- सुदर्शन वशिष्ठ
माणस बीज
‘‘हाउ मच यू चार्ज फॉर मालंग?’’
ड्राईवर ने खिड़की से मुंह बाहर निकाल एक क्षण उसे देखा......गौर वर्ण, कंचे सी नीली मगर पानीदार आंखें, भूरे बाल। खाकी पेंट और वैसी सी जैकेट। पीठ में बढ़िया विदेशी पिट्ठू। एक क्षण तो उसे जबाब नहीं सूझा।
‘‘गोइंग लेह ...’’, वह बोला, ’’फाइव थाउंजेंड!’’ उसने पांचों उंगलियां खड़ी कर दीं।
‘‘ओके! बट वट एबाउट मालंग! इट इज ऑन द वे आई स्पोज।’’ वह आत्मविश्वास से बोली।
’’यस ... केन ड्रॉप यू मालंग इन थ्री थाउंजेंड फाइव हंडरेड ... इट इज ऑन लिंक रोड़। माई टैक्सी फुल्ल ... बट आई विल गिव यू फ्रंट सीट।’’
‘‘एट वट टाईम!’’
‘‘एट टू शार्प ... नाइट।’’
‘‘ओकेह् ... आई एम एलीना ... विल कम।’’, कहती हुई वह बाजार की छोटी गली में लुप्त हो गई।
मनाली की गलियों में ऐसे हिप्पीनुमा यूरोपियन घूमते रहते हैं। कोई खुली सलवार पहने, कोई अजीब सा कुरता पहने। भांग के कश लगाते हुए, होटल ढाबों में बैठने के बाद ये संकरी गलियों में गुम हो जाते हैं। जो सभ्य और संभ्रात होते हैं, और जो ख़ास मकसद से पहाड़ में आते हैं, वे भी यहां आ कर हिप्पीनुमा बन जाते हैं।
बहुत रहस्यमयी हो गई हैं मनाली की गलियां। मुख्य बाजार या मॉल के भीतर छोटे छोटे ढाबों में लकड़ी के फट्टों पर हिप्पीनुमा यूरोपियन धूनी जमाए बैठे रहते हैं जिनकी लम्बी लम्बी भूरी जटाएं लगातार बन्धने और न धुलने से साधुओं सी हो गई हैं। ढाबों में मोमो और भांग की मिश्रित गन्ध फैली रहती है। आए दिन इजरायली नशेबाज पुलिस की गिरफ्त में आते रहते हैं। मनाली, जगतसुख, नग्गर जैसी जगहों में ये लोग यहीं के हो कर रह गए हैं। कुछ यहां की लड़कियों से विवाह रचाकर आराम से घरों में सुरक्षित रहने लगे हैं और कुछ विदेशी युवतियों ने यहां अपने लिए पति वरण कर लिए हैं। आसपास बने भव्य होटलों से इन की अपनी अलग दुनिया है।
ड्राईवर अचानक प्रफुल्लित हो गया। हालांकि पिछली रात की थकान अभी उतरी नहीं थी। पांच सरकारी सवारियां और एक विदेशी मिलने से वह संतुष्ट हो गया।
जुलाई अगस्त के इन दिनों बहुत चहल पहल थी यहां। वैसे अब तो बारहों महीने ही चहल पहल बनी रहने लगी है। हिडिम्बा मन्दिर के आसपास सैलानी मधुमक्खियों की तरह भिनभिना रहे थे। व्यास के इस ओर तो क्या उस ओर, सैलानी भेड़ों के झुंड की तरह धीरे धीरे रेंग रहे थे।
लेह से आने वाली टैक्सियां शाम को ही यहां सड़क के इधर उधर लग जाती हैं। लोकल टैक्सी वालों से इनका झगड़ा रहता है। लेह से रात को दो बजे के करीब सिंगल सवारी से किराया ले कर आठ दस सवारियां भर कर चल पड़ते हैं और शाम चार बजे तक मनाली पहुंच जाते। लेह से दिल्ली हवाई टिकट मिल नहीं पाता। बहुत बार फ्लाइट केंसल हो जाती है। चार बजे के बाद कुछ आराम और झपकी लेने के बाद दो बजे रात तक फिर यहां से वापस रवाना। ये ज्यादातर कश्मीरी युवक होते हैं। लेह के लोग भी अब टैक्सी चलाने लगे हैं मगर कश्मीरी मेहनती हैं और बिना रूके बर्फ में भी चले रहते हैं। मनाली से जाने के लिए बस या टैक्सी से ही जाया जा सकता है। बहुत से शौकीन लोग यहां से जाते हैं। यहां से बसें भी चलती हैं। टैक्सी का फायदा यह रहता है कि जहां मर्जी नजारा देखने रूक गए।
रात के दो बजे हमीद की इनोवा महक उठी। पांच लोग किसी सेमिनार में लेह जा रहे थे। इन में दो लामा थे और अब एक एलीना। फ्रंट सीट हमीद ने अंग्रेजण के लिए रख छोड़ी थी अन्यथा वहां दो सवारियां भी बैठ सकती थीं। सेमिनार वाले तीनों पिछली सीट में बैठ गए। दोनों लामा चुपचाप पीछे चले गए।
एलीना ने बढ़िया विदेशी सेंट या डियो लगा रखा था जिसकी गंध देर तक वैसी ही रहती है। सेमिनार वाले सज्जन भी अपना अपना भारतीय डियो छिड़क आए थे जिसकी गंध कुछ देर बाद गायब हो जाती है।
ऐसी उम्दा, खुश्बूदार सवारियां मुकद्दर से मिलती हैं। कई बार बहुत फट्टीचर और बदबूदार लोग मिलते हैं। लम्बे सफर में उन्हें झेलना मुश्किल हो जाता है।
‘‘बाहर अंदर जा आओ साब! यहां से चलेंगे तो रोहतांग जोत पार कर ही खोकसर में ही रूकेंगे। दर्रे पर तो बिल्कल नहीं। रात का वक्त है। तेज़ हवाएं चलती है। बर्फ भी गिर सकती है।’’
वार्निंग दे डाली हमीद ने।
‘‘हाल्ट आफटर थ्री आवर्ज ... ओकेह ...।’’ एलीना ने जैसे बात समझते हुए कहा।
हमीद ने मैडम की ओर देखा जो इत्मीनान से पिट्ठू नीचे रख सीट बेल्ट लगा कर बैठ चुकी थी।
‘‘ओके।“ वह लापरवाही से बोला। पीछे वाले सब चुप हो गए। आदतन स्टेयरिंग को हाथ लगा कर ऊपर देखते हुए उल्टे हाथों से कान पकड़ लिए।
व्यास के पार कुछ दूर चलने के बाद चढ़ाई शुरू हो गई। गाड़ी की हैड लाईट में आसपास पेड़ों के बीच सफेद बर्फ दिखने लगी। जहां सूरज न पहुंचे बर्फ बहुत दिन जिंदा रहती है।
मैडम की उपस्थिति से कोई कुछ नहीं बोला। लामा लोग माला जपने लगे। बाकी सोने की एक्टिंग करते करते सो भी गए।
रोहतांग दर्रे से गाड़ी उतराई में आ गई और सामने के बर्फभरे पहाड़ों में ऊपर आकाश दिखने लगा। अंधेरा अभी मिटा न था कि ड्राईवर ने गाड़ी से एक ढाबे के साथ लगा दी जहां पुराने और मैले बैंचों के बीच एक तसले में आग जली हुई थी।
‘‘नाश्ता करना है तो कर लीजिए जनाब! चाय पानी पी लीजिए। पन्द्रह बीस मिनट रूकेंगे।’’
एलीना उतर कर सीधे ढाबे के भीतर चली गई। सेमिनार के विद्वान ढाबे से कुछ आगे जा कांपते हुए कर दीवार के साथ पेशाब करने लगे। लामा भी दूसरी ओर हो लिए।
लगता था ढाबे का मालिक अभी उठा ही है। एक परात में आटा गुंथा पड़ा था, दूसरी में उबले हुए आलू। आटे से मैला कपड़ा हटा उसने बिना किसी से कुछ पूछे फुर्ती दिखाते हुए आलू के परांठे बनाने शुरू कर दिए।
‘‘मे आई हेव ऑमलेट!’’ एलीना ने पूछा तो वह तुरंत बोला, ‘‘यस यस।’’
मैडम की देखादेखी मे सेमिनार वालों ने भी ऑमलेट बनाने को कह दिया। चाय परांठा, ऑमलेट खा कर सभी संतुष्ट और तृप्त हो गए।
सरचू पहुंचते पहुंचते धूप निकल आई। चारों ओर बर्फभरे पर्वतों के दर्शन होने लगे। धूप निकलने से गर्माहट भी आ गई।
‘‘आर यू गोइंग इन सेमिनार!’’ तिवारी ने पूछ ही लिया।
‘‘नो, आइ एम गोइंग टू मालंग।’’
‘‘ओके ... ओके ...’’, से आगे तिवारी कुछ नहीं बोल पाया।
‘‘फ्रॉम विच कंट्री!’’ पाण्डेय ने हिम्मत कर पूछा।
‘‘रशा।’’
‘‘रस्सा! अच्छा रसिया।’’
‘‘बड़ी हिम्मत है भाई! अकेली ही जा रई है।’’ पाण्डेय बुदबुदाया।
अगला पड़ाव सरचू था जहां आवास के लिए टेंट लगे थे। टूरिज़्म की बसों के रूकने से इधर सैलानियों का अच्छा खासा जमावड़ा लगा था। मनाली से चलने वाली टूरिस्ट बसों के लिए यहां रात्रि ठहराव की व्यवस्था भी थी। तिवारी और पाण्डेय ने यहां रुकने और कॉफी पीने की इच्छा जाहिर की तो बसंत ठाकुर ने गाड़ी लगवा दी।
‘‘अब हम सोलह हजार फुट ऊंचा बारलाच़ा दर्रा पार करने के बाद अगले दर्रे के पास ही रूकेंगे जहां आपको लज़ीज खाना खिलाया जाएगा।’’ बसंत ने घोषणा कर दी, ‘‘हां, बीच में एक मनोहारी झील के दर्शन करवाएंगे।’’
अब जैसे गाड़ी उत्तर प्रदेश के मैदानों में भागी जा रही थी। बिल्कुल सीधी सड़क। बीच बीच में कहीं मोड़ आता। लगभग तीस किलोमीटर चलने पर बायीं ओर एक सुरम्य झील दिखाई दी। ड्राईवर ने बिना पूछे ही गाड़ी एक किनारे लगा दी।
झील आश्चर्यजनक रूप से नीली थी।
जैसे नीला आकाश उल्टा हो कर झील हो गया हो। बारह हजार फुट की बुलंदी पर पर्वतों में वैसे ही आकाश का रंग अद्भुत होता है। एकदम गहरा नीला। आंखों और आकाश के बीच कोई ग़र्द नहीं, गुब्बार नहीं। और इतना करीब कि उछल कर छू लो। आकाश का यही रंग झील में प्रतिबिम्बित हो रहा था।
पानी इतना स्वच्छ और निर्मल कि उंगली लगने से मैला होवे। कोई घास नहीं, सैलाब नहीं, तिनका नहीं। जैसे एक चमकता शीशा। झील के किनारे एक एक पत्थर साफ़ नज़र आ रहा था। कभी हवा का झौंका आता तो एक लहर सी उठती हुई किनारे तक चल जाती जैसी किसी ने सितार के तार छेड़ दिए।
झील के किनारे सूखे पेड़ की शाखा दबी थी जिसके ऊपर सफेद कपड़े और झण्डियां लिपटी थीं। हो सकता है यह कभी रंगीन रहीं होंगी। सर्दिर्यों की बर्फ झेलने से रंगहीन हो गईं। गुरू लामा ने इन झण्डियों के पास खड़े हो झील को हाथ जोड़ नमस्कार किया और मन्त्रजाप करने लगा। शिष्य लामा आंखें मूंदे घुटने टेक बैठ गया। ‘‘ओम् मणि पद्मे हूम’’ के मन्त्रों के साथ झील भी गुनगुनाने लगी। कभी एकदम शांत हो जाती, कभी गुनगुनाने लगती।
झील के ऊपर, सामने बर्फभरे पर्वत थे, एकदम सफेद। पर्वतों के पीछे नीला आकाश।
मानस तिवारी कैमरा निकाल फोटो लेने में व्यस्त हो गया तो अजय पाण्डेय पोज देने लगा। बसंत ठाकुर एक किनारे खड़ा हो एलिना के साथ पहाड़ी लहजे वाली अंग्रेजी में कुछ बतिया रहा था।
ध्यान से मुक्त हो गुरू लामा ने बताया:
‘‘इन्हीं झीलों में ऐसे संकेत मिलते हैं कि दलाई लामा या दूसरे अवतारी लामा कहां जन्म लेंगे। उन्हीं संकेतों के आधार पर खोज की जाती है।‘‘ लामा ने तिवारी की ओर रूख कर कहा, जो रास्ते में जिज्ञासा प्रकट कर रहे थे दलाई लामा, पंचेन लामा के अवतार ढूंढने पर।
‘‘वो कैसे! क्या कुछ नजर आता है! स्वर्ग, पृथ्वी! कोई गांव, कोई घर।’’ मानव तिवारी उत्सुक हो गया।
‘‘जो लामा अवतार को खोजते हैं, वे संकेत समझते हैं।‘‘ गुरू लामा बोले।
‘‘अच्छा!’’ मनोज पाण्डेय का मुंह खुला रह गया।
‘‘हमारे सभी मठों के लामा को खोजने के कई तरीके हैं। गुरू लामा के देह छोड़ने के बाद नए लामा की खोज आरम्भ कर दी जाती है। पता लगने पर निश्चित घर में जन्मे शिशु के पास मठ के दिवंगत लामागुरू की माला या अन्य वस्तु रखी जाती है जिसे वह उठा ले तो उस लामा का अवतारी मान लिया जाता है। अब उस शिशु को मठ में ले आते हैं। वहां उसे गद्दी पर बिठाया जाता है और शिक्षा दीक्षा दी जाती है। पढ़ाई के लिए उसे बाहर भी भेजा जाता है। माता पिता भी मिल सकते हैं या मठ में अलग रह सकते हैं। जब वह बच्चा होता है तब भी उसे वही मान सम्मान दिया जाता है जो बड़ा होने पर मिलेगा। मनाली से, लाहौल से, बहुत शिशु ले जाए गए हैं जो अपने अपने मठों के प्रतिष्ठित लामा बने हुए हैं।‘‘
गुरू लामा ने व्याख्यान दिया।
‘‘मठ में और भी तो ज्ञानी लामा होते होंगे, उन्हीं में से क्यों नहीं चुन लिया जाता!’’
‘‘न जी। वे अवतारी नहीं होते। मुख्य लामा तो अवतारी ही होता है। उसे सबके ऊपर बिठाया जाता है। वह परमपुरूष होता है, दिव्यपुरूष होता है।’’ गुरू लामा बोले।
‘‘न जाने कैसी परंपराएं हैं! हमारे यहां भी शिशु के अन्न प्राशन के समय ऐसे ही कलम दवात, कोई हथियार या अन्य वस्तुएं रखी जाती हैं। जो वस्तु वह उठाएंगा, उसी प्रवृत्ति का होगा, ऐसा माना जाता है।’’, तिवारी चिंतक हो गए:
‘‘देखिए हमारा समाज ही ऐसा है। हम अपने लिए शासक चुनते नहीं, ढूंढते हैं। जैसे बहुत बार स्टारपुत्र हीरो न होते हैं, न बनते हैं, खुद अवसर दे दे कर बनाए जाते हैं। ठीक वैसे ही शासक बनाए जाते हैं। किसी को भी सिंहासन पर बिठा दिया जाता है, ऐसे कई किस्से मिलते हैं। राजवंश का कुमार कहीं भी चला जाए, उसे ढूंढ कर लाया जाता है और सिंहासन पर बिठा दिया जाता है। ये होगा तुम्हारा राजा, के उद्घोष पर सब राजा मान बैठते हैं चाहे बाद में वह बहुत क्रूर निकले। एक बार सिंहासन पर बैठे नहीं कि चेहरे पर वैसा ही नूर, वैसा ही तेज़ आ जाता है। वह अद्वितीय पुरूष लगता है, इसी के लिए बना था। आज भी यह लोकतन्त्र रूप में जारी है, पर लामाजी, यह परंपरा गलत नहीं।’’
‘‘ऐसा तो है। आपके पौराणिक आख्यानों में भी हम पढ़ता है ऐसा ही कई उदाहरण। महाभारत देखा आपने टीवी में! पाण्डु पीला था, बीमार था, राजा बना दिया। और धृतराष्ट्र तो अंधा था, उसे राजा बना दिया। हमारे यहां तो वह पहले धार्मिक गुरू है, फिर कोई राजा भी मान ले तो मान ले। जैसे दलाई लामा धर्मगुरू तो हैं ही, एक तरह से राजा भी थे।’’ लामाजी गम्भीर हो गए।
बहुत लम्बे समतल मैदान के आख़री छोर पर बना यह ढाबा अद्भुत था। यहां की वास्तुकला परंपरा के विपरीत खिड़कियों में बड़े बड़े शीशे जड़े थे जिनसे सामने के बर्फीले पहाड़ एक अद्भुत पेंटिंग की तरह नज़र आ रहे थे। सामने दूर नज़र तक हिमाच्छादित पहाड़ियां। पहाड़ियां कहना उचित नहीं होगा क्योंकि इन की ऊंचाई सोलह हजार फुट से कम न थी। हैरानी की बात यह कि यह मैदान भी तेरह हजार फुट से ऊंची जगह में था। समुद्र तल से इतना ऊंचा होने पर भी ऐसा जिसमें कई फुटबाल ग्राउंड समा जाएं। ऐसा मैदान तो मैदानों में भी नहीं होगा।
आकाश को छूती ऊंचाई पर जो ज़मीन होती है, वह ज़मीन ही होती है। पृथ्वी तो पृथ्वी ही है चाहे कितनी ही ऊंची पहाड़ सी हो जाए। पहाड़ का गुण पृथ्वी सा ही है, बेशक दस हजार फुट की बुलंदी के ऊपर वन वनस्पति नहीं होती। पृथ्वी से ही पहाड़ बनता है।
इन मैदानों में दूर दूर तक आबादी के चिह्न नहीं दिखते। न वृक्ष, न वनस्पति। तीस चालीस किलोमीटर के बाद किसी पहाड़ी पर खुदा कोई किलानुमा मठ रेगिस्तान में नख़लीस्तान सा दिखलाई पड़ता है। इन मठों की गुफाओं में साधक लामा लोग रहते हैं। सरचू से चलने पर उन्हें केवल एक ऐसा मठ दिखा जो सामने की पहाड़ी में जैसे किसी ने घड़ बना कर रख दिया था।
प्रायः ऐसा कहा जाता है कि सेमिनार के पहले या बाद जो सेमिनार होता है, गोष्ठी से पहले या बाद जो एक अनौपचारिक गप्पगोष्ठी होती है, वही असली गोष्ठी होती है। सेमिनारों में तो बस औपचारिकताएं ही रह जाती हैं, असली मुद्दों पर बात ही नहीं हो पाती। नगरों, महानगरों में होने वाली गोष्ठियों की कवरेज में बहुत बार वह कवरेज हावी हो जाती है तो गोष्ठी से पहले हुई हो या बाद में हुई हो। बाद की गोष्ठी और ज्यादा दमदार होती है अगर सामने गिलास भरें और एकदम ख़ाली हो जाएं और बीच में कोई साहित्यिक किसम का पत्रकार भी बैठा हो।
यह गप्पगोष्ठी उस दृष्टि से एक पाकसाफ़ गोष्ठी थी जिसमें सबसे पहले मक्खन वाली नमकीन चाय परोसी गई। जिन्हें नमकीन चाय पसंद न हो उनके लिए दूसरी चाय भी उपलब्ध थी। हां, दूध यहां टिन के डिब्बे वाला कंडेंस्ड मिल्क इस्तेमाल होता है। गाय भैंस तो यहां होती नहीं अतः सभी ढाबों में कंडेस्ड मिल्क इस्तेमाल किया जाता जिसका एक अपना अलग ही स्वाद होता है।
‘‘ओहो! अद्भुत! भाई आपने तो साक्षात् स्वर्ग के दर्शन करवा दिए।‘‘ मानस तिवारी के मुंह से निकला।
मनाली तक तो तिवारीजी धोती में ही आए। रात ठण्ड लगने और आगे की ठण्डक से डराने पर लेगिंग और चुस्त पाजामा पहन लिया था। पाण्डेय ने तो कोट पैंट पहन लिया था।
‘‘जिन पर्वतीय स्थलों में स्वर्ग की कल्पना की जाती है, वे यही हैं जनाब! आप तो युधिष्ठिर की तरह सशरीर यहां आ गए।’’ बसंत ठाकुर ने चहकते हुए कहा, ‘‘इस स्वर्ग में जिसने जो जो लेना हो, अपना ऑर्डर कर दीजिए। नमकीन चाय का आन्नद तो आपने ले ही लिया। अब लंच टैम हो गया है। आगे कहीं एक बार चाय के लिए रुकेंगे, बस।‘‘
डॉ मानसप्रसाद सिंह तिवारी और डॉ मनोज दिवाकर पाण्डेय मीन्यू कार्ड देख हैरान हुए कि यहां भी कई व्यंजनों की लिस्ट फोटो के साथ दी थी। लामा गुरू और उनका शिष्य अलग गुणगुण कर रहे थे। उन्हें तो मांसाहार प्रिय था, जो सूची में था।
चार विद्वानों के इस दल को सिन्धु उत्सव लेह में पहुंचाने का जिम्मा संस्कृति विभाग ने बसंत ठाकुर को सौंपा था। ठाकुर क्योंकि कुल्लू से था अतः इन दुर्गम मार्गों से वाकिफ था। सिन्धु उत्सव में ‘‘पुनर्जन्म और अवतारवाद’’ पर सेमिनार में भाग लेने ये दोनों विद्वान बौद्ध संस्कृति के ज्ञाता और शोधकर्ता थे। मानस तिवारी तो बनारस के पढ़े थे जो खांटी सेमिनारी थे। सेमिनार में लामावेष धारण कर विराजते तो घण्टों बोलते रहते। लामा छोसफेल अपने शिष्य के साथ धर्मशाला से थे। वे साथ के अलग टेबल पर बैठ गए।
लामाजी को मीट का ऑर्डर करते देख दोनों विद्वान ब्राह्मण सहम गए।। सुबह भी वे ऑमलेट चट कर गए थे, ‘‘ये लामा लोग मीट मांसाहारी हैं!’’ पाण्डेयजी ने ठाकुर से पूछा।
‘‘जनाब! यहां तो सभी लामा मांसाहारी हैं, किन्नौर से स्पिति और तिब्बत तक। दलाई लामाजी अपने भाषणों में कहते हैं इन्होंने धर्मशाला से पठानकोट तक सारी मुर्गियां खत्म कर दीं।’’
‘‘अच्छा! हैं तो ये सभी बौद्ध।’’ पाण्डेय हैरान हुए।
‘‘जी। आप विद्वान हैं। इन पर लिखिए ना।’’ ठाकुर हंसा।
‘‘एक कथा तो सुनी है,’’ तिवारी बोले,‘‘एक भिक्षु के भिक्षापात्र में आकाश से एक मांस का टुकड़ा आ गिरा। शायद कौए चील से छूटा होगा। उसने तथागत से प्रश्न किया, यह मांस का टुकड़ा भिक्षापात्र में आ गिरा है, अब क्या करूं! तथागत ने उत्तर दिया, भंते! प्रसाद रूप में ग्रहण कर लो। बस तब से यह भी प्रसाद हो गया।‘‘
ड्राईवर हमीद बातूनी था जो सब के करीब बैठने की कोशिश कर रहा था। ‘‘जनाब! आपको अब मैं ऐसी जगह बताऊंगा जहां गाड़ी खुद चलती है।’’
सभी हैरान रह गए। सोचा ऐसे ही इम्प्रेस करने की कोशिश कर रहा है।
‘‘उससे आगे एक ओर जगह है जहां ये मैडम जा रही हैं।’’ उसने एलीना की ओर इशारा किया जो अलग कोने में बैठ बाहर का नजारा देख रही थी, ’’वहां अंग्रेज औरतें जाती हैं जनाब! वहीं रहती हैं छः छः महीने। वहां देवता जैसे लोग रहते हैं। एकदम लम्बे, गोरे चिट्टे, कांच सी आंखें, एकदम फरिश्ते। पांच सात महीने उनके साथ रह कर माणसबीज ले कर वह अपने देश लौट जाती हैं।’’
‘‘काहे का बीज!’’ तिवारी ने उत्सुकता दिखाई।
‘‘निख़ालिस माणस बीज ... आदमी का बीज ... अरे आप समझते हैं न!’’ शरमा गया हमीद।
सभी हैरान रह गए कि ये क्या बात कर रहा है! और बसंत ठाकुर की ओर देखने लगे।
‘‘ठीक कह रहा है ये।’’ ठाकुर विश्वास से बोला,‘‘कहते हैं वहां शुद्ध आर्य रेस है जिसका बीज लेने विदेशों से युवतियां आती हैं। जब वे पेट से हो जाती हैं तो फट से वापिस।’’
तिवारी और पाण्डेय गहन सोच में पड़ गए कि तभी सूप आ गया।
‘‘अरे! यहां सूप भी मिलेगा! आपका इंतजाम ग़ज़ब है ठाकुर जी। आप तो सिद्ध पुरूष हैं। कामधेनु, कल्पवृक्ष सब है आपके पास तो। नमकीन चाय का स्वाद भी चखाया, अब सूप भी।’’ पाण्डेयजी बोले।
अब तक तिवारी और पाण्डेय सहज हो गए थे। एक तरह से ठाकुर से दोस्ताना होने लगा था। जब वे शिमला में आए ही थे और सरकारी मेहमान बन हॉलीडे होम में ठहरे थे, बात बात में रौब झाड़ रहे थे। संस्कृति विभाग के निदेशक ने ठाकुर को विशेष हिदायत दी थी, ‘‘इनका पूरा ख्याल रखना ठाकुर। सी.एम. साहब के ख़ास आदमी हैं। एक यूपी के सी.एम. के रिश्तेदार हैं।’’
जो टटपूंजिया लेखक या पत्रकार राज्य अतिथि बन जाए वह सरकारी गेस्ट हाउस में घुसते ही वीआईपी हो जाता है। फिर भी तिवारीजी सज्जन थे। सब से बड़ी बात दोनों पीते नहीं थे। पीने वाले राज्य अतिथियों के साथ बड़ी दिक्कत होती है। होटल में खाने की व्यवस्था तो है, चाहे रोज मुर्गा ही खाओ मगर पीने की नहीं है। पियक्कड़ राज्य अतिथि बन जाए तो बड़ी मुश्किल से खाने में ही पीने के बिल एडजस्ट करने पड़ते हैं।
गर्मियों के अच्छे दिनों संस्कृति विभाग में आए दिन दूसरे राज्यों से, राजधानी से, साहित्यकार, कलाकार चले ही रहते हैं जो राज्य अतिथि होने की जुगाड़ कर लेते हैं। कभी केवल एक बंदा ही राज्य अतिथि घोषित होता है तो साथ में परिवार भी लिए चलता है। यदि किसी से जरा सी भी जान पहचान हो तो