पीला गुलाल
हवा में पीला रंग घुलने लगा।
देवदारूओं ने हवा की रंगभरी पिचकारियां चलानी शुरू कर दीं। विशालकाय पेड़ लम्बे सांस ले ले कर पीला गुलाल उड़ा रहे थे। घरों की छतों पर, बालकनियों में, सड़क, पगडंडियों में पीले रंग की परतें बिछ गईं। जैसे लाल गुलाल की जगह पीले गुलाल की होली खेली जा रही है।
इन दिनों वसंत आता है। कई पेड़पौधों में नए पत्ते आते हैं, फूल भी खिलते हैं। बेशक इन्हें झूठा फूल कहा जाता है। यह छलावे का वसंत है। लगता है; आया है, आता भी है, आता भी नहीं। पेड़ पौधों को आभास होता है कि पतझड़ और सर्दी से पहले ही वसंत आ गया। वे फूल पत्ते उगाने लगते हैं।
सितम्बर अक्तूबर के दिनों में देवदारों के फल पकने लगते हैं। छोटी छोटी डोडियों के कोनीकल फलों का रंग बड़ा अद्भुत होता है। केसरिया या भगवा, पता नहीं। इनके पकने पर पीला पराग हवा में घुल चहुं ओर बरसता है। बारिश हो जाए तो पानी के ऊपर पीले पराग की परतें बहती हुई दिखती हैं। देवदार की शाख पर कोई बड़ा हुड़दंगी बंदर धम्म से बैठे तो नीचे खड़े सब जन पीले पराग से सराबोर हो जाते। लगता है, पीला रंग इन्हीं से बना है।
सांझ के ऐसे समय में जब ठण्डक की फुहार धीमे धीमे बरसने लगती है, आसमान पश्चिम में गुलाबी हो जाता है तो मौसम बड़ा उदास उदास सा हो जाता है।
शाम को आशियाना में बैठ चाय पीते और बतियाते हुए दूर तक फैली पहाड़ियों की कतार और उस पर बिछे ताज़ा बर्फ को निहारना बड़ा अच्छा लगता है। अंतिम छोर पर ऑकलैंण्ड स्कूल की लाल छतें और उससे सटा कॉलेज जहां उसने अपने जीवन के स्वर्णिम पल बिताए। कॉलेज की बिल्डिंग लकड़ी की हुआ करती थी। सीढ़ियां, बरामदे; सब लकड़ी के। छोटे से ग्राउंड में लकड़ी की रेलिंग लगी थी जिसके साथ कुहनियों के बल टिक कर लड़के खड़े हो दूसरी ओर लड़कियों को निहारते रहते। अब यहां नई बिल्डिंग बन गई है सीमेंट की। कॉलेज भी कन्या महाविद्यालय हो गया। उसकी तमाम स्वर्णिम यादें पुरानी बिल्डिंग गिरा कर दफन कर दी गईं।
आशियाना के इस ओर परमार प्रतिमा के पीछे चिनार के सूखे पत्ते सर्र सर्र सरकते जाते हैं। टूटने पर वे पेड़ों के बीच ही अटक जाते हैं और एक डाल से दूसरी पर गिरते पड़ते बेटी की तरह धीरे धीरे अनमने जुदा होते। धरती पर गिरने की आतुरता इनमें दिखलाई नहीं पड़ती, टूट कर न गिरने की आकुलता रहती है। निर्जीव हो जाने पर भी कुछ क्षण सजीव रहना चाहते हैं। चिनार की दुनिया देवदार से अलग है। देवदार के पत्ते नहीं झरते, चिनार के झरते हैं।
आजकल सुबह उठते ही गुनगुनी धूप सेंकने को मन करता है। दोपहर तक गर्मी आने लगती है और शाम को फिर ठण्डक।
ऐसे में बाद दोपहर आशियाना में ऐसी सीट मिल जाए जहां से रिज साफ़ दिखे तो कहने ही क्या! सामने सड़क में आते जाते लोग दिखते हैं। वे अपनी मस्ती में चले होते हैं। उन्हें नहीं पता कोई भीतर से देख रहा है।
ऐसे ही क्षण में जब शाम की लाली विदा ले रही थी, वह रिज की ओर से आती दिखी। टहनी सी झूलती पतली काया। अस्त व्यस्त सा लम्बा कुरता पहन रखा था उसने। बाल भी अस्त व्यस्त। रूखे सूखे। कन्धे पर मैला सा झोला जो कभी डिजायनर रहा होगा।
अरे!, ये तो रश्मि ही है। सौ प्रतिशत वही। ‘बीते दिन’ की मशहूर नायिका। मुख्य भूमिका थी उसकी ‘बीते दिन’ में। डीडी-टू में यह सीरियल पापुलर होने से बहुत दिन चला हालांकि उन दिनों में ग्यारह एपिसोड से कोई आगे नहीं बढ़ता था। सारा कण्ट्रोल दूरदर्शन मण्डी हाउस के पास था। मण्डी हाऊस के आसपास हमेशा रंगकर्मियों की भीड़ जमा रहती। एक तो विभाजन के दिनों की दास्तान, दूसरे मंझे हुए कलाकारों का जमावड़ा। एन0एस0डी0 से डिप्लोमा करने के बाद उसे थोड़ी स्ट्रगल के बाद कुछ आर्ट फिल्मों में रोल मिल गए। फिर डीडी-टू में अच्छा सीरियल शुरू होने पर एक लीड रोल। शिमला की कलाकार चन्द्रा के साथ उसकी दो तीन बार मुलाकात हुई थी जब वे एनएसडी की ओर से नाटक ले कर शिमला आए थे।
वह आशियाना के दरवाजे तक आई। कुछ पल ठिठकी। जैसे कुछ याद आ गया हो। फिर लगा भीतर आना ही चाहती है। आएगी तो पहचान ही लेगी हालांकि बीसेक बरस तो हो ही गए मुलाकात हुए। भीतर आती ही होगी। पुलकित हो गया अमित। लापरवाही दिखाते हुए व्यस्त सा दिखने का प्रयास करने लगा।
देर तक वह रेस्तरां का दरवाजा नहीं खुला। वह दाखिल नहीं हुई। इतनी देर में तो भीतर आ जाना चाहिए था। उतावले हो उसने उचक कर झांका तो पलट कर वापिस जा रही थी। अरे! ये तो चली गई!
अरे! यह क्या! ये तो चली गई। हतोत्साहित हो गया अमित। हालांकि इतने उत्साहित होने वाली बात भी नहीं थी। कई साल पहले हल्की सी मुलाकात करवाई थी चन्द्रा ने। तब तक वह स्टार नहीं बनी थी। बड़े इत्मीनान से बातें हुईं थीं, रगमंच, छोटे पर्दे और बड़े पर्दे को ले कर। तब वह कविता भी लिखती थी। कुछ साल बाद उसके कविता संग्रह ‘सोया हुआ मौसम’ के बारे किसी पत्रिका में पढ़ा था और यह भी उसकी किताब हाथोंहाथ बिक गई थी जबकि कविता की किताबें बिकती नहीं।
यहां इतने रंगकर्मी हैं, पहचाना कैसे नहीं किसी ने! पहले वाला समय होता तो उसका सड़क में चलना दूभर हो जाता। इतनी सैलिब्रेटी तो थी ही किसी समय।
याद है अमित को संघर्ष के दिनों में चन्द्रा के कहने पर यहां विभाग ने उसे कुल्लू में नाटक तैयार करने और खेलने के लिए अनुबन्धित कर लिया था। उसे कुल्लू ले जाने और पूरी व्यवस्था के लिए अमित की ड्यूटी लगी थी। अमित ने उसे सड़क के साथ एक होटल में ठहराया जहां कुछ समय बाद शहर के मनचले आवाज़ें लगाने लगे। रिहर्सल के बीच में ही जा कर अमित को एक दूसरे होटल में ठहराने का इंतजाम करना पड़ा।
फिर उसका एसपी से झगड़ा हो गया। जहां वह सुबह ग्राउंड में रिहर्सल करवाती थी उसके पास ही एसपी रेजीडेंस था। तड़के ही हूहा मचने से परेशान एसपी ने नाइट ड्रेस में आ कर उसे डांटा। वह उलझ गई। बात बढ़ गई और निदेशालय में शिकायती फोन आ गया। तब भी अमित ने कुल्लू जा कर रिहर्सल के लिए दूसरी जगह ढूंढी।
सामने चिनार से रंगीन पत्ते झरने लगे। पेड़ तो दूर था, पत्तों के गिरने का एहसास भीतर तक हो रहा था। चिनार के पुराने दो बड़े पेड़ों के पास दो और नये पेड़ भी लगा दिए गए थे जो अभी छोटे थे। नवजात ठण्ड और खुश्क मौसम में पत्ते जल्दी सूख कर लाल हो जाने से ज्यादा सुंदर लगते हैं।
जाने भी दो! ... के अंदाज़ में बुदबुदाया अमित और निश्ंचिंत हो बैठ गया। अब उतावलेपन की उम्र भी नहीं रही।
चाय में शूगरफ्री गोली डाली ही थी कि रश्मि अचानक दरवाजे में प्रकट हो गई।
‘‘आप! ... रश्मिजी! ... यहां कैसे! ... पहचाना नहीं!’’ एकसाथ कई सवाल कर दिए अमित ने।
वह पल भर चैंकी। फिर एकाएक हंस दी। जैसे एक झरना फूटा – कलकल ... कलकल ... कलकल। अमित जैसे पूरा का पूरा फुहारों से भीग गया।
‘‘पहचान लिया। आदमी बन गए हो।’’ वह फिर हंसी।
‘‘आदमी!’’चैंका अमित।
‘‘अरे! पहले लड़के से थे न! अब आदमी लग रहे मेचोयर जैसे। एकदम सुस्त, निकम्मे।’’ रश्मि हंसी।
वह खड़ी रही काफी देर, बैठी नहीं। रेस्तरां में आसपास लोग घूरने लगे।
‘‘बैठो-बैठो। चाय तो चलेगी। मैं भी दोबारा पी लूंगा। ये तो ठण्डी हो गई।’’ अधीर हो उठा अमित।
बैठी तो सही पर जैसे अनमने से।
‘‘ठीक है। बिना दूध, बिना शक्कर!’
अमित ने हाफ सैट चाय का आर्डर दे दिया।
‘‘आजकल क्या चल रहा है।’’ पूछ ही लिया अमित ने।
‘‘बस्स कुछ नहीं।’’ उसकी आंखों में एक ख़ालीपन सा छा गया।
‘‘फिर भी ... कुछ न कुछ तो चल रहा होगा। आप लोग चुप थोड़े ही बैठते हैं।’’
‘‘बस्स किसी अच्छे काम की तलाश में हूं। काम से तो मैं समझौता नहीं कर सकती। न मिले, कोई बात नहीं।’’
काली चाय डालते हुए एक वीराना सा छा गया उसकी गहरी आंखों में।
‘‘कब तक हैं यहां!’’
‘‘बस्स दो चार दिन। वाए.डब्ल्यू.सी.ए. में ठहरी हूं। कुल्लू जाना चाहती हूं कुछ दिनों के लिए ... वहां की वादियां, वह पहाड़ियां, वह दरिया, सब मेरी आंखों में रहता है।’’
‘‘अच्छा! कब जाना होगा! जब जाना हो बता देना। ठहरने की व्यवस्था करवा देंगे।’’
‘‘बड़ा खरा स्वभाव है आपका!’’ वह बोली।
भावविभोर हो गया अमित। गांव में लोग ऐसे ही बोलते थे। बड़ा खरा स्वभाव है, कोई मजाज नीं, मड़क नीं। मां से कोई दो मीठे बोल बोल ले तो फट कहती - बड़ा खरा है स्वभाव है, कोई अक्कड़ नीं, मजाज नीं, मड़क नीं।
‘‘एनएसडी में कैसे गए आप? नाट्य विद्यालय में तो कोई बिरला ही जाता है।’’
‘‘उठे और चले गए,’’ वह मुसकाई, ‘‘ स्कूल टाईम से ही नाटक वाटक का शौक रहा। मेरी मां मुझे बड़ा स्पोर्ट करती थी। मेरी मां पंजाबन थी। आपको पता है पंजाबी औरतें बड़ी धाकड़ होती हैं। वे अपने मरदों को भी धाकड़ बना देती हैं। अपने बड़े-बड़े लेखकों को देख लो। बच्चन, अश्क, निर्मल वर्मा कितनों की पत्नियां पंजाबी थीं।’’
‘‘और आपके पिता!’’
‘‘बाप पे क्यों जाते हो! बाप तो कहता था कहां कंजरखाने में जा रई है। कंजरी बनेगी क्या! नाक कटवाएगी पूरे खानदान का। आपने बाप से क्या लेना! अपना रिश्ता देना है क्या!’’
‘‘ना ना।’’ सिर झटका अमित ने।
वह हंसी और एकदम सीरियस भी हो गई।
अब कुछ बेचैन सी लग रही थी। आधी चाय छोड़ एकाएक उठ खड़ी हुई। “’मुझे जाना होगा’’, वह बुदबुदाई और उठ कर चली गई। कुछ क्षण ठगा सा रह गया अमित।
और बात आई गई हो गई।
पतझड़ और मी टू
काम में व्यस्तता की वजह से वह माल रोड़ नहीं आ पाया। दो तीन दिन में ही फिजां कुछ ऐसी हो गई कि पेड़ों के नीचे सूखे पत्तों का ढेर लग गया। सूखे, अधसूखे, मटमैले पत्ते। चिनार के पत्तों की रंगीनी गायब होने लगी। जरा सी हवा चलने पर पत्ते ही पत्ते भी चलने लगते। दो छोटे चिनारों के पत्ते पक कर तांबई हो गए थे।
चार पांच दिन बाद ऑफिस से छुट्टी के बाद मॉल आया तो अचानक रिज पर मिल गई। वैसे ही ढिलमुल कपड़े। सुस्त चाल। अपने में ही मगन। खिले हुए पीले गुलाब सी जिसमें रंग तो है, गंध नहीं।
‘‘आज कहां जनाब!’’ रास्ता रोकते हुए पूछा अमित ने।
‘‘ओह! आप हैं। पूरे आदमी दिखते हैं आप। डर लगता है।’’ वह चुप रहा।
‘‘देख रही हूं कुछ छोटे हो गए हैं।’’
‘‘छोटा! छोटा कैसे हो सकता हूं! अरे लम्बाई तो उतनी ही रहती है आदमी की। एक बार बढ़ने के बाद घटती थोड़े ही है। छोटा कैसे हो सकता हूं! इस उम्र में अब न और लम्बा हो सकता हूं और न ही छोटा।’’
‘‘पर कुछ तो है। आप छोटे लग रहे हैं तो लग रहे हैं, बस्स।’’ वह जैसे चिढ़ने लगी।
‘‘हां, पहले बाल थे। अब नहीं हैं। बालों से भी आदमी ऊंचा लगता है। पहले पतला भी था। पतला आदमी भी लम्बा दिखता है।’’
‘‘यही होगा। कुछ न कुछ अंतर तो है। सच कहूं तो आप वह लगते ही नहीं।’’
तभी हवा का तेज झौंका आया और ढेर के ढेर पत्ते उनके कदमों में आ गिरे।
‘‘कुल्लू जाना चाहती हूं। कहा था न। कहीं इंतजाम करवा दो। यहां, पोलन से मुझे एलर्जी हो गई है।’’
‘‘करवा दूंगा। रेस्ट हाउस में तीन दिन के लिए परमिट मिलता है। उसके बाद कहीं और देख लेना।’’
चाय ऑफर की तो आशा के विपरीत झट मान गई।
‘‘यहां आशियाना से बढ़ कर कोई और जगह नहीं है बैठने लिए। एकदम शांत। बाहर का सारा दृश्य जैसे रेस्तरां के अंदर आ जाता है। पेड़ तो नंगे हो गए हैं, पहाड़ों में ताज़ा बर्फ गिरी है। देखो, पहाड़ों का गोलाकार घेरा।’’ भीतर जाते जाते बोला अमित।
आशियाना में खिड़की वाली सीट मिल गई। चाय का आर्डर दे कर पूछा अमित ने:‘‘कुल्लू जा कर क्या करना है!’’
‘‘बस कुछ दिन चैन से रहना चाहती हूं। एकदम अकेली। दुनिया की ग़हमाग़हमी से दूर।’’ वह बाहर की ओर देखने लगी।
‘‘आत्मकथा लिखूंगी।’’
‘‘आत्मकथा! ये तो बहुत मुश्किल काम है।’’
‘‘मुश्किल कुछ नहीं। आदमी में गुर्दा होना चाहिए।’’
‘‘मी टू जैसी कोई चीज़ तो नहीं लिखोगी!’’ वह हंसा।
‘‘मी टू मैं क्या लिखूंगी। इतनी सैलीब्रेटी तो हूं नहीं। मी टू लिखने के लिए या तो खुद सैलीब्रटी होना चाहिए या जो मी टू करे, वह सैलीब्रेटी हो, तभी हंगामा होगा।’’
‘‘ऐसा क्या!’’
‘‘बिल्कुल ऐसा ही है। यहां रोज़ लेडीज़ के साथ मी टू होता है। कोई कहे भी तो क्या फर्क पड़ता है! जीतेन्द्र का मी टू किसी महिला ने वर्षों बाद याद किया यहीं शिमला के होटल में। इतने सालों बाद जब जीतेन्द्र साहेब बुढ़ा गए तो अख़बारों में हल्ला मचा। मचा कि नहीं मचा!’’
‘‘हां, मैंने भी पढ़ा। और यह भी सुना कि इतने सालों बाद पुलिस वालों ने वह होटल ढूंढ लिया।’’
‘‘अरे! पता नहीं आपको होटल के कमरे से मीटू की चद्दरें भी ले गए और फारेंसिंक लैब भेज दीं।’’
वह हंसने लगी तो हंसती ही चली गई।
उसकी आंखों में एक ग़ज़ब की चमक और गहराई थी। पलकें अप्रत्याशित रूप से लम्बी और घुमावदार। पुतलियों के किनारे कत्थई रंग के निशान। आंखों के इस आकर्षण से ही वह भावपूर्ण दृश्यों में बड़े-बड़े कलाकारों पर हावी हो जाती थी। आवाज़ में एक कसक तो थी ही। उस ज़माने में कैमरा देर तक चेहरे पर टिका रहता था। टीवी में यह और भी ज्यादा था। आज की तरह नहीं एक सेकैण्ड के फ्रेक्शन में ही कैमरा कहां कहा घूमता जाता है। आधी फिल्म हो जाने पर भी हीरोईन का चेहरा पता नहीं चलता। गीतों में तो बस केवल आकृतियां तेजी से कठपुतली की तरह हिलती हुई दिखती हैं।
इन्सान का चेहरा कैसा भी हो, आंखें ग़ज़ब का आकर्षण पैदा करती हैं। एक शक्तिशाली चुम्बक की तरह होती हैं आंखें। शायद तभी आंख मिलाना, आंखें चार होना जैसे मुहावरे बने हैं। ‘बीते दिन’ सीरियल में डायरेक्टर और प्रोड्यूसर ने बार बार नायिका की आंखों की प्रशंसा की थी।
आज भी बेशक उसके आधे बाल सफेद हो गए थे, आंखों में वही गहराई और चमक थी।
‘‘ठीक है। जब जाना हो, बता देना।’’ अमित ने ऑफर दी।
‘‘अभी बता रही हूं, परसों से करवा दीजिए।’’
‘‘पक्का....!‘‘
‘‘हां, बिल्कुल पक्का। मेरा मोबाइल नंबर लिख लो।’’
अमित ने अपना कार्ड उसे दिया और जैसे ही मोबाइल में नंबर भरा, वह एकाएक उठ खड़ी हुई।
अमित ने कुल्लू अपने जिला अधिकारी वशिष्ठ को फोन रेस्ट हाउस बुक करवा दिया।
बात आई गई हो गई।
और पतझड़
पन्द्रह दिन बाद जिला अधिकारी वशिष्ठ का फोन आया:
‘‘जनाब! आपने जिसे यहां ठहराया था, उसकी तीन दिन बुकिंग हुई थी। आज दो हफ्ते हो गए, उसने कमरा नहीं छोड़ा। पी0डब्ल्यू0डी0 से एसडीओ के फोन आ रहे हैं। वे मुझे तंग कर रहे हैं कि निकालो इसे। रजिस्टर कौन भरेगा! एसडीओ साहब आपको जानते हैं, इसलिए लिहाज कर रहे हैं। बताइए मैं क्या करूं!’’
‘‘उसे जा कर समझाओ कि तीन दिन से ज्यादा परमिट नहीं मिलता। कहीं होटल में बंदोबस्त कर ले।’’
दो दिन बाद एसडीओ वैद्य का फोन आ धमका। वैद्य क्लासफैलो था अमित का।
‘‘जनाब! आपने किसे ठहरा दिया। ये तो कमरा ही नहीं छोड़ रही। जनाना जात है, हम ज्यादती भी नहीं कर सकते नहीं तो सामान उठा कर बाहर फैंक देते।’’
‘‘ऐसा क्या! खैर चिंता न करिए। मैंने ऑफिस में वशिष्ठ को कहा है। वह कहीं और इंतजाम कर देगा।’’
‘‘मैं तो इसलिए कह रहा हूं ब्रदर! मुफ्त बदनाम हो जाओगे अगर ऐसी वैसी कोई बात हुई तो। केस बन जाएगा। औरत जात से आज के जमाने में बच कर रहना चईए। ऐसा न हो आख़री वक्त में खज्जल़ होना पड़े।’’
‘‘नहीं नहीं भाई मेरा उससे कोई लेना देना नहीं है। हमारा तो विभाग ही ऐसा है। इन्हीं लोगों से पाला पड़ता है। नाचने गाने वाले, नाटक करने वाले।’’
‘‘वो तो मैं समझ रहा हूं बिग ब्रदर! पर मुझे ये औरत ठीक नहीं लग रही। बात करो तो खाने को पड़ती है। कुल्लू में तो आपको पता है रोज दोचार लोग ड्रग्ज के मामले में पकड़े जाते हैं। मुझे तो लगता है ये नशे में रहती है। इसका संतुलन बिगड़ा हुआ है।’’
‘‘डोंट वरी। आज मैं वशिष्ठ को कहता इसे कहीं और शिफ्ट करा दे।’’
‘‘आई एम नॉट जोकिंग बिग ब्रदर! मुझे आपकी इंटेग्रेटी पर शक नहीं है। बट यू नो, आजकल सरकारी नौकरी में कौन सा इल्जाम कब लग जाएगा, कह नहीं सकते। कब आप नौकरी से बर्खास्त कर दिए जाओगे, पता नीं। आपको पता ही है अख़बार, मीडिया। ख़बर आ जाएगी। इस प्रकरण के तार संस्कृति विभाग के एक बड़े अधिकारी से जुड़ रहे हैं। यू नो दैट ब्रदर! बाल बच्चेदार आदमी हो। रिटायरमेंट के नजदीक बैठे हो। मुफ्त बदनाम हो जाओगे बिग ब्रदर!’’
मजाक मजाक में बहुत लम्बा भाषण दे डाला एसडीओ ने।
घबरा गया अमित। तुरंत जिला अधिकारी वशिष्ठ को फोन कर हिदायत दी फौरन किसी न किसी तरह इसे किसी होटल में शिफ्ट कर दो या कहीं भी जगह ढूंढो कि रेस्ट हाउस से निकले।
अगले ही दिन वशिष्ठ ने उसे नग्गर के पास एक गांव में रहने का प्रबन्ध कर दिया। वह वशिष्ठ की एसीआर में एक्सिलेंट देगा, ऐसा निश्चय किया।
फिर बात आई गई हो गई।
धूप कहां रहती!
सर्दियां पहाड़ों की चोटियों से धीरे धीरे उतरने लगीं घाटियों में। घाटियों में पसरती ठण्ड पेड़पौधों से हो कर घरों में घुसने लगी। जब सब ओर एक समान ठण्ड बंटने लगी तो एक दिन अचानक उसका फोन आया:
‘‘मैं बोल रही हूं।’’
समझा नहीं अमित यह मैं कौन है! ‘‘पहचाना नहीं ... आप कौन!’’
‘‘मैं बोल रही हूं भई!’’
‘‘मैं तो बकरी होती है ... आप कौन हैं!’’
‘‘अरे! मैं बोल रही हूं कुल्लू से ... पहचानते नहीं! कैसे आदमी हैं!’’
‘‘हां, हां! पहचान गया ... क्या बन रहा है। ठण्ड हो गई होगी।’’
‘‘बन तो कुछ नहीं रहा। बस अपनी कथा लिख रही हूं। अब चाह नहीं कुछ। मजे में हूं। अपने में ही मस्त।’’
‘‘ये तो बड़ी अच्छी बात है।’’
‘‘एक सपनीले घर में अनोखा कमरा लिया है। खिड़की के बाहर जैसे पेंटिंग टंगी दिखती है हर समय। तुम्हारे बंदे वशिष्ठ ने यह अच्छा काम करवा दिया। वह शर्माता बहुत है ठीक तुम्हारी तरह। नज़र ऊपर ही नहीं उठाता। तुम पहाड़िए शर्माते बहुत हो। तभी पीछे रह गए। अपनी पत्नी से भी शर्माते होगे, ऐसा लगता है। अच्छा, मेरी एक कविता छपवा देना। तुम्हारी भी एक सरकारी मेगेजीन है, उसी में सही। डाक से भेज रही हं, देख लेना।“
‘‘ओके’’ बोलते ही फोन कट गया।
अगले दिन डाक में टेढ़ी मेढ़ी लिखावट में उसकी कविता थी:
मेरी अरज सुनियो जी।
ठण्ड कहां से आती पहाड़ पर/
पानी कहां से पत्थर पर/
हवा कैसे बहती रहती/
धूप कहां रहती!
मेरी अरज सुनियो जी।
नदी क्यूं चली रहती/
आखिर जाती कहां! /
बादल क्यूं घूमता रहता/
पता बताता नहीं।
मेरी अरज सुनियो जी।
हवा में मैं घुलना चाहती/
पानी में बहना/
पहाड़ पर चढ़ना चाहती/
झरने में नहाना।
मेरी अरज सुनियो जी।
चाहूं मैं पहाड़ को दबाना/
नदी को रोकना हाथ से/
हवा को भरना चाहूं बाहों में/
चाहूं मैं देवदार पर चढ़ जाना/
देखना आसमान को आसमान से।
मेरी अरज सुनियो जी।
अमित ने कविता सरकारी संपादक को थमा दी, यह कह कि अगले अंक में छाप देना।
सिम सिम बरसती ठण्ड में बजती घण्टियां बात फिर आई गई हो गई।
सिम सिम बरसती ठण्ड में बजती घण्टियां
पहाड़ की सर्दियां जाते जाते भी लौट आती हैं। ठण्ड है कि जाती नहीं। जरा सी बारिश हुई नहीं कि ठण्ड हाजिर। ठण्ड न होने पर भी ठण्ड का एहसास बराबर बना रहता है। तभी पहाड़ के लोग गर्मी आ जाने पर भी कोट नहीं उतारते।
ऐसे ही हेमंत के दिनों में कुल्लू से वशिष्ठ का कान में फोन खड़का। वह गांव वालों से मिसबिहेव कर रही है। यहां तक कि अपने कमरे की छत से कभी कभी पत्थर मारती है। उसने कुल्लू आ कर डीसी से रिटन शिकायत की है कि उसे डराया धमकाया जा रहा है। उसके घर के आगे, उसकी आंखों के सामने जानबूझ कर बकरे काटे जा रहे हैं। कई तरह से उसे डराया जा रहा है। आप तुरंत आ जाईए सर। उसे यहां से किसी तरह ले जाईए।’’
घबरा गया अमित। कुछ तो उसे करना ही पड़ेगा। फट से कुल्लू का सरकारी टूअर बनाया और अगले दिन दोपहर तक जा पहुंचा।
वशिष्ठ भी परेशान था: ‘‘जनाब! उसने डीसी से शिकायत की है कि गांव वाले देवता के नाम पर बकरों की बलि दे रहे हैं। आपको पता ही है अभी ताज़ा ताज़ा हाई कोर्ट ने बलिप्रथा पर प्रतिबन्ध लागाया है। डीसी साहब कहते हैं हमें तो कार्रवाई करनी पड़ेगी।’’
‘‘ठीक है। मैं अभी जा कर देखता हूं क्या माजरा है। उसके मकान मालिक का पता बता दो।’’
अमित ने कहा और उसी वक्त नग्गर के लिए रवाना हो गया।
नग्गर से थोड़ा ऊपर, जैसाकि वशिष्ठ ने बताया था, मालिकेमकान डोलेराम उसे दुकान में ही मिल गया। जब से यहां विदेशियों की आवाजाही बढ़ी है गांव वाले उन्हें रहने के लिए कमरे देते हैं। नग्गर से ऊपर मनाली तक न जाने कितने ही विदेशी पुरुष व महिलाएं गांव में कमरे ले कर रहते हैं। पहले हिप्पी, फिर इजराइली और अब भारतीय भगौड़ों की शरणस्थली बन गई हैं ये वादियां। शायद इसीलिए रश्मि को भी आसानी से कमरा मिल गया होगा।
नग्गर कैसल के ऊपर इस दुकान में भांग की गंध फैली थी। एक हिप्पीनुमा विदेशी दुकान के बाहर बैंच पर पैर ऊपर रख कर ध्यान में आंखें मूंदे बैठा था। उसने ऊनी पाजामा और पुराना सा कोट पहना था।
डोलेराम अधेड़ उम्र का गठिला आदमी था। चेहरे पर बड़ी बड़ी मूंछें। ऊनी कोट और उसी ऊन का मोटा पायजामा पहने हुए था। पूछताछ और दुआसलाम के बाद डोलेराम ने ऊपर से नीचे तक देखा अमित को और पूछा - ’’आप कौन होते हैं मैडम के!’’
‘‘मैं ...! बस मैं इन्हें जानता हूं। शिमला आती रहती हैं। यहां कुल्लू में पहले भी रही हैं। ड्रामा करवाया था।’’
‘‘अच्छा! डिरामा तो अब भी कर रही हैं। कभी हंसती हैं, कभी रोती हैं। कभी सोयी ही रहती हैं, कभी सोती ही नहीं। कभी जोर जोर चिल्लाती हैं, कभी बोलती ही नहीं। कभी रात रात तक घर नहीं आतीं, यहां तो बाघ भालू का डर भी रहता है न। कभी घर से निकलती ही नहीं तीन तीन दिन ... इसके लच्छण ठीक नहीं लग रहे। आप किसी तरह ले जाईए म्हाराज।’’
‘‘इन्हें डरा धमका क्यों रहे होंगे लोग!’’
‘‘म्हाराज! इन्होंने तो हमें डरा दिया है। गांव वालों की शिकायत डीसी से कर दी है। प्रधान, पंचों की पेशियां लग रही है कुल्लू जा कर।’’
‘‘पर हुआ क्या ऐसा!’’
‘‘होना क्या! आप तो हिमाचली ही लग रहे हैं। पता है आपको आजकल फागली में देवते निकलते हैं और गांव गांव घूमते हैं। उनका रथ चलता है। घर घर जाता है। आजकल यहां टौणीदेवी आई हुई है। ऊपर महादेव के ठहरी है। यहां सब देवस्थानों में जा कर हाजरी रही है। लोग घरों में बुला रहे हैं। अब देवी तो बलि लेती है म्हाराज। जहां जाएगी, बलि मांगेगी।’’
‘‘टौणी! ... यानि बहरी है।’’
‘‘जी म्हाराज! यहां कई देवते हैं जो बहरे हैं ... कई गूंगे हैं ... ऐस्सा ही है म्हाराज।’’
‘‘हां, तो फिर क्या हुआ!’’
‘‘होना क्या! हमारे घर के ठीक सामने मन्दिर है। वहां आई देवी। दो बकरे कटे। मैडम खिड़की में बैठ देखी रही थी ... बस पागल हो गई। जोर जोर से लगी राड़ियां मारने। गाली गलौच शुरू कर दिया। बड़ी मुश्किल से सम्भाला म्हाराज!’’
डोलेराम अपने साथ ले गया अमित को।
हवा में सपनों का घर वह घर एक ढांक पर बना था। नीचे की चट्टान पथरीली और मजबूत थी जिसके ऊपर घर था। बना क्या जैसे ज़मीन पर बना कर ऊपर रख दिया था। लकड़ी का एक उड़नखटौला सा। जोर से धक्का दो तो हिलने लगे। घर में ऊपर की मंजिल में चारों ओर लकड़ी का बरामदा भी था जैसाकि यहां सब घरों में होता है। देवदार के भरेपूरे ऊंचे पेड़ नीचे धरती से उठ कर जैसे उसे चारों ओर से छूना चाहते थे। टहनी से झूले की तरह रस्सी लगा दो खिड़की से झूल जाओ। घर में जाने के लिए नीचे लकड़ी की एक सीढ़ी लगी थी। सीढ़ी क्या एक बड़ा लक्कड़ काट कर लटका दिया था नीचे से ऊपर। घर के ठीक सामने पेगोडा स्टाइल का देवी का काष्ठ मन्दिर।
डोलेराम बड़े इत्मीनान से लकड़ी की सीढ़ी पर चढ़ गया। बिना स्पोर्ट के लकड़ी की सीढ़ी चढ़ते हुए डर लगता है खासकर जिसे आदत न हो। अब न आदत थी, न हिम्मत रही थी। अमित सकपकाया, कहीं बेलेंस बिगड़ा तो नीचे। चढ़ा तो चढ़ा, गिरा तो गिरा। पहाड़ का वासी होने पर भी उसे भीरू न समझा जाए, यह सोच कर बंदर की तरह हाथों से पकड़ बेलेस बनाता हुआ कुछ जल्दी में ऊपर चढ़ गया।
दरवाजा खुला था। भीतर कमरा बड़ा था। एक चारपाई कोने में लगी थी। खिड़की के साथ बैठने को चबूतरा सा बना था। कमरे में अजीब सी गंध थी। एक कुर्सी पर मैला सा कम्बल रखा था। इधर उधर बेततरीब से कपड़े बिखरे थे। अंदर वाले कोने में गोल गोल पत्थरों का ढेर लगा था।
वह एक कोने में गद्दे पर मैले कपड़े सी पड़ी हुई थी। जैसे पुरानी किताब में सूखा हुआ फूल। या कूड़े में गिरा पुराना मोरपंख। या मन्दिर में रखा अनबजा शंख।
कमजोर तो पहले ही थी, अब और भी कमजोर हो गई थी। बाल उलझे हुए। आधे से ज्यादा सफेद। चेहरा भी पुरानी खुमानी सा सूख गया था। किसी भी एंगल से लगता ही नहीं था कि यह काया कभी किसी हीरोईन की रही होगी इतने स्तरीय और लोकप्रिय सीरियल की। चालीस पैंतालीस के बाद एकाकी औरतें कैसी हो जाती हैं! अधिकांश लगाने पहनने के प्रति, अपने शरीर के प्रति, अपने प्रति लापरवाह और बेपरवाह।
डोलेराम जोर से खंखारा: ‘‘मैडमजी! देखो, कौन आए हैं!’’
‘‘अरे! तुम! तुम यहां कैसे!’’ वह बैठे-बैठे ही चहकी। उसकी आंखें चमक उठीं।
‘‘आपको लेने आया हूं। दिल्ली से आपके भाई का फोन आया है। आपको तुरंत बुला रहे हैं।’’
‘‘भाई को मेरी याद कैसे आई! झूठ तो नहीं बोल रहे!’’
‘‘नहीं नहीं। झूठ क्यों बोलना! चन्द्रा ने बात करवाई, कोई इंर्पोटेंट फंक्शन है।’’
अमित का तुक्का ठीक बैठ रहा था, ‘‘कल रात की वोल्वो में सीट बुक करा दी है।’’
अमित ने एक बार फिर कमरे का जायजा लिया। एक स्टूल पर बहुत से कागज़ बिखरे पड़े थे जिनमें कुछ लिखा भी हुआ था।
‘‘ये पत्थर क्यों रखे हैं। दरिया से लाए हैं! इन पर पेंटिंग बनानी है क्या!’’
‘‘ये मैंने इन मूढ़ लोगों के लिए इकट्ठा किए हैं। कभी भी जरूरत पड़ जाती है। ये सजावट भी है और हथियार भी।’’
डोलेराम की बहू गर्मागर्म चाय और सूखी खुमानी ले आई।
‘‘आप का हमें पता नहीं था नहीं तो पहले ही खबर कर देते।’’ वह निश्ंचिंत सी होती हुई बोली।
कुर्सी से मैले कम्बल को हटा कर बैठ गया अमित। चाय बढ़िया थी। खुमानी बाहर से सूखी, भीतर से स्वादिष्ट थी। रश्मि भी आराम से चाय की चुस्कियां लेने लगी।
‘‘आप आ गए। अब हमारी जिम्मेबारी भी खतम हुई। ओहो!’’ बहु ने लम्बी सांस ली और चली गई।
‘‘कल दोपहर तक तैयार रहना। मैं लेने आऊंगा।’’
उसने सिर हिलाया जैसे सब कुछ पूर्वनिर्धारित था। उसे मालूम था, अमित लेने आएगा।
दरवाजे में डोलेराम उसे बाहर आने के लिए इशारा कर रहा था। अमित अनमने से उठ कर बाहर आया तो डोलेराम फुसफुसाया - ‘‘बस अब आप जाइए। हम इन्हें कल तैयार कर देंगे। दोपहर तक आ जाणा बे जरूर। देक्खणा, धोखा नीं करना। देवता का दोष लगेगा।’’
डोलेराम ने जैसे धक्के से अमित को बाहर कर दिया। वह बड़ी कठिनाई से लक्कड़ की सीढ़ी नीचे उतरा हालांकि डोलेराम उसे नग्गर कैसल तक छोड़ने आया जहां गाड़ी खड़ी थी।
अगले दिन दोपहर बाद नग्गर पहुंचा अमित तो देखा डोलेराम उसका बैग लिए नीचे उतर रहा था। लगता था वे होटल में बैठे थे और गाड़ी आते देख नीचे आ गए। रश्मि ने हिप्पियों की तरह बहुत खुली सलवार पहनी हुई थी। सिर पर यहां का पहरावा ढाठू और मुंह काली शाल से ढांप रखा था।
‘‘आओ यहां चाय पीते हैं।’’ अमित ने बैग ड्राईवर को पकड़ाते हुए नग्गर कैसल की ओर इशारा किया। डोलेराम हाथ जोड़ बिना पीछे देखे तेज़ी से ऊपर चढ़ गया।
देवी का नृत्य नग्गर कैसल कुल्लू के राजाओं का किला था, जिसे अब उसी रूप में रख कर हैरिटेज होटेल बना दिया था। कैसल की बाहरी दीवारें बड़े बड़े पत्थरों से और भीतरी धज्जी दीवार से बनी थीं जिनमें पत्थरों की चिानाई के बीच मोटे मोटे स्लीपर लगे थे। बड़ी बड़ी खिड़कियां, जहां से नीचे और ऊपर दूर दूर तक पहाड़ियां और बीच में बहती नदी दिखती।
प्रवेश द्वार के भीतर चैड़े आंगन के एक ओर छोटा सा लकड़ी का मन्दिर था। मन्दिर के आगे एक चैड़ा पत्थर जिसे पूजा भी जाता था। कुल्लू आने पर अमित नग्गर जरूर आता था।
अंदर आ कर चाय का ऑर्डर दिया ही था कि दूर देवता के बाजे की मधुर ध्वनि आने लगी। देवता का बाजा जब दूर बजता है तो बड़ा कर्णप्रिय लगता है।
रश्मि अभी ख़ामोश थी। बाजे की ध्वनि से उसके चेहरे पर अजीब से भाव आने लगे।
कुल्लू में देवताओं के बाजों की ध्वनि एक सी होती है। जब भी ध्वनि आती है, पता लग जाता है देवता रथ में सवार अपने कारिंदों सहित चला आ रहा है।
चाय ख़तम करते करते बाजों की ध्वनि करीब आती गई। रश्मि पर अजीब भाव आ जा रहे थे। थोड़ी देर बाद लगा जैसे देवता का रथ अपने कारिंदों समेत कैसल के द्वार से भीतर आ रहा है।
यह क्या! देवी का रथ तेज़ी से कैसल के भीतर घुसा और छोटे मन्दिर के चक्कर काटने लगा। रथ के साथ देवी का पुजारी धूप का कछड़ लिए चला था। गूर ने हाथ में सांकल पकड़ रखे थे। एकाएक रणसिंगा, तुरही, ढोल बजने लगे। एक आदमी लकड़ी से घण्टी बजा रहा था...टन्...टन्....टन्....।
देवी का रथ मन्दिर के आगे नृत्य करने लगा। रथ को उठाने वालों के माथे से पसीना चूने लगा।
हॉल में चाय पानी पी रहे सभी सैलानी बाहर बरामदे में आ तमााशा देखने लगे। टौणीदेवी का रथ लगातार मन्दिर के चक्कर काट रहा था और सामने आ कर नृत्य कर रहा था।
एकाएक रथ मन्दिर के द्वार पर आ कर रुक गया। पुजारी धड़छ से धूप दिखाने लगा। गूर ने अपने सिर के बाल खोल झुलाने आरम्भ कर दिए। तभी दो आदमी एक तगड़ा बकरा रस्सी से बांध भीतर ले आए। देवता का रथ बेकाबू हुआ जा रहा था।
पुजारी ने लोटे में पानी ले कर बकरे पर छिड़का। कुछ नहीं हुआ। एक बार और छिड़का। बाजा द्रुत गति से बजा। बकरा शांत खड़ा रहा। तीसरी बार जोर से छींटे मारे तो बकरे ने सिहर कर अपनी ऊन झाड़ी। ऊन से पानी की बूंदें अभी नीचे गिरी भी नहीं थी कि एक आदमी ने बकरे को दोनों पिछली टांगों से पकड़ा और दूसरे ने खण्डे से उसका सिर धड़ से अलग कर दिया। यह सब इतनी जल्दी हुआ कि बरामदे में खड़े लोगों को पता ही नहीं चला। सब अवाक् खड़े रह गए। जब बकरे का सिर छिटक कर नीचे गिरा और एक आदमी ने गर्दन के आगे बाल्टी में लहु इकट्ठा किया तो एक बंगाली सैलानी जोर से चिल्लाया :
‘‘रोको! रोको!! ... अरे! रोको भई!’’
दूसरा चीखा : ‘‘अरे! ये क्या कर डाला! ओ गॉड!! वेरी ब्रूटल!’’
रश्मि का चेहरा सफेद पड़ गया। उसे शायद उल्टी आ गई। वह बाथरूम की ओर भागी।
बकरे का तड़पता धड़ दबा कर पकड़ा हुआ था। दूर पड़ी मूंडी के कान अभी भी हिल रहे थे।
दो लोग फटाफट बकरे का धड़ और मुंडी उठा गेट से बाहर ले गए। गूर शांत हो गया था। पुजारी अभी भी धूप का धड़छ घुमा रहा था।
कुछ पूजा अर्चना के बाद देवता का रथ गेट से बाहर हो गया। देर तक दूर जाते बाजों की आवाज गूंजती रही।
जब देर बाद वह बाहर आई तो बाहर सब शांत हो गया था। फर्श पर गिरा खून एक आदमी ने धो डाला।
वह चुपचाप गाड़ी में पिछली सीट पर बैठ गई। रास्ते में वह कुछ नहीं बोली। वह भी ड्राईवर की उपस्थित में कुछ बोलना नहीं चाहता था। दिल्ली जा कर सब चेंज हो जाएगा। सब अच्छा लगेगा। चेंज इज ऑलवेज गुड यू सी, अमित ने दिलासा दिया।
वोल्वो तो शाम साढ़े सात तक पहुंचती थी कुल्लू। रश्मि को ऑफिस में वशिष्ठ के पास बिठा वह जरा ढालपुर मैदान में निकला तो बहुत हल्का महसूस कर रहा था। धूप सामने पहाड़ी की चोटी से जा चुकी थी। चैगान में नीम अन्धेरा छाने लगा था।
बड़ा मोर्चा फतह करने के बाद निश्ंचिंत हो सात बजे के करीब टूरिज़्म के कैफे में मजे से कॉफी पीने बैठ गया अमित। साढ़े सात बजे वशिष्ठ को फोन किया कि रश्मि को ले आए, वोल्वो का समय हो रहा है।
‘‘वह तो बाबा के साथ चलीं गईं आपके जाने के कुछ देर बाद।’’
‘‘बाबा! कौन बाबा!’’ चैंका अमित।
‘‘वही नाटक वाला जो नग्गर में रहता है। जिसने लम्बे बाल रखे हुए हैं।’’
‘‘जिसने इनके साथ कई साल पहले नाटक में पार्ट किया था, वह शेरू बाबा।’’
‘‘जी, वही सर। वहीं आर्ट गैलरी में काम करता है। उसने ही तो कमरा ले दिया था इनको।’’
‘‘अच्छा, बोर हो गई होगी। बैग यहीं पड़ा है!’’
“बैग तो बाबा ने उठा रखा था। कुछ बताया नहीं, आपके बारे में पूछा और चुपचाप बाहर चले गए।’’
‘‘बैग भी ले गए! तब तो यहीं आ रहे होंगे।’’
‘‘मैं तो घर आ गया हूं सर! आप कहें तो आ जाऊं!’’
‘‘नहीं, नहीं आप आराम करो। मैं भी आज ही मण्डी निकल जाऊंगा।’’
अन्धेरा पसरने लगा। सोचा, जल्दी आ जाए तो एक प्याला कॉफी ही पिला दूं। देखते देखते मनाली से आ कर बस कैफे के बाहर आ लगी। रश्मि और शेरू बाबा का कहीं नामोनिशान नहीं था। व्यग्रता में कुछ आगे तक देख भी आया अमित कि कहीं आते दिखें।
कुल्लू से बैठने वाली सब सवारियां बैठ गईं। कंडक्टर ने शोर मचाते हुए जोर से सीटी बजाई। वह फट से बस में चढ़ा और भीतर जा कर देखा। रश्मि की सीट नंबर सात ख़ाली थी।
बड़े आकार की वोल्वो जहाज की तरह धीरे धीरे मुड़ी और सरकने लगी। चारों ओर शून्य सा भरने लगा। कहीं दूर देवता के बाजे बजने लगे।
बस को जाते देख वह तेज़ी से पीछे चलता हुआ देवता के गूर की तरह हाथ हिलाने लगा।
इस बार बात आई गई हुई भी, नहीं भी हुई।
परिचय
24 सितम्बर 1949 को पालमपुर (हिमाचल) में जन्म। 125 से अधिक पुस्तकों का संपादन/लेखन।
वरिष्ठ कथाकार। अब तक दस कथा संकलन प्रकाशित। चुनींदा कहानियों के पांच संकलन । पांच कथा संकलनों का संपादन।
चार काव्य संकलन, दो उपन्यास, दो व्यंग्य संग्रह के अतिरिक्त संस्कृति पर विशेष काम। हिमाचल की संस्कृति पर विशेष लेखन में ‘‘हिमालय गाथा’’ नाम से सात खण्डों में पुस्तक श्रृंखला के अतिरिक्त संस्कृति व यात्रा पर बीस पुस्तकें। पांच ई-बुक्स प्रकाशित।
जम्मू अकादमी, हिमाचल अकादमी, तथा, साहित्य कला परिषद् दिल्ली से उपन्यास, कविता संग्रह तथा नाटक पुरस्कत। ’’व्यंग्य यात्रा सम्मान’’ सहित कई स्वैच्छिक संस्थाओं द्वारा साहित्य सेवा के लिए पुरस्कृत।
अमर उजाला गौरव सम्मानः 2017। हिन्दी साहित्य के लिए हिमाचल अकादमी के सर्वोच्च सम्मान ‘‘शिखर सम्मान’’ से 2017 में सम्मानित।
कई रचनाओं का भारतीय तथा विदेशी भाषाओं में अनुवाद। कथा साहित्य तथा समग्र लेखन पर हिमाचल तथा बाहर के विश्वविद्यालयों से दस एम0फिल0 व दो पीएच0डी0।
पूर्व सदस्य साहित्य अकादेमी,
पूर्व सीनियर फैलो: संस्कृति मन्त्रालय भारत सरकार, राष्ट्रीय इतिहास अनुसंधान परिषद्, दुष्यंतकंमार पांडुलिपि संग्रहालय भोपाल।
वर्तमान सदस्यः राज्य संग्रहालय सोसाइटी शिमला, आकाशवाणी सलाहकार समिति, विद्याश्री न्यास भोपाल।
पूर्व उपाध्यक्ष/सचिव हिमाचल अकादमी तथा उप निदेशक संस्कृति विभाग।
सम्प्रति: ‘‘अभिनंदन’’ कृष्ण निवास लोअर पंथा घाटी शिमला-171009. ईमेल: vashishthasudarshan@yahoo.com
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