसल्ली हुई थी...बापू नहीं हैं तो क्या...? उनकी जगह चाचा तो है, पर यह क्या...? धीरे-धीरे बहुत कुछ बदलने लगा था। बापू के जाने के साल भर बाद जब माई भी चली गई तो बचा-खुचा भी जैसे बदल गया। चाचा का आना बंद हो गया और जब वह कमाने-खाने के लिए मुनिया और उसकी माई को चाचा के आसरे छोड़कर शहर गया तो सब कुछ जैसे ख़त्म हो गया। रज्जन ने ही आकर बताया था कि उसके बापू का जाली दस्तखत करके चाचा ने उसका खेत हथिया लिया है। सुनकर वह दौड़ा गया था तो चाचा ने उलटे उस पर ही फ़ौजदारी का मुक़दमा ठोंक दिया। मरता क्या न करता...? न कोई सहारा था और न पैसा। इतनी दूर से वह क्या कर लेता? शहर में मजदूरी से जो कुछ मिलता, उससे ही गुज़ारा कर लेता । चार-पाँच महीने में गाँव जाकर मुनिया की माँ को भी कुछ दे आता, पर इधर चार महीने से...? जो कुछ जोड़ा था, उसी से थोड़ा-थोड़ा कर अपना गुज़ारा कर रहा था और इस आशा में शहर रुका था कि शायद कहीं कोई काम मिल जाए, पर नहीं...। काम की कौन कहे, खाने के लाले पड़ गए।

खाने के नाम पर उसके पेट में एक मरोड़-सी उठी। उठकर उसने मुँह-हाथ धोया और जाकर चूल्हे के पास रखे डिब्बे को खँगालने लगा। सारे डिब्बे खाली थे, बस एक डिब्बे में दो मुट्ठी कतरनी चावल पड़ा था। कलुआ दूसरे गाँव का था। दो दिन पहले अपने गाँव जाते वक़्त अपना दो मुट्ठी चावल छोड़ गया था, यह कहते हुए, “इससे एक दिन अपना पेट भर लेना, फिर सीधे गाँव चले जाना। वर्ना कुत्ते की मौत मर जाओगे...। रमुआ और खिलावन को भूल गया ? बुखार आए चार दिन भी नहीं बीता था कि मर गए...। मरने के बाद भी उन्हें चैन मिला? उन्हें छूने की कौन कहे, कोई पास जाने को भी तैयार नहीं था। यह कोई सरकारी गाड़ी वाले लाश सड़ जाने के डर से पता नहीं कौन-सा अजीब तरह का लबादा पहनकर आए और उन्हें उठाकर जाने कहाँ जला-जुलू दिए। परिवार वालों को भी कोई ख़बर नहीं दिए।”

वह बुरी तरह डर गया। कहीं बुखार आने से वह भी मर गया तो मुनिया व उसकी माई को कौन सम्हालेगा? गाँव में वह जो उसकी छोटी सी झोपडी है, चाचा कहीं उसे भी न हथिया ले...। उसने जल्दी से एक मुट्ठी चावल बनाया और फिर नमक डाल कर खा लिया। खाने के बाद जब थोड़ी राहत महसूस हुई तो गाँव जाने का सोचा। जेब में जो पचास रुपया पड़ा है, उसे ज़रूरत बखत के लिए बचाकर रखेगा और यह एक मुट्ठी चावल भी...। कलुआ कह तो रहा था कि पैसा न होने से बहुत लोग पैदल ही गाँव जा रहे है...यहाँ तक कि पेट वाली औरतें भी। वह भी सब के साथ पैदल ही चल देगा...। बस्स, किसी तरह मुनिया की माई के पास पहुँच जाए...पाँच महीने से उसकी कोई ख़बर भी तो नहीं मिली । अचानक आया देखकर कितना खुश होगी...। सोचकर उसने जल्दी से अपना सामान समेटा और चारपाई-चूल्हे को छोड़कर जत्थे के साथ चल पड़ा गाँव की ओर...।

अँधेरा अब भी उसके पीछे था...।


 

लेखक परिचय - प्रेम गुप्ता ‘मानी’




आत्म-परिचय:

नाम- प्रेम गुप्ता "मानी"

शिक्षा- एम.ए (समाजशास्त्र), (अर्थशास्त्र)

जन्म- 24 अगस्त, इलाहाबाद

लेखन- 1980 से लेखन, लगभग सभी विधाओं में रचनाएं प्रकाशित

मुख्य विधा कहानी और कविता, छोटी- बड़ी सभी पत्र-पत्रिकाओं में

ढेरों कहानियाँ प्रकाशित ।

प्रकाशित कॄतियाँ- अनुभूत, दस्तावेज़, मुझे आकाश दो, काथम (संपादित कथा संग्रह)

लाल सूरज ( 17 कहानियों का एकल कथा संग्रह)

अंजुरी भर ( 8 कहानियों का एकल संग्रह)

बाबूजी का चश्मा (एकल कथा संग्रह)

अगले जनम मोहे बिटिया न कीजो (कविता संग्रह)

सवाल-दर-सवाल (लघुकथा संग्रह)

यह सच डराता है (संस्मरणात्मक संग्रह)

सम्मान- पं. विश्वम्भरनाथ शर्मा कौशिक स्मृति समिति द्वारा ‘विशिष्ट साहित्य सम्मान’


विशेष- 1984 में कथा-संस्था "यथार्थ" का गठन व 14 वर्षों तक लगातार

हर माह कहानी-गोष्ठी का सफ़ल आयोजन।

इस संस्था से देश के उभरते व प्रतिष्ठित लेखक पूरी शिद्दत से जुडे रहे।

सम्पर्क- "प्रेमांगन"

एम.आई.जी-292,कैलाश विहार,

आवास विकास योजना सं-एक,

कल्याणपुर, कानपुर-208017(उ.प्र)


ई-मेल- premgupta.mani.knpr@gmail.com

ब्लॉग - www.manikahashiya.blogspot.com

मोबाइल नं : 09839915525


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