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  • सुदर्शन वशिष्ठ

प्रेत मुक्ति


किसी लंगड़ी बुढ़िया की तरह खड़ी थी यह बिल्डिंग।

धज्जी दीवार की बनी पुरानी बिल्डिंग पिछली ओर एक तरफ से बैठ गई थी। अंधेरे में लगता कोई लंगड़ी औरत पुरानी धोती पहने खड़ी है। बिल्डिंग में क्रासवाइज लकड़ियों के बीच पत्थर जैसे फंसाए गए थे। सभी दीवारों में छत तक ऐसे ही क्रास बने थे। चारों ओर से लकड़ी का शिकंजा कसा था अतः कई साल से लंगड़़ी होने पर भी गिरी नहीं। ऐसी पुरानी इमारतें आसानी से गिरती नहीं हालांकि देखने से लगता है, अब गिरी कि अब गिरी।

मुख्य अस्पताल की बहुमंजिली नयी बिल्डिंग के पीछे अभी इसे गिराया नहीं गया था। बहुत साल पहले जब अस्पताल की मुख्य बिल्डिंग भी ऐसे ही लकड़ी की इमारत थी, इसे मार्चुअरि के तौर पर भी इस्तेमाल किया जाने लगा। तब आधुनिक मार्चुअरि नहीं होती थी और न ही लोग मृतकों को अस्पताल में ठण्डा होने देते थे। बीमार के साथ एक दो तीमारदार दिनरात सदा बने रहते। तथापि मजबूरियों के चलते सम्बन्धियों के आ जाने तक बाॅडी को कुछ समय मुख्य अस्पताल से अलग इस बिल्डिंग में रख दिया जाता था। नया अस्पताल बन जाने पर कोई उस तरफ दिन में भी नहीं जाता था।

लकड़ी की इस पुरानी बिल्डिंग में बाहर लम्बा बरामदा था। भीतर बड़े बड़े मेज़ रखे थे जिनमें पर वे शव रख दिए जाते जिन्हें देरी से ले जाने की सम्भावना होती वरना स्ट्रेचर बाहर बरामदे में ही रख दिया जाता जहां से चंद मिनटों में शीघ्रता से सम्बन्धी ले जाते।

कभी यह चर्मरोगी वार्ड भी रहा। तब भी इसे अछूत समझा जाता था।

आईसोलेशन वार्ड, कोविड वार्ड भी मार्चुअरि की तरह दूर एकाकी भवनों में बनाए जा रहे थे जहां इन्सान की पहुंच न हो। पहले कोढ़ियों के अस्पताल भी ऐसी ही सुनसान जगहों में होते थे, जहां कोई जा न पाए। ऐसे ही टीबी के लिए सेनोटोरियम बनाए जाने लगे जहां चीड़ का जंगल हो और आसपास कोई बस्ती न हो। कोढ़ और टीबी जैसी बीमारियां भी इतनी छूत की नहीं थीं जितना यह कोरोना का वायरस था जो आदमी को छू देने ही नहीं, पास बैठने भर से दूसरे में प्रवेश कर जाता। आदमी को पता ही नहीं चल रहा था और यह भी ज्ञात नहीं कि कौन कोरोना पाजिटिव है। बहुतरे भले चंगे दिखने वाले भी पाजिटिव थे जिन्हें बुखार या खांसी कुछ नहीं। ऊपर से कोई दवाई नहीं, ईलाज नहीं।

क्योंकि कोविड वार्ड अछूत की तरह जनबस्ती से दूर, अकेले में होना चाहिए अतः किसी कोरोना योद्ध बने कुशाग्रबुद्धि अधिकारी ने इस पुरानी बिल्डिंग की ओर ध्यान दिलाया। यह दूर भी थी और मुख्य अस्पताल के पास भी थी। आननफानन में इसकी साफ सफाई करवा कर बीस बिस्तर लगा दिए गए।

आदमी की तरह कोई कोई भवन भी बहुत अशुभ और दुभाग्र्यपूर्ण होता है। उसके हिस्से अनहोना ही आता है। कई बड़ी बड़ी बिल्डिंगें सुनसान पड़ी रहती हैं जहां कोई भी रह नहीं पाता। इनके बारे में कई घोस्ट स्टोरीज बन जाती हैं। अब अपने जीवन के अंतिम दिनों में इसके भाग्य में दुभाग्यपूर्ण कोविड वार्ड बनना बदा था।

हालांकि इस अतीत को अब कम लोग जानते थे तथापि दबी ज़ुबान में बातें तो होती ही रहतीं। अब यहां नीचे चूहे रहते और छत की कड़ियों में कबूतर। रात को दीवारों पर चमगादड़ चिपक जाते। इस की साफ सफाई करने में बहुत मेहनत लगी फिर भी रंगरोगन के बाद नए सफेद चादर सिरहानों वाले बेड लगने पर प्रैस रिलीज के लिए फोटो लेने काबिल हो गई।

मुख्य भवन में गेट पर ही रोक दिया सिपाही ने देवराज को.......बस्स। आगे कोई नहीं जा सकता। कोविड वार्ड में मरीज ही जाएगा। एंबूलेंस को ब्रेक लगा वहीं उतार दिया देवराज को।

पिता का बैग उसने उठा रखा था जिस में रात के कपड़े, नज़र की ऐनक, ब्रश बगैरह था। चलती बार मां ने पनीर डाल ब्रेडपीस भी पैक कर दिए थे, कभी भूख ही लगे तो खा लिए, वहां पता नहीं कैसा खाना मिलेगा और कब मिलेगा, सुना था टैम का खाना नहीं मिल पाता है। यहां तक कि पानी भी नहीं मिलता।

कोरोना वार्ड की एक बदरंग तसवीर आई थी इन दिनों। भीतर मोबाइल नहीं ले जाने देते फिर भी अंदर के कई वीडियो वायरल हुए जो एक अव्यवस्था की तसवीर दिखाते। ज्यादा बुरे हाल उन मरीजों के थे जो बुजुर्ग थे, दूसरी बीमारियों से पीड़ित थे। वार्ड के भीतर डाक्टर तो दूर नर्सें भी नहीं जातीं। क्लास फोर सफाई कर्मचारी ही दरवाजे तक जा कर दवाई वगैरह रख देते।

सिपाही ने बैग देवराज के हाथ से ले लिया। पिता ने कातर नज़रों से उसे देखा। नज़रों से ओझल होने से पहले उन्होंने एंबूलेंस के भीतर उठ कर बैठते हुए अपनी कमजोर बांह हिलाई।

वापसी पर देवराज ने देखा आज भी एक किनारे कोरोना टेस्ट के लिए लम्बी लाइन लगी थी।

परसों पिता इसी तरह की लम्बी लाइन में खड़े हुए। सुबह उनके पहुंचने से पहले ही लोग लाइन में अपना मोर्चा सम्भाल खड़े हो गए थे।

पिता खांसी और श्वासी के पुराने मरीज थे। कभी बहुत बीड़ी सिगरेट भी पीते रहे। खांसी तो गर्मियों में भी नहीं जाती थी। जरा सा चलने पर सांस धौंकनी हो जाती। सर्दियों में यह तकलीफ बढ़ना लाजिम था। इस बार भी सर्दी आते ही खांसी बेकाबू होने लगी। हल्का बुखार भी रहने लगा। वैसे तो ऐसा हर सर्दी में होता था मगर इस बार तो कोरोना वायरस ने दस्तक दे रखी थी। लाक डाउन के बाबजूद कोरोना का कहर थम नहीं रहा था। आए दिन आसपास के इलाके से पांच सात केस जरूर आते। कोई आदमी उन घरों की ओर से नहीं जाता जहां कोई संक्रमित हुआ हो। एंबूलेंस की आवाज आए तो सभी चैकन्ने हो जाते।

तीन दिन बुखार नहीं उतरा तो पिता को अस्पताल ले जाने की नौबत आ गई। सभी अस्पतालों में कोरोना के कारण ओपीडी बंद कर दी गई थी। लोग भी केवल एमरजेंसी में ही जा रहे थे। इस अस्पताल में भी कई मरीज, कर्मचारी और डाक्टर कोरोना की चपेट में आ गए थे। एक डर और भी फैल गया था कि जो भी बीमारी हो, दवाई लिखने से पहले डाॅक्टर पहले कोरोना टेस्ट के लिए भेज रहे थे।

अस्पताल आ कर पता चला कि खांसी जुकाम वालों की अलग ओपीडी बना दी थी जिसमें जाने से पहले कोरोना टेस्ट जरूरी था। पर्ची बनाने वाले ने यह हिदायत दे दी कि पहले कोरोना टेस्ट कराइए, फिर ही कोई देखेगा।

हालांकि वे सुबह ही आ गए थे, टेस्ट के लिए एक लम्बी लाइन लग चुकी थी। कुछ समय खांसी जुकाम वाली ओपीडी में लग गया। सोशियल डिस्टेंसिंग के लिए एक कर्मचारी हिदायत दे रहा था जबकि सब लोग आगे आगे होने की होड़ में थे। पिता को बहुत पीछे जगह मिली। यहां सीनियर सिटीजन के लिए अलग लाइन नहीं थी। अतः पिता को बैंच पर बिठा खुद लाइन मे लग गया देवराज।

लाइन में लगे लोगों की हालत देख लग रहा था कि अधिकतकर पहले ही कोरोना पाजिटिव हैं। ऐसे में किस को किस से वायरस लग जाए कोई गारंटी नहीं। ज्यादातर लोग खांस रहे थे, जगह जगह थूक रहे थे। बहुतों को बुखार था। वैसे भी इस अस्पताल में डाक्टर से ले कर नर्स और कर्मचारी तक पांच दस लोग रोज पाजिटिव आ रहे थे।

आखिर कोई डेढ़ घण्टे बाद बारी आई तो फट से बुला लिया देवराज ने पिता को।

‘‘रिपोर्ट का कल पता कर लें, वैसे परसों तक आएगी।’’ एक कर्मचारी ने, जो ‘कोरोना वारियर’’ लग रहा था, रौब से हिदायत दी, ‘‘अगर पाजिटिव आई तो आपको घर से लाना पड़ेगा। अभी सब घर में इनसे दूर रहिए।’’

‘‘आप भी घर नहीं बैठते। कई बार कहा, घर बैठा करो तो सड़क में चले रहते हैं। सब ने सुबह सैर करना तक बंद कर दी है।’’ डांटा बेटे ने तो अपने को कसूरवार समझने लगे देसराज......सब के लिए मुसीबत बन गए, क्या करें! मन ही मन बहुत को्फ्त हुई। शारीरिक दूरी तो पहले ही कम थी, अब मन की दूरियां भी बढ़ गईं। पत्नी से तो थे ही, बच्चों से दूरी भी बना ली।

लग रहा था कि पिता पाजिटिव ही आएंगे अतः दो दिन तक पता करने गया ही नहीं देवराज। तीसरे दिन सुबह ही अस्पताल से किसी कोरोना योद्धा का फोन आ गया:

‘‘आप की रिपोर्ट पाजिटिव है। आपको लेने एंबूलेंस आ रही है, तैयार रहिए।’’

पिता को घर में रखना सम्भव नहीं था। दो कमरे का घर। साथ में दो छोटे बच्चे। एक गोद में दूसरा खड़ा होने काबिल हुआ अभी अभी। जब से टेस्ट हुआ था, सभी दूर दूर रह रहे थे। कहीं सभी संक्रमित हो गए तो! कई घरों में ऐसा हुआ है।

फोन के तुरंत बाद एंबूलेंस भी आ गई। मां को खाना बना कर देने का टाईम भी नहीं मिला.......जल्दी में रात के ब्रेड पीस ही बांध पाई। पता नहीं वहां कैसा खाना मिलेगा! अस्पताल का खाना तो वैसे ही बेस्वाद होता है। बुखार के कारण इनके मुंह का स्वाद भी चला गया है।

पिता ने हिम्मत नहीं हारी थी। खांसी बुखार होने पर भी चैतन्य थे। जाते हुए सब को दिलासा दे कर गए कि जल्दी लौटूंगा, बहू को आशीर्वाद दिया, बच्चों को दूर से पुचकारा।.....कुछ नहीं ये खांसी जुकाम का ही रूप है, चिंता न करो तुम लोग। ये जुकाम ही है और कुछ नहीं।

‘‘हां, ले मेरा एटीएम कार्ड रख ले, क्या पता होता है! वैसे भी वहां कहां सम्भालता फिरूंगा।’’ पिता से बाहर कम आया जाया जाता था अतः ज्यादातर देवराज ही उनका कार्ड आपरेट करता था।

उनका सामान लिए एंबूलेंस में आगे बैठ गया था देवराज।

कोरोना का कहर शुरू ही हुआ था तो पहली बार कुछ आदमी आए थे इस अस्पताल में। उन का एंबूलेंस से उतरते और कोरोना वार्ड की ओर जाते किसी ने वीडियो भी बना डाला, हालांकि रात का वक्त था। वे सब भलेचंगे दिख रहे थे। जब संक्रमण बढ़ गया तो आसपास के इलाकों से लगातार मरीज आने लगे और कोरोना वार्ड भर गया। रोज एक दो मरने भी लगे। कोरोना वार्ड का रास्ता अब ऊपर से बंद कर दिया गया जो सीधे नए अस्पताल से जुड़ा था। उधर से आने जाने की भी मनाही हो गई और पुलिस पहरा लग गया।

ढूंढने वाले रास्ता ढूंढ ही लेते हैं। नीचे को पतली सीढ़ियां उतरती थीं। बहुत नीचे उतर कर एक पगडंडी सी थी जिस पर आगे चल कर ऊपर चढ़ने पर बिल्डिंग के पिछवाड़े पहुंचा जा सकता था।

पिता बैग में अपना मोबाइल स्विच आफ कर ले गए थे, वैसे मोबाइल ले जाना मना था। कई मरीज भीतर से वीडियो बना कर भेज रहे थे जो वायरल हो सरकार की छवि धूमिल कर रहे थे। मरीजों को खाना खिलाने वाला कोई न था। जो बाथरूम नहीं पहुंच पा रहे थे उनकी साफ सफाई करने वाला कोई न था। कुछ मरीजों की तो आक्सीजन मास्क खुल जाने से ही मौत हो गई क्योंकि वे दोबारा लगा न सके। सामने सामने दम तोड़ने पर दूसरे मरीजों पर बुरा असर पड़ रहा था। मृतक को एकदम उठा कर ले जाने वाला कोई न था। वैसे भी कोई शाम को दम तोड़ दे उसे कमेटी कर्मचारी दूसरे दिन दोपहर तक ही अंतिम संस्कार के लिए ले जा पाते थे। उसकी बाडी जिंदा बचे मरीजों के बीच ही पड़ी रहती। कुछ समय घर से किसी के आने का भी इंतजार किया जाता। मर जाने पर कभी कोई भी सम्बन्धी पास नहीं फटक रहा था। लोग मोबाइल काट देते। ऐसे में जल्दी ही यह वार्ड भूत प्रेतों की सुनी सुनाई कहानियों की तरह कई अफवाहों का केन्द्र बन गया।

दूसरे दिन पिता ने बताया कि यहां खाना बहुत बेकार है। गले से नीचे नहीं उतरता। कभी टाईम का नहीं मिलता। कभी कभी तो तीन चार बज जाते हैं। फोन की बैटरी इसे स्विच आफ कर बचा रहा हूं। चार्ज करने का साधन नहीं है। पहुंचा सको तो ढंग का खाना पहुंचा दो, सफाई कर्मचारी कुछ लोगों के खाने के डिब्बे ला रहे हैं।

मां ने बड़ी लगन से पिता की मनपसंद पनीर की रसदार सब्जी और सूखी गोभी बनाई। घी लगा कर नरम चपातियां साफ कपड़े में लपेट दीं कि भात तो ठण्डा खाया नहीं जाता।

पिछली ओर सीढ़ियां उतर ऊबड़ खाबड़ झाड़ियों में पहुंचने में वक्त लग गया देवराज को कि उसे एक ओर आदमी दिखा जो हाथ में बाकायदा टिफन लिए खड़ा था।

‘‘खाना ले कर आए हैं!’’........उसने पूछा तो खिल उठा देवराज।

‘‘यहीं रूको।.....जमादार यहीं आएगा अभी। उसकी ड्यूटी लगी है साफ सफाई की। दवाई वगैरह भी वही देता है। डाक्टर, नर्स तो कोई फटकता वहां......कुछ पैसे देना इसे, भीतर ढंग से पहंुचा देगा। नहीं तो पता भी नहीं चलेगा मिला कि नहीं मिला।’’ उसने फुसफुसाते हुए कहा।

थोड़ी देर में पारदर्शी प्लास्टिक पहने एक व्यक्ति बिल्डिंग के पिछवाड़े से निकला। उसने विकेटकीपर की तरह मुंह पर भी शिकंजा कस रखा था। खासा लम्बा चैड़ा, जो सच में योद्धा लग रहा था।.......असली कोरोना योद्धा यही हैं, उस आदमी ने कहा।

‘‘लै आए....!’’ उसने टिफन हाथ में पकड़ लिया। देवराज का इशारा समझ वह बोल उठा:

‘‘तुंसी भी!......की नां है जी मरीज दा!’’

‘‘देसराज शर्मा..... जी ,मेरे पिता जी हैगे, पतले जेहे बुजुर्ग। बेड नम्बर ता पता नीं।’’

‘‘अच्छा! कल दोपहरीं ही आए जेहड़े! बड़े परेशान ने बचारे। खंग लगदी ते साह नी फिरदा।’’

‘‘आहो। आहो। ओ ही।’’ उत्साहित हो गया देवराज, ’’एह रक्खो।’’ देवराज ने सौ का नोट उसे थमा दिया।

‘‘ओ रैहण देओ मालको।’’ योद्धा ने कहा।

‘‘ख्याल रख्यिो म्हाराज!’’ हाथ जोड दिए देवराज ने।

‘‘तुसीं चिंता न करो......इत्थे कोई पुच्छण वाला नईं है जनाब!। न कोई आंदा, न कोई जांदा। रब्ब ही राक्खा है मालको। बच गए तां अपणे भाग। चले गए तां अपणे भाग।’’

वह खाना ले कर चला गया तो तसल्ली हुई देवराज को। ‘‘ये जगतारा है। वाल्मिकि मुहल्ले में रहता है। इसका भाई करतारा है। दोनों की यही ड्यूटी है। ठीक होने में टाईम लग रहा है। पता नहीं कितने दिन और लगेंगे और नतीजा क्या होगा। इन से इनके मुहल्ले में जा कर मिल लेईयो। बाथरूम आना जाना है। कपड़े बदलने हैं। कभी आक्सीजन मास्क खुल जाता है। मरीज तो खुद नहीं कर पाएगा। कौन करेगा ये सब!......सुख दुख सौ बात होती है। टैम बड़ा खराब है। बुरा टैम आते देर नहीं लगती।’’ उस भले आदमी ने हिदायत दी।

अगले दिन पिता का मोबाइल बंद हो गया। वैसे भी हालचाल पूछने बताने के अलावा कोई बात नहीं हो पाती थी। चार्ज कितने दिन चलता! पहले तो घबरा गया देवराज कि पिता फोन नहीं उठा रहे, पता नहीं क्या बात होगी। शुक्र था कि अख़बारों में आने से और हल्ला मचने पर एक हेल्पलाइन लगा दी थी अस्पताल वालों ने जिस पर फोन कर मरीज का हाल जाना जा सकता था। बहुत बार मिलाने के बाद हेल्पलाइन पर बात हो गई और पता चला कि डी0आर0 शर्मा और देसराज दो पेशेंट हैं। डी0आर0 शर्मा नाम के कोरोना पेशेंट को आक्सीजन लग गई है पर दोनों ठीक हैं।

घर में अब दहशत का माहौल था। पिता से बात हो जाने पर वातावरण हल्का हो जाता था। मां भी प्रफुल्लित हो घर का काम काज तेजी से करती। देवराज भी रिलेक्स्ड महसूस करता। मां ने पिता के सारे कपड़े धो कर प्रैस कर करीने से रख दिए। उनके बिस्तर में धुली चादरें बिछा दीं। थोड़ी ठण्डक होने लगी थी अतः रजाई भी निकाल कर धूप में सुखा दी।

आजकल कोई किसी के आता जाता न था। इस घर में तो कोरोना पाजिटिव निकला था अतः सब ने एक दूरी बनाई हुई थी। बाहर कोविड-19 का पोस्टर चिपका था। जरूरी सामान फोन से मंगवाया जाता जो सीढ़ियों में छोड़ दिया जाता। कभी कोई पड़ौसी फोन पर हाल पूछ अफसोस प्रकट कर देता।

देवराज चोरी से बाहर निकलता कि कोई देख न ले। पड़ौसी पुलिस में शिकायत कर दे रहे थे कि ये लोग बाहर घूम रहे हैं।

अभी और दिन लगेंगे, यह सोच थोड़ा अंधेरा होने पर तीन किलोमीटर दूर वाल्मिकि मुहल्ले में जा पहुंचा देवराज। जगतारे का घर पहले ही था, सो आसानी से मिल गया। जगतारा ड्यूटी पर था, उसका भाई करतारा घर पर मिल गया।

‘‘हां जी!....दस्सो!’’ करतारे ने दरवाजे पर खड़े हो पूछा। उसे पता था घर के भीतर तो ये आएंगे नहीं।

‘‘कौण है करतारेया!’’ भीतर से किसी महिला की तीखी आवाज आई।

‘‘मैं गल्ल कर रिहां हां, तूं कम्म कर आपणा।’’

‘‘मेरे पिता जी देसराज कोविड वार्ड में हैं। आज पांच दिन हो गए। बड़ी तकलीफ में हैं। सुनते हैं, वहां बहुत बुरा हाल है। खाना तो मैं आपके भाई जगतारे के पास दे आता हूं। सुना है आपकी ड्यूटी भी वहीं है......तुसीं ख्याल रखणा।’’

हाथ जोड़ दिए देवराज ने।

‘‘ठीक है जी। तुसीं चिंता न करो। साह्डे ते जितना हो सकेगा, करांगे। बाथरूम लै जाणा, लियाणा, साफ सफाई, रोटीपाणी। तुसीं फिकर न करो।’’

देवराज ने पिता के एटीएम से दो हजार निकाले थे, सो पांच सौ का नोट थमा दिया जगतारे को।

‘‘क्यूं शर्मींदा कर रहे हो जी.... साह्डा ता कम्म ही एहो है। अजकल ता सारा कम्म साढे उत्ते ही आ गिया है वार्ड तों लै के आखरी निपटारे तक......चिंता न करो।’’

एक राहत महसूस की देवराज ने। अंधेरा होने लगा था। घर आ कर उसने मां को तसल्ली दी कि काम हो गया है। उसे कुछ पैसे भी दे आया। वे दोनों भाई वहीं हैं, देखरेख करेंगे।

उस रात अच्छी नींद आई सब को।

अगली सुबह उठा ही था देवराज कि मोबाइल बज उठा। उसका दिल बैठ गया। सुबह ही कौन फोन कर रहा है।

‘‘आप डी0आर0 के घर से बोल रहे हैं!’’ उधर से आवाज आई।

‘‘जी, डी0आर0 शर्मा.....आप कौन!’’

‘‘मैं कोविड वार्ड से बोल रहा हूं। देखिए डी0आर0 नहीं रहे। सुबह पांच बजे उन्होंने अंतिम सांस ली। प्रोटोकोल के अनुसार आपको इंफार्म करना जरूरी है। ग्यारह बजे तक यहां आ जाइए या बारह से पहले सीधे ‘महाकाल मुक्तिद्वार’ आ जाइए अंतिम दर्शन के लिए। न आना हो तो भी हमें बता दीजिए।’’

‘‘डी0आर0......देसराज नाम है पिताजी का।’’ रूआंसा हो गया देवराज।

‘‘हां भई डी0आर0 का देसराज ही हुआ न!’’ उसने रूखी आवाज़ में कहा।

एकदम सन्न रह गया देवराज। कल ही तो जगतारे को पांच सौ दे आया था। मोबाइल नम्बर भी दिया था। उसने कोई सूचना नहीं दी।

घर में रोनाधोना मच गया। रोने वाली तो मां ही थी। बहू भी साथ देने के लिए रोने लगी।

इस संकट के समय में अब घर में तो कुछ नहीं होना था। जो चला गया, सो चला गया। समय ही ऐसा है, जो गया सो गया। जिंदा आ गया तो आ गया, मुर्दा नहीं आएगा।

भले दिनों में सब से पहले सभी रिश्तेदारों, जानने वालों को फोन किए जाते थे। करीबी रिश्तेदारों का तो रात-रात भर इंतजार किया जाता। दो महीने से लाकडाउन के कारण दफतर भी बंद था देवराज का तथापि कुछ निजि रिश्तेदारों और खास साथियों को फोन कर दिए। सभी फोन पर ही अफसोस करने के सिवा लाचार थे। अंतिम संस्कार में तो एक ही करीबी रिश्तेदार को बुलाया जाएगा। वह भी दूर खड़ा रहेगा। टेलिविजन पर ऐसे दृश्य रोज देख रहा था देवराज। बड़े से बड़े आदमी के मरने पर भी मुश्किल से एक दो लोग दूर खड़े दिखाए जाते।

ऐसे में कोई नहीं आ पाएगा, मां ने सिसकते हुए कहा।.....आप भी दूर ही रहना, पत्नी फुसफुसाई।

‘‘दान पुन्न भी नहीं हो पाया। ऐसे ही चले गए खाली हाथ।’’ मां सिसकी और देवराज को चंदन के दो टुकडे़ पकड़ाए:‘‘डाल देना, यही है अब।’’

मुंह पर काला मास्क लगाए, काला पट्टू लपेटे पैदल ही चल दिया देवराज। बसें, टेक्सियां बंद थीं। रास्ते की छोटी मार्केट में एटीएम दिखा तो इधर उधर देखते हुए फट से भीतर चला गया। पिता के कार्ड से दो बार दस दस हजार निकाले और पिछली जेब में सम्भाल कर रख लिए.....हरिद्वार तो जाना ही होगा, यहां तो कुछ नहीं हो पाएगा। लगे हाथों बेलेंस भी देख लिया, अभी ब्यालीस हजार शेष थे।

तभी अस्पताल से एक और फोन आ गया कि मुक्तिद्वार पहुंच रहे हैं न, तभी हम बाडी को लाएंगे।

‘महाकाल मुक्तिद्वार’ सड़क के साथ ढलानदार जगह में था जहां सड़क में खड़े हो कर ऊपर कुछ नहीं दिखता था। सड़क में एक औरत और दो तीन आदमी खड़े थे। उनके मैले कपड़े और रोनी सूरतें देख लग रहा था मृतकों के रिश्तेदार होंगे। प्लास्टिक की किट पहने एक योद्धा दूर खड़ा उनसे कुछ पूछ रहा था। देवराज को आते देख उसने पूछा कि किस के लिए आए हैं।

‘‘सुबह फोन आया था......देसराज.....डी0आर0 शर्मा।’’

‘‘डी0आर0......देसराज ही हुआ न।.....मैंने ही फोन किया था। इनका सामान रखा है अस्पताल में, कभी जा कर ले जाना।’’

गेट से झांका तो दो चिताएं जल रही थीं। प्लास्टिक में लिपटे दो शव अभी वेटिंग में रखे थे। मरने वालों की संख्या ज्यादा होने पर वेटिंग में रहना पड़ रहा था।

पिताजी कौन से होंगे, कहीं अंतिम संस्कार शुरू तो नहीं हो गया! आशंकित हो गया देवराज।

गेट के भीतर जाने को हुआ देवराज तो प्लास्टिक वाले योद्धा ने रोक दिया..... अभी ऊपर नहीं जा सकते। बस दूर से ही देखिए....कौन थे आपके!’’

‘‘जी, पिताजी थे।‘‘ रूआंसा हो गया देवराज और काले प्लास्टिक में लिपटी दो देहों के आकार प्रकार से अंदाजा लगाने लगा। सुना है मरने के बाद आदमी की देह लम्बी हो जाती है।

आधे घण्टे बाद इंतजार में रखे शवों की बारी आ गई। ऊपर प्लास्टिक का चोगा पहने करतारे सा दिखा देवराज को। वह करतारा था या जगतारा, पहचान नहीं पाया फिर भी उसने हाथ हिला दिया।

‘‘आ, दरशण कर लओ जी।’’ करतारे ने ऊपर से हांक लगाई। वहां खड़ी औरत जोर जोर से रोने लगी। साथ खड़े उसे दिलासा देने लगे।

‘मैं किहा, आ जाओ आखरी दरशण कर लओ।’’ करतारा फिर चिल्लाया।

देवराज ने जोर से सिर हिलाया और सिर पर हाथ रखे बैठ कर रोने लगा।......इन में से कोई एक देह होगी पिता की। अंतिम बार टांगें नहीं दबा पाया, सिर गोद में भी नहीं ले पाया। कितना अभागा रहा! और कितनी बुरी मौत हुई।

हिम्मत कर देवराज ने खड़े हो कर चंदन के दो टुकड़े करतारे की ओर फैंक दिए।

‘‘ठीक है.....रैहण दियो। कोई गल्ल नईं.......हुण की वेखणा!’’ करतारा फिर चिल्लाया।

देखते देखते उन्हें अग्नि के हवाले कर दिया गया।

घर आया तो एकदम शान्ति थी। मां ने पिता के कमरे में साफ सफाई कर दी थी। उनका बिस्तर उठा एक किनारे रखा था। चारपाई खड़ी कर दी थी। उसके पहुंचने पर एक बार फिर रोना धोना हुआ। अकेला आदमी कितना कि रोए!

नहाने के बाद चाय पी कर सब संयत होने लगा तो देवराज ने पिता के कमरे के बिस्तर, कपड़े फैंक देने की बात कही। यह काम तो रात के अन्धेरे में ही हो सकता था अतः सारा सामान सीढ़ियों में रख दिया। जाने से पहले पिता ने जो कपड़े पहने थे, उनमें उनका मनपसंद ब्राउन स्वैटर था, खादी की बास्केट। मां ने रोते हुए इन्हें एक झोले में डाल दिया। सेनेटाइजर की दो शीशियां उंडेल पूरा कमरा और घर सेनेटाइज कर दिया। सरकारी लोग तो अब सेनेटाइज करने आ नहीं रहे थे।

पूरा कमरा खाली कर एक किनारे दीपक जला दिया जो दस दिन तक जला रहना था। दस दिन तक प्रेत इसी दीपक के आसपास मंडराता रहता है। कहीं रात बुझ न पाए अतः पहरेदारी के लिए मां का बिस्तर वहीं फर्श पर लगा दिया। पुराना समय होता तो कितने ही रिश्तेदार इस कमरे में दस दिन तक फर्श पर सोते। ढंग से कोई संस्कार, क्रियाकर्म नहीं हो पाया तो प्रेत मुक्ति कैसे होगी!

रात के अन्धेरे में तीन चक्कर लगा कर देवराज ने सारा सामान अन्धेरे नाले में गिरा दिया।

कल मैं अस्पताल जाऊंगा अम्मा डेथ सर्टिफिकेट लेने। तूझे पिता की आधी पेंशन लगेगी। पिता ने कोई एफडी बगैरह करवाई हो तो बता देईयो। मां के करीब बिस्तर लगाते हुए देवराज ने भारी आवाज में कहा।

आज मरे तो कल दूसरा दिन, सच ही कहा है। होते होते तीन दिन बीत गए। हरिद्वार जाने के लिए प्रशासन में अर्जी लगा दी। सभी टेक्सी में जाएंगे और वहीं सब कुछ करेंगे।

सुबह आठ बजे नहाने घुसा तो दो बार मोबाइल बजा था। किसी ने सुना नहीं। नहा कर बाहर आया तो फिर बजा:

‘‘मैं अस्पताल से बोल रहा हूं। आपके पिता ठीक हो गए हैं, उन्हें ले जाइए।’’

सन्न् रह गया देवराज। घर में किसी से कुछ नहीं बताया देवराज ने.......गलती लगी होगी। बहुत अव्यवस्था फैली है। आजकल मारामारी पड़ी है। पता नहीं किसके पिता ठीक हुए हैं और तंग मुझे कर रहे हैं।

बदहवासी में भागा जा रहा था देवराज। ठण्ड में भी पसीना पसीना हुआ जा रहा था। यह सब खुशी में था या ग़मी में, समझ नहीं पा रहा था। अस्पताल में सीधा रिशेप्शन में गया जहां पर्चियां बनती थीं और वेटिंग के लिए कुर्सियां लगीं थीं। चंद लोग कुर्सियों पर बैठे थे। कोरोना के कारण ओपीडी बंद थी अतः भीड़ नहीं थी।

ठीक बीच में नज़र गई तो दिल धक्क् से रह गया। पिता व्हील चेयर पर बैठे थे। वह पसीना पसीना हो गया। पहले सोचा, उन्हीं की तरह कोई और बूढ़ा होगा। भारी कदमों से आगे बढ़ा। देखा, पिता ही थे।

‘‘.....अरे! कहां था इतनी देर! कब से इंतजार कर रहा हूं। आज सुबह ही मुझे ’कोरोना योद्धा’ का सर्टिफिकेट दे कर डिस्चार्ज कर दिया था। इसे फ्रेम करवा लेईयो।’’

पिता ने गोद में रखे सर्टिफिकेट को दिखाते हुए उतावली में कहा, ‘‘तब से यहां हूं। मेरा फोन बंद है। अस्पताल वाले कह रहे थे, तुझे फोन कर दिया है। जल्दी घर चल। बहुत कमजोरी आ गई है।’’ उठने की कोशिश की योद्धा पिता ने।

आगे जा कर पिता को छुआ देवराज ने। सिर दबाते हुए अपनी छाती के करीब ले आया और

सिसकने लगा।

‘‘अब रोता क्यूं है पगले! देख, मौत के मुंह से बच कर आया हूं। चल, घर चल।

 

लेखक परिचय



24 सितम्बर 1949 को पालमपुर (हिमाचल) में जन्म। 125 से अधिक पुस्तकों का संपादन/लेखन। वरिष्ठ कथाकार। अब तक दस कथा संकलन प्रकाशित। चुनींदा कहानियों के पांच संकलन । पांच कथा संकलनों का संपादन। चार काव्य संकलन, दो उपन्यास, दो व्यंग्य संग्रह के अतिरिक्त संस्कृति पर विशेष काम। हिमाचल की संस्कृति पर विशेष लेखन में ‘‘हिमालय गाथा’’ नाम से सात खण्डों में पुस्तक श्रृंखला के अतिरिक्त संस्कृति व यात्रा पर बीस पुस्तकें। पांच ई-बुक्स प्रकाशित। जम्मू अकादमी, हिमाचल अकादमी, तथा, साहित्य कला परिषद् दिल्ली से उपन्यास, कविता संग्रह तथा नाटक पुरस्कत। ’’व्यंग्य यात्रा सम्मान’’ सहित कई स्वैच्छिक संस्थाओं द्वारा साहित्य सेवा के लिए पुरस्कृत। अमर उजाला गौरव सम्मानः 2017। हिन्दी साहित्य के लिए हिमाचल अकादमी के सर्वोच्च सम्मान ‘‘शिखर सम्मान’’ से 2017 में सम्मानित। कई रचनाओं का भारतीय तथा विदेशी भाषाओं में अनुवाद। कथा साहित्य तथा समग्र लेखन पर हिमाचल तथा बाहर के विश्वविद्यालयों से दस एम0फिल0 व दो पीएच0डी0। पूर्व सदस्य साहित्य अकादेमी, पूर्व सीनियर फैलो: संस्कृति मन्त्रालय भारत सरकार, राष्ट्रीय इतिहास अनुसंधान परिषद्, दुष्यंतकंमार पांडुलिपि संग्रहालय भोपाल। वर्तमान सदस्यः राज्य संग्रहालय सोसाइटी शिमला, आकाशवाणी सलाहकार समिति, विद्याश्री न्यास भोपाल। पूर्व उपाध्यक्ष/सचिव हिमाचल अकादमी तथा उप निदेशक संस्कृति विभाग। सम्प्रति: ‘‘अभिनंदन’’ कृष्ण निवास लोअर पंथा घाटी शिमला-171009. vashishthasudarshan@gmail.com

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