ठंड इतनी होने लगी थी कि शीशों पर अब उंगलियों से कुछ लिखा जा सकता था। निष्ठा खिड़कियों के शीशों पर जमी ओस से लिख तो नहीं रही थी पर कुछ आकृतियां जरूर उकेर रही थी। किसी उधेड़बुन में डूबी लग रही निष्ठा ने कई बार अलग-अलग तरह की आकृतियों को उंगलियों से उकेरा फिर हथेली से सबको एकसाथ मिटा भी दिया। उसकी बायीं हथेली अब पूरी तरह भीग चुकी थी और खिड़की के उस पार निकलता सूरज भी अब साफ दिखाई देने लगा था।
कॉलोनी के लोग अक्सर निष्ठा को मन में कुछ बुदबुदाते हुए टहलते और खिड़की की ओर बैठे देखा करते थे। मिसेज रोज़ी को तो आज भी वो दिन अच्छी तरह याद है जब निष्ठा स्कूल के रेस की प्रतियोगिता जीतकर मैदान में ही उनके गले लग गयी थी। मिसेज़ रोज़ी ने निष्ठा को ना सिर्फ बड़े होते हुए देखा था बल्कि एक पैरेंट्स की तरह प्यार भी दिया था।
निष्ठा का इस तरह मुखर होकर बोलना, खेल प्रतियोगिताओं में हिस्सा लेना और सबसे बड़ी बात कई बार जीतना ना तो उसकी स्लम कॉलोनी में अधिकतर लोगों को पसंद था और ना ही निष्ठा के माता-पिता को। उसकी इस प्रकार की सफलताओं के बाद उसे घर में प्रतिक्रिया के रूप में यही सुनने को मिलता था कि
"अब तुम बच्ची नहीं रहीं इन सब चीजों से कुछ होने वाला नहीं है। तुम्हें हकीकत जितनी जल्दी समझ में आ जाए वही बेहतर है तुम्हारी जिंदगी के लिए"
लेकिन निष्ठा पर कभी भी इसका कोई असर नहीं पड़ा। वह स्लम कॉलोनी की सोच और परिवार के तानों से बेपरवाह अपनी ही धुन में खोई रहती। शाम को मैदान में रेस की प्रैक्टिस करती, आने वाली इंटर की परीक्षाओं की तैयारी करती और मिसेज रोज़ी से खूब सारी बातें करती।
उस पूरी स्लम कॉलोनी को सफलता से भय सा लगता था। कॉलोनी के सारे लोग ही असफलता, अवसाद व दीनता के साथ इतने सहज हो गए थे कि उनको उसी परिवेश में जीवन व्यतीत करना अपनी नियति लगता था। हो सकता है उन्होंने सफलता के पूर्व में भयानक परिणाम देख रखे हों और उन्हीं भयावह अनुभव के चलते निष्ठा की सफलता उन्हें भयभीत सी कर देती थी ।
उस शाम अचानक मौसम बदल सा गया था हवाएं चली मैदान में खूब धूल उड़ी और लग तो रहा था मूसलाधार बारिश होगी पर बूंदाबांदी होकर ही रह गई।मिट्टी की सोंधी-सोंधी खुशबू से सराबोर मैदान निष्ठा की प्रैक्टिस को और ऊर्जा दे रहा था।
प्रैक्टिस के बाद निष्ठा कॉलेज की अपने सबसे प्रिय सहेली वेदिका के साथ उसके घर चल गई। वेदिका के साथ वो कॉलेज के टीचरों की मिमिक्री करती, बेंच में स्केच से प्रिंसिपल के कार्टून बनाती और अध्यापक के देखते ही मिटा देती। वेदिका के साथ ने उसे कभी भी घर में इकलौता होने के अकेलेपन को महसूस नहीं होने दिया।
लेकिन जब वेदिका के घर वाले जोर दे देकर निष्ठा से उसका पूरा नाम पूछते या फिर जब वे दोनों को एक दूसरे से टिफिन शेयर करते देखते समय अपनी भाव भंगिमाऐं बदल लेते तब निष्ठा बहुत ही असहज हो जाती थी।
यही नहीं अध्यापकों द्वारा भी बार-बार वेदिका और निष्ठा के सीटिंग अर्जेमेंट को बदलने की कोशिश भी उसे पसंद नहीं आती थी।
निष्ठा कभी ये तो नहीं समझ पाई कि क्यों बार-बार मैदान में परिचय के दौरान उससे जोर देकर 'पूरा नाम' पूछा जाता है और क्यों कॉलेज में सबसे बेहतर प्रदर्शन करने के बावजूद भी नियमों में ऐसे बदलाव किए जाते हैं कि उसका अंडर 16 की डिस्ट्रिक्ट टीम में चयन नहीं हो पाता है।
इस बार तो वो कॉलेज से सीधे तेज़ कदमों से घर को लौट आई। बार-बार आवाज़ देने के बावजूद भी वेदिका को अनसुना करते हुए घर के बेड में उल्टे करवट लेट गई। उसके बेतरतीब पड़े बैग और गाल में सूखे आंसुओं के निशान देखने के बाद सोती हुई निष्ठा को कंबल उढ़ा दिया। मां उसके चेहरे पर हाथ स्नेह से हाथ फेरती रही।
मुखर, बेपरवाह और हंसमुख निष्ठा का ऐसा चेहरा उसके माता-पिता ने पहली बार देखा था। पर लगता था कि उन्हें मालूम था ऐसा एक दिन जरूर होगा और शायद यही वह भय जिस कारण वे निष्ठा को रेस और प्रतियोगिताओं से दूर रहने के लिए कहते थे।
अंतिम बार भी अंडर 16 की डिस्ट्रिक्ट टीम में चयन ना हो पाने के बाद से निष्ठा गुमसुम सी रहने लगी। यही नहीं अब वह वेदिका से भी कम बातें करती थी। अब वह ना तो टीचरों की मिमिक्री करती और ना ही प्रिंसिपल के कार्टून बनाती।
अब शाम को वह मैदान जाती जरूर थी लेकिन प्रैक्टिस नहीं करती बल्कि मिसेज़ रोज़ी के साथ बेंच पर बैठकर खूब सारी बातें करती और कभी-कभी रुआँसी होकर उनके गले लग जाती तब मिसेज़ रोज़ी बड़े स्नेह से उसकी पीठ पर अपनी हथेलियों से सहलाती रहतीं।
अगर उसकी प्रैक्टिस बंद होने से सच में किसी को दुःख हुआ था तो वो मिसेज़ रोज़ी ही थीं क्योंकि उन्हें बेंच पर बैठे-बैठे ना सिर्फ निष्ठा को दौड़ते देखने की आदत हो गई थी बल्कि वही उसके लगाए गए चक्करों को भी गिनती थीं।
एकदिन मिसेज़ रोज़ी निष्ठा के घर आईं और घर वालों से काफी सलाह मशविरा करके निष्ठा को अपने साथ मैदान स्थित चर्च ले गईं । उन्होंने कुछ रस्मों के उपरांत निष्ठा को नया नाम दिया निष्ठा फेड्रिक। मिसेज़ रोज़ी ने निष्ठा को नए स्कूल में भी दाखिला दिलाकर उसके हॉस्टल और रेस के सामानों का इंतजाम भी कर दिया।
निष्ठा की जिंदगी में फिर से उमंग आ गई थी और आती भी क्यों ना अब निष्ठा मिशनरी के स्कूल की डिस्ट्रिक्ट टीम की तरफ खेलने जो जा रही थी।
अब निष्ठा फिर से मैदान में प्रैक्टिस करती और चक्कर पूरे करने के बाद मिसेज़ रोज़ी के गले लग जाती फिर बैठकर खूब सारी बातें करती।
एकदिन मिसेज़ रोज़ी के नार्वे वाले भाई रोज़ी से मिलने सपरिवार आ रहे थे । मिसेज़ रोज़ी ने इस मौके पर एक फंक्शन रखा और निष्ठा को भी आमंत्रित किया।
निष्ठा फंक्शन में जाने की खुशी में पूरी रात ठीक से सोई नहीं। सुबह उठते ही अपनी वाइट फ्रॉक को प्रेस कराने गई। मिसेज़ रोज़ी के भाई के लिए बहुत सोचने के बाद भारत की सुंदरता प्रदर्शित करती अनुकृतियों का संकलन चयनित की। निष्ठा का सोचना था कि इसे लेकर जब मिसेज़ रोज़ी के भाई वापस नार्वे जाएंगे तो उन्हें हमेशा भारत की खूबसूरती और वो याद रहेगी।
अगले दिन शाम को मिसेज़ रोज़ी की क्रिश्चियन कॉलोनी में मेहमानों के आने का सिलसिला शुरू हुआ। निष्ठा बड़े झिझकते हुए मिसेज़ रोज़ी के घर में प्रवेश कर हॉल में पहुंची वह अकेले लोगों के बीच तब तक बहुत ही असहज सा अनुभव करती रही जब तक किचन से निकलकर मिसेस रोज़ी ने निष्ठा को गले से नहीं लगा लिया। वह एक बेटी की तरह मिसेज़ रोजी के गले लगी रही। मिसेज़ रोज़ी ने जब उसे लोगों से मिलाया तो उनके चेहरों पर मुस्कान तो जरूर होती पर निष्ठा को उनकी भाव भंगिमा बिल्कुल वैसी ही नज़र आई जैसी कि वेदिका के घर वालों की होती थी।
निष्ठा उनके इस तरह के व्यवहार के कारण खुद को उनके बीच शामिल नहीं कर पा रही थी। वह अकेले अपने को सिकोड़ते हुए खड़े होकर मिसेज़ रोजी की व्यस्तताओं को देख रही थी। मिसेज़ रोज़ी यह देखकर उसकी मनोस्थिति समझ गई और उसका डिनर भी अंदर वाले रूम में ही लगा दिया। कुछ देर बाद मिसेज़ रोज़ी ने अपने भाई से निष्ठा को मिलाया और उसने निष्ठा को बड़े गौर से नीचे से ऊपर देखकर उसका पूरा नाम पूछ लिया। निष्ठा ने 'निष्ठा फेड्रिक' बोलते हुए उसको गिफ्ट दिया और वह थैंक्यू बोलकर अन्य लोगों से मिलने में मशगूल गया।
मिसेज़ रोज़ी की पार्टी में हुए ऐसे व्यवहार ने निष्ठा को फिर से कुछ उदास सा कर दिया था। चाहे संडे का चर्च का मास हो या फिर अन्य कार्यक्रम लोगों की नजरें व हावभाव हमेशा ही निष्ठा को असहज सा कर देते थे। चर्च में भी वह पीछे दरवाजे के निकट अकेली खड़ी होकर प्रेयर करती थी। उससे लोग तभी बातें करते जब किसी कारण उसकी नज़र लोगों से टकरा जाती थी।
पर हाँ मिसेज़ रोज़ी उसे आज भी उतना ही स्नेह करतीं थीं। अभी कुछ दिनों पहले ही मिसेज़ रोज़ी ने निष्ठा को अपने हाथों से बनाई गई अमरूद की जेली खिलाने के लिए घर बुलाया था। उस दिन निष्ठा ने ना सिर्फ जेली खाई बल्कि मिसेज़ रोजी के साथ टीवी पर लाइव रेस भी देखी। दोनों ने खूब सारी बातें और मजाक किया। बातें करते-करते शाम हो गई तब मिसेज़ रोज़ी ने निष्ठा से किचन व कमरों की लाइट ऑन करने को कहा। जैसे ही निष्ठा ने किचन के बगल वाले कमरे की लाइट ऑन की तो उसे दीवारों पर वही संकलन टंगा दिखा जो कि निष्ठा में मिसेज़ रोज़ी के नार्वे वाले भाई को नार्वे ले जाने के लिए गिफ्ट किया था।
उसको देखने के बाद निष्ठा ने किचन जाकर एक गिलास पानी पिया और बिना कुछ बोले पुनः मिसेज़ रोजी के पास बैठ गयी। अब निष्ठा चुप सी थी और मिसेज़ रोज़ी की बातों में बस हामी सी भरती जा रही थी। कुछ समय उपरांत वह घर चली गई। उसके बाद से कॉलोनी वालों को निष्ठा अक्सर ओस से गीले खिड़की के शीशे में कुछ आकृतियां बनाते फिर मिटाते ही देखा। कभी स्वास्तिक फिर उसी से क्रॉस बनाती फिर सबकुछ हथेली से मिटार देती। अब वह प्रैक्टिस करती नज़र नहीं आती थी। वह अक्सर अकेले कुछ बुदबुदाते हुए टहलती थी। हाँ मगर वयोवृद्ध हो चुकी मिसेज़ रोज़ी को देखकर निष्ठा अभी भी मुस्कुरा देती थी।
सक्षम द्विवेदी का परिचय
मेरा जन्म इलाहाबाद में हुआ इसलिए हिन्दी जीवन का एक अभिन्न हिस्सा है. साहित्य में मेरी रुचि शुरू से रही तथा इंटर मे मैने अध्ययन हेतु भाषाओं का ही चयन किया व हिन्दी, इंग्लिश और संस्कृत को विषय के रूप मे चुना. स्नातक व स्नातकोत्तर में जन संचार व पत्रकारिता विषय से करने के कारण लोगों तक अपनी बात को संप्रेषित करने हेतु कहानी, लेख, संस्मरण आदि लिखना प्रारंभ किया. डायसपोरिक सिनेमा मे रिसर्च के बाद इस संदर्भ मे भी लेखन किया. इसी दौरान डेली न्यूज़ एक्टिविस्ट, अमृत प्रभात हिन्दी दैनिक इलाहाबाद मे पत्रकार के रूप में कार्य किया व सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय मे एक डिजिटल वालेंटियर के रूप मे 6 माह कार्य किया.
लेखन में मानवीय भावनाओं और दैनिक जीवन के संघर्षों को दर्शना मेरा पसन्दीदा बिंदु है और मुझे लगता है इसे लोगों के सामने लाना जरूरी भी है. इन बिंदुओं को सहजता के साथ दर्शा पाने की सबसे उपयुक्त विधा मुझे कहानी लगती है, इसलिए कहानी लेखन को तवज्जो देता हूँ. मैने अब तक सात कहानियाँ लिखी हैं जिसमे कहानी 'रुश्दी' ज्ञानपीठ प्रकाशन की साहित्यिक मासिक पत्रिका नया ज्ञानोदय में प्रकाशित हुई व कहानी 'समृद्धि की स्कूटी' शब्दांकन में प्रकशित हुई. मैं जीवन व भावों को बेहतर ढंग से निरूपित कर पाऊँ यही मेरा प्रयास है जो की अनवरत जारी है.
रिसर्च ऑन इंडियन डायस्पोरा,महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय,वर्धा,महाराष्ट्र। 20 दिलकुशा न्यू कटरा,इलाहाबाद,उ0प्र0 मो0नं07588107164
saksham_dwivedi@rediffmail.com
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