आंगन में तेजी से बिमल बाबू ने थाली फेंकी। “दरिद्र हो तुम लोग, खाना भी ढंग से नहीं बना सकते। दिन भर आदमी थकहार के आये और खाने को ये मिले।” वो फूल यानि कांसे की आखिरी थाली थी। दो टुकड़े हो गयी। सोना भाग कर माई के पीछे छिप गई। आजकल ये सब घर में रोज हो रहा था। घर में दिन रात दलिद्दर की बात होती थी। उल्टी झाड़ू, उल्टा बर्तन, दलिद्दर न मालूम क्या-क्या करने से उनके घर में रुक गया था। वैसे सोना खुद भी लेबरची यानि उल्टे हाथ से काम करती थी। घर की एकमात्र टूटी साईकिल चोरी हो गई तो घर की औरतों को न जाने क्या-क्या सुनना पड़ा।
उस दिन जब माई ‘ईश्वर आये दलिद्दर जाय’ कहके सूप पीट रही थी तो दलिद्दर रुक गया था भागा नहीं। वैसे सोना को पता था कि वो क्यों नहीं भागा। अम्मा ने सबकी तरह घूरे पर सूप तोड़ा नहीं वो बस सूप बजा के वही रख आईं थी। उन्होंने सूप भी धीरे-धीरे बजाया था कि कहीं टूट न जाय। अगले दिन वो मुंह भिनसारे उसको उठा लाईं। वैसे गांव में ज्यादातर का हाल यही था। घर का दलिद्दर भगाने के लिए गन्ने के डंडे से उसको पीट पीट कर पूरे घर में फिराना साथ में हर कमरे में जाकर कहना ‘ईश्वर आये-दलिद्दर जाये’ फिर उसे घूरे पर जाकर पैर से तोड़ देना। ये प्रथा सदियों से इस गांव में चली आ रही थी। लेकिन फिर भी दलिद्दर गया नहीं। “नया सूप का मुफ्त में मिली ई त अरून के बिहाये के परछन का अहई।”
माई का खुद भी जी न था कि दलिद्दर का सूप उठा लाये लेकिन हालात से मजबूर थीं। घर के लोग बढ़ते जा रहे थे। खेती से इतना पूरा न पड़ रहा था। खेती रह भी कहां गई थी सब ने अपना-अपना हिस्सा बांट लिया था बस चूल्हा नहीं बांटा था ताकि शहर से गाहे- बगाहे लोग आयें तो खाना बना बनाया मिल जाए… वैसे भी खेती किसानी में आदमी को बैल बनना पड़ता है। यहां तो जो आदमी हैं वो खर तक उठाने को तैयार नहीं। माई को जब कुछ न सूझता तो बड़बड़ाने लगती थीं। उनकी बड़बड़ाहट उमर के साथ बढ़ती जा रही थी।
कुछ घर न ठीक से ढहते हैं न बनते हैं। वो झरते हैं, चूते है, ठह-ठह के ढहते हैं। गांव के कोने में बनाये पंडित संकठाप्रसाद का घर कुछ ऐसा ही था। घर का ओसारा यानि बाहरी हिस्सा थोड़ी सी बेहतर हालत में था। उसी से इज्जत ढपी थी, नहीं तो ओसारे के अंदर जाते ही मड़ई और मनई जर्जर ही थे। ओसारे के खंबे के ठीक ऊपर की पक्की दीवार पर तोते का जोड़ा बना था। बीच में दो आम का गुच्छा। शादी ब्याह में तोते का ठूढ़ लोग रंगवाना नहीं भूलते थे। उसके ऊपर लिखा था पंडित संकठा प्रसाद तिवारी सन 1946। ऐसी कोई बखरी नहीं थी। विशाल बखरी। उसके पीछे तालाब। बड़ा सा दुआर। उस पर वो विशाल कटहल का पेड़। ऐसा पेड़ जो पांव से लेकर सर तक फलता था।उसके पत्ते पर कभी इनरी-प्यौतुरी (तुरंत मां बनी भैंस के दूध का पकवान) लेकर सोना घर-घर पहुंचाती थी। घर के ठीक बगल में कुंआ। कौन नहीं आता था उस कुंए से पानी भरने। शादी-ब्याह से लेकर मरनी करनी सब में इस कुंए से काम पड़ता था। समय समय की बात है आज वही कुआं उपेक्षित पड़ा है। ज्यादातर के घर नल लग गया है। वो अलग बात है कि जब-जब नल पानी छोड़ देता है तो लोग उसी कुंए की शरण लेते हैं।
दरअसल आज किसी के घर से परोसा आया था। परोसा यानि जो लोग दावत में खाने नहीं पहुंचे उनका खाना। समय-समय की बात है परोसा क्या था बसियौरा था। गर्मी के महीने में सब्जी बजबजा गई थी। छोटकी दुलहिन ने देखा नहीं उन्होंने वही बिमल को परोस दिया। माई बड़बड़ा रही थी-उबरा भात पित्रन के मुई बछिया बाभन के अरे मनई खाना देख कर भेजता है लेकिन मनई होई तब न बड़मनई होई गये हैं सब। माई बेबस होकर बस बड़बड़ाती हैं। पूरा घर खंडहर हो चुका था। कहने को तीस लोगों का परिवार है लेकिन घर में कुल तीन आदमी और चार औरतें और सात बच्चे बचे थे। तीन आदमी में एक बूढ़ा, एक आधा पागल या कह लो कि बौरहा और तीसरा बिमल बाबू थे। बिमल ने ही पंडिताई संभाली थी। नीलाम्बुजश्यामलकोमलाङ्गं को निलाम कोमलाम..सीतारोपित भागम जब भी बिमल बचपन में कहते थे तो बाबू का सीना चौड़ा हो जाता था। उन्हें लगता था कि पंडिताई में उनका कोई मुकाबला न कर पायेगा। लेकिन समय-समय की बात है। जजमान लोग अब अपना-अपना पंडित रखने लगे हैं। किसी तरह घर चल रहा था। घर के जो मर्द दिल्ली-बंबई गये फिर न लौटे। शादी-विवाह में आना भी कोई आना है।
घर में फिर भी चहल-पहल बनी रहती थी। उसका कारण सिर्फ कटहल का विशाल पेड़ था। घर के बाहर विशाल कटहल था ही ऐसा उसकी जड़ों तक से नन्ही कटहरी फूट पड़ती थी और देखते देखते बीस किलो तक के कटहल का फल जमीन फोड़ के लोगों की आंख में गड़ने लगता था। पकने के बाद महक ऐसी की रामबली की मिठाई उसके आगे फेल। हर साल कूजड़ें बिना बुलाये बिमल बाबू के यहां आ जाते थे। हमई मेंहदी लगाईद मोती झील से जाय के साईकिल से न..पटोहा यानि दरवाजे का मजबूत पल्ला झूले की तरह पड़ता था। नार मोटी रस्सी भी बिमल के यहां की पड़ती थी। पटोहा और पेंग।गांव की कौन सी ऐसी औरत नहीं थी जो अंधियारे के उस हिचकोले को भूली हो। जवाबी कजरी। हरे रामा रिमझिम बरसे ल पनिया चली आवा धनिया हो हारी।। याद करके प्रमोद की अम्मा मुंह ऐसी शर्म से छुपा लेती हैं मानो कल की बात हो। हो किसी का बंगला लेकिन गरमी के मौसम में जब खाली खेत का गरम भभका लेकर हवा वहां तक पहुंचती थी वो भी कटहल के पत्तों में गुम होकर सुस्ताने लगती थी। फिर वहां से आगे बढ़ते ही एकबएक शीतल हो जाती थी। कटहल के पेड़ के नीचे मजमा लगता था। शादी ब्याह में ढेरों तख्त गर्मियों में खटिया बिछी रहती थी। ताश की बाजी लेकर दुनिया भर की राजनीति होती थी। आजनेता बाज नेता सबकी बातें। इन सब के साथ शादी-ब्याह में कटहल बिकता भी बहुत था। माई को रिश्तेदारों को तोड़ के देने में महारानी बनने का सुख अलग था।
सोना को कभी नहीं लगता था कि उनके यहां दरिद्र का बास है तब तो और नहीं जब माई रात में किस्सा सुनाती थी। ‘पूस गये टूस में माघ गये अतरी आवई द फगुनवा निमोना रोटी कचरी।‘ यानि पूस में आदमी भूखा रहता था माघ में कभी-कभी मिलता था। त का मावा पहले मनई खाय के नाय पावत रहा। हां, बिटिया। इसका मतलब तब ज्यादा तकलीफ थी। बताओ मटर का निमोना खाने के लिए आदमी को इंतजार करना पड़े’। ‘नाहि बिटिया इ बात नहीं है तब सब मनई की इहै हालत रही। जब जौन खेत में होत रहा तब हुहई आदमी खात रहा’। वैसे माई के पास सोना के सवालों का जवाब नहीं था। वो ज्यादा से ज्यादा यही सोच पाती थीं कि आदमी पैरुख यानि मेहनत करे तो जिन्दगी बेहतर होती है। लेकिन दिल्ली बम्बई गयें लोग जब शहर वापस जाते समय कर्जा काढ़ के जाते थे तो उनको कुछ समझ न आता।
बूढ़े बुजुर्ग की हालत भी तो पुरानी बखरी की तरह होती है। इतने आरर, इतने कमजोर होते हैं कि कब किस हवा से ढह जायें पता नहीं। माई रोज रात में सोना को कहानी सुनाते समय सांप –बिच्छू तक के किस्से सुनाती थीं। ‘टीक से टपाक से, कपार काहे फोड़ा, ठेंगे से बांगे से, रात काहे डोलअ इसका मतलब सांप के सर पर महुंआ टपका सांप गुस्साया कि तुमने मेरा सर क्यों फोड़ा, उस पर महुआ ने कहा कि रात में काहे टहलने निकले हो। सोना ने ये किस्सा कई बार सुना था। त माई हमार कटहरवा भी बोलई जानत होए। हां बिटिया न जानत होत त हमरे दुखे के सहारा कैसा बना। माई फिर शुरू हो जाती कि जब हम बिहई के आये रहे ओकरे पहले के अहई।
पिछले साल जब से सहूआयिन के यहां बड़का पंडित ने बताया कि घर के बाहर दूध वाला पेड़ नहीं लगाना चाहिए और न ही घर के दाई तरफ कुएं का वास होना चाहिए। इससे दलिद्दर का वास होता है। बिमल बाबू के मन में बात घर कर गई। वैसे पंडित ने हर किसी को गरीबी दूर करने का उपाय बताया था। कुछ न कर सको तो सिल-लोढ़ा ले जाके नदी के किनारे फेंक आओ। सई नदी का किनारा लोगों के सिल-लोढ़े से पट गया।
‘कटहल का पेड़ तो दूध का पेड़ होता है’ बिमल बाबू ने माई को जब बताया तो उन्होंने पंड़ित को जी भर गाली दी। ‘जब ओहई पेड़ के कटहर खाइके डकारत रहेन तब नाय पुरान बकरेन’। आखिरकार शादी ब्याह लेनी देनी का निपटारा माई कटहल से कर लेती थी। वरना पंड़िताई में मिलता क्या था। आटा- चावल -खटाई मिला सीधा जिसको दिन भर बैठ के छानना पड़े। लेकिन बिमल बाबू ने एक न सुनी। बखरी की माटी कुएं में भटवाना शुरू कर दिया। और इस तरह गांव का आखिरी कुंआ दलिद्दर को भगाने में शहीद हो गया।
बिमल बाबू शहर के पंडितो की तरह न तो बोल पाते थे और न ही गांव के दूसरे लड़कों की तरह दिल्ली बम्बई कमा खाने की ताकत रखते थे। उन्होंने बचपन से अपने पिता के साथ पूजा कथा में जाकर ‘शिव हरे बीज अंकुर ते वरम’ कह के अंत में गीत सुनाया था। लेकिन समय-समय की बात है अब तो इससे गुजारा नहीं होता। माई के लाख मना करने पर उन्होंने कटहल पर आरी चलवा दी । अर्रररर। कहके विशाल कटहल का पेड़ जमींदोज हो गया। इधर माई का शरीर ऐंठ गया। बखरी के आगे वाली दीवार भरभरा कर गिर गई। आम के गुच्छें में लाल-लाल ठूढ़ डाले तोता धूल में बिला गया। धूल का मानो बवंडर सा छा गया उसी में से दरिद्दर उठा और जोर जोर से अट्टहास करके नाचने लगा।
लेखक डॉ सविता पाठक – परिचय
अध्यापन के पेशे से जुड़ी सविता पाठक साहित्य की अलग-अलग गतिविधियों में शामिल रही हैं। उन्होंने ‘अम्बेडकर के जख्म’ नाम से उन्होंने ‘वेटिंग फॉर वीजा’ का हिन्दी अनुवाद किया। पत्रिका ‘रविवार डाइजेस्ट’ के लिए विभिन्न सामाजिक-राजनीतिक लेखों का उन्होंने नियमित तौर पर अनुवाद किया है। वेटिंग फॉर वीजा का हिन्दी अनुवाद बाद में ‘फारवर्ड प्रेस’ से भी प्रकाशित हुआ।
सविता पाठक ने पियेद्रो पेयत्री, निकोला डेविस, लिजली कुलसन, इनामुल ओर्तिज आदि कवियों की चुनिंदा कविताओं का अनुवाद साहित्यिक पत्रिका ‘पल प्रतिपल’ के लिए किया। विश्व के अलग-अलग देशों के कवियों की कविताओं का उनके द्वारा किए गए अनुवाद पिछले कई अंकों से पल प्रतिपल पत्रिका के संपादकीय का हिस्सा रहे हैं। क्रिस्टीना रोजोटी के अनुवाद ‘गोबलिन मार्केट’ पर हिन्दी नाटक अकादमी से प्रायोजित नाटक ‘माया बाजार’ का मंचन प्रख्यात रंगकर्मी प्रवीण शेखर ने एनसीजेडसीसी इलाहाबाद में किया। ‘कथन’ और विभिन्न डिजिटल साइट के लिए सू लिज्ली की कविताओं का अनुवाद उन्होंने किया जो काफी चर्चा में भी रहा। ‘रचना समय’ पत्रिका के लिए उन्होंने सिमोन द बोउआर के लेख का अनुवाद किया।
इसके अलावा, उन्होंने साहित्य अकादेमी, ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस और गार्गी प्रकाशन के लिए भी लेख और कविताओं का अनुवाद किया है। सविता पाठक की कहानियां और लेख नया ज्ञानोदय, कादंबिनी, वर्तमान साहित्य, पूर्वग्रह आदि पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई हैं। आकाशवाणी और भारत भवन जैसे संस्थानों में परिचर्चा और कहानी पाठ भी किया है।
सविता पाठक ने अंग्रेजी साहित्य में वीएस नॉयपाल के साहित्य और जीवन संबंध पर वर्ष 2008 में पीएचडी की है। सविता पाठक का जन्म 02 अगस्त 1976 में उत्तर प्रदेश के जौनपुर शहर में हुआ। पढ़ाई-लिखाई अलग-अलग शहरों में हुई है। फिलहाल वे दिल्ली विश्वविद्यालय के अरविंद महाविद्यालय में अंग्रेजी साहित्य का अध्यापन कर रही हैं।
डा सविता पाठक का जन्म जौनपुर उत्तर प्रदेश में हुआ है शिक्षा इलाहाबाद विश्वविद्यालय।
हिन्दी की कई प्रमुख पत्र पत्रिकाओं में लेख और कहानियाँ प्रकाशित। हिस्टीरिया, भोज, कयास आदि चर्चित कहानियाँ। अनुवादक भी। पाखी का सलाना अनुवाद पुरस्कार। कई लातीन अमरीकी कविताओं का अनुवाद। वेटिंग फार वीज़ा का अनुवाद सेंट जोसेफ़ कर्नाटक के सभी कालेज में पाठ्यक्रम का हिस्सा। दिल्ली विश्वविद्यालय के मैत्रेयी कालेज में अंग्रेजी साहित्य का अध्यापन।
सविता पाठक, प्लाट नंबर ए-22, फ्लैट नंबर-101, नन्हे पार्क, उत्तम नगर, दिल्ली-110059, ईमेलः drsavita.iitm@gmail.com
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