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सुधा गोयल 'नवीन'

और बादल छंट गए


‘नीलांचल एक्सप्रेस’ तीन घण्टे लेट थी. यह कोई नई बात नहीं थी. इन दिनों लगभग सभी ट्रेनों की आवाजाही घण्टों विलम्ब से हो रही थी. आज लखनऊ से माँ आ रही थी. आकांक्षा ने ऑफिस में उतरने से पहले ड्राइवर को पर्याप्त निर्देश दिये और ट्रेन आने का समय पता करके स्टेशन जाने को कहा.

आकांक्षा ने बच्चों को स्टेशन जाने के लिए मना करते हुए कहा था, ‘‘नानी घर ही तो आ रही हैं, स्टेशन जाकर क्यों समय बर्बाद करोगे तुम लोग, कुछ पढ़ाई कर लेना. नानी एक बार आ गईं तो उनके जाने तक तुम लोग किताबों को हाथ नहीं लगाने वाले हो.’’ लेकिन दिव्या दीपू ड्राइवर अंकल से जिद करके तीन घण्टे पहले ही स्टेशन पहुँच गये, कहीं ट्रेन ने ‘कवर’ कर लिया, नानी पहुँच गई और उन्होंने किसी को नहीं देखा तब ?

आकांक्षा ने कह तो दिया था लेकिन उसे पता था कि उसकी यह बात बच्चे कभी नहीं मानेंगे.

आकांक्षा अपनी तीनों बहनों में सबसे छोटी थी, और पापा माँ की सबसे दुलारी, पेट-पोछनी बिटिया. बड़ी दीदी उससे दस साल बड़ी थी और छोटी दीदी नौ साल. आकांक्षा का जन्म ‘बाइमिस्टेक’ माना जाता था. शायद यही सच भी था. जिस बेटी के पालन-पोषण में सुलक्षणा को लज्जा महसूस होती थी आज वही बेटी उनका गर्व है....

ए. सी. स्लीपर के आरामदायक व एकाकी सफर में सुलक्षणा अतीत की खट्टी-मीठी यादों को सहलाने पुचकारने लगी थीं. कुछ देर पहले तक दिव्या दीपू को आगोश में भर कर चूम लेने वाली छटपटाहट कहीं खो गई थी और ट्रेन के लेट होने की बेचैनी भी कतार में कहीं पीछे रह गई थी.

आकांक्षा दो साल की थी तभी से गुड़ियों से खेलने की जगह कार, बन्दूक और एरोप्लेन से खेलना पसन्द करती थी. सुलक्षणा सोच रही थीं कि पड़ोस की लड़कियों की जगह लड़कों से आकांक्षा की दोस्ती हुआ करती थी. बड़ी हुई तो घर के काम-काज को हाथ न लगाती, कभी अपने पापा के साथ राजनीति की चर्चा पर उलझ जाती तो कभी अर्थशास्त्र पर बहस करने लगती. सुलक्षणा ने जब भी उसकी दीदियों का उदाहरण देकर उसे समझाना चाहा, अपने खुले हुए कटे बालों को बेपरवाही से झटक कर कहती मुझे नहीं बनना उनकी तरह, ‘‘मैं शादी भी नहीं करूंगी माँ. मुझे पढ़ना है, बहुत पढ़ना है.’’ कितना परेशान हो जाया करती थीं सुलक्षणा इस बात पर. तब उन्हें जरा सा भी आभास हो जाता कि अकुल जैसा दामाद उनकी बेटी का हाथ माँगने उनके द्वार पर खुद चलकर आयेगा तो वे नाहक दुःखी न हो जाया करती. सोचते-सोचते सुलक्षणा मन ही मन मुस्कुराने लगीं.


आकांक्षा की शादी के पंद्रह सालों के बाद पहली बार सुलक्षणा उसके घर जमशेदपुर जा रहीं थीं, वह भी दिव्या दीपू ने तरह-तरह के मनुहार कार्ड भेजे, फोन पर रूठ जाने की धमकी दी और मर्म पर चोट की कि यदि वो इस बार ना आई तो वे लोग कभी भी लखनऊ नहीं आयेंगे. दिव्या दीपू के लिये वे सिर्फ नानी नहीं हैं वे उनकी हमराज हैं, उनकी बेस्ट-फ्रेण्ड है. आकांक्षा के आँफिस से आने के पहले रोज नियम से नानी को स्कूल की सारी बातें फोन पर बता दी जाती. नानी से सलाह-मशविरा होता उसके बाद ही होम-वर्क का नंबर आता. इस बार बच्चों ने कहा था कि वे कोई ‘सीक्रेट’ बात करना चाहते हैं, साथ ही दिव्या नानी को किसी से मिलवाना भी चाहती है, इसलिये उनका आना जरूरी है. सुलक्षणा ने फोन पर हुई बातों के तार से तार मिलाकर जोड़ने की बहुत कोशिश की लेकिन वे कुछ भी अनुमान न लगा सकी कि बच्चे उनके साथ कौन सा सीक्रेट बाँटना चाहते हैं. . उन्होंने सोचा जो भी हो कुछ घण्टों बाद पता चल ही जायेगा और वे एक बार फिर से आकांक्षा के बारे में सोचने लगी.


उन्हें वह दिन याद आया, जब बी.एस.सी. में आकाँक्षा ने टॉप किया था, वाद-विवाद प्रतियोगिता में फर्स्ट आई थी, कैट वॉक और बेस्ट ड्रेस का अवार्ड मिला था. हाँ उनकी आकांक्षा मिस यूनीवर्सिटी चुनी गई थी. सफेद नगों वाला उसका ताज आज भी उनके ड्राइंगरूम में कार्निस पर फ्रेम किया हुआ रक्खा है. सोचते-सोचते उनकी आँखें खुशी से छलछला गई. उसके बाद एम.ए. फिर पी.एच.डी...... प्रतियोगितायें और सफलताओं का सिलसला चलता ही गया......चलता ही गया.......


स्टेशन आ चुका था. सामने ही दिव्या दीपू खड़े दिखाई पड़ गये. सुलक्षणा के बाहर आते ही दीपू उछल कर गोदी में चढ़ गया. ‘‘नानी हमने तीन घण्टे में तीन आइसक्रीम खा ली. नानी... माँ ने कहा हम लोग आपको लेने स्टेशन न आये, नानी यह भी कोई बात है. आप पहली बार हमारे घर आ रही है, माँ को तो फुर्सत नहीं है, हमें भी मना किया. नानी आप हमें लेजर-शो दिखाने ले चलेंगी न. एकदम नई चीज है हमारे शहर में.... और मम्मी को कभी फुर्सत ही नहीं मिलती..... ....नानी......नानी......’’ दीपू लगातार बोले जा रहा था.


सुलक्षणा को इस बार दिव्या कुछ गम्भीर नजर आई. स्टेशन से घर तक एक घण्टे के सफर में दिव्या ने कोई तीन या चार वाक्य कहे या पूछे होंगे. लखनऊ जब आती थी तो दीपू की ही तरह बोलती ही रहती थी.... इसे क्या हो गया? शायद उम्र का तकाजा हो.

घर पूरी तरह सुसज्जित था. एक शालीन सी खूबसूरती घर के परदों से लेकर कारपेट, तस्वीरों, कट-ग्लास, मूर्तियों, व फूलों की सजावट में दृष्टिगोचर हो रही थी. जिस लड़की को घर के कामों से इतनी नफरत थी, उसके घर के हर कोने से आभिजात्य रुचि टपक रही थी. नौकर पाँच सितारा होटलाई अन्दाज में पानी का गिलास ले कर खड़ा था, और चाय, कॉफी या शर्बत पूछ रहा था. सुलक्षणा को अब समझ में आया कि अकुल उनकी बिटिया के व्यक्तित्व से इतने प्रभावित, व सम्मोहित क्यों रहते हैं. आकांक्षा ने मैनेजमेण्ट की डिग्री में गोल्ड-मेडल लिया था. क्या घर क्या बाहर हर तरफ उसकी व्यवस्था, प्रबंधन व रुतबा दिखाई दे रहा था.

दीपू चिल्लाया, ‘‘जाओ जाकर अपना काम करो नानी को पानी मैं दूंगा.’’ सुलक्षणा समझ नहीं पायी दीपू के इस व्यवहार का कारण. दिव्या उनका सामान अपने कमरे में रखवा चुकी थी. और उनसे बाथरूम जाकर फ्रेश होने के लिए कह रही थी.

शाम के साढ़े छः बजे तक आकांक्षा का आफिस से लौटने का इंतजार सुलक्षणा को भारी पड़ रहा था. आकांक्षा का ड्राइवर अकुल जी को लेता हुआ आकांक्षा के पास जाता था फिर दोनों एक साथ घर लौटते थे. आते ही आकांक्षा माँ से लिपट गई और स्टेशन न पहुँच पाने की मजबूरी बताने लगी. सफर कैसा बीता, माँ ने कुछ खाया-पिया या नहीं, रात के खाने में क्या बनेगा आदि सब समझाने के बाद अचानक जैसे उसे कुछ याद आ गया बोली, ‘‘माँ कल दीपू का रिपोर्ट-कार्ड मिलेगा, किसी पेरेण्ट का जाना जरूरी है, आप चली जाइयेगा, मेरी एक बहुत ही जरूरी मीटिंग है,’’ फिर दीपू का सर सहलाते हुए बोली, ‘‘अब तो मेरा राजा बेटा नाराज नहीं होगा न, नानी जायेंगी आपके साथ. देखो मैं तुम्हारी मनपसन्द चॉको-चिप आइसक्रीम लाई हूँ.’’ दीप कुछ नहीं बोला लेकिन वह खुश भी नहीं हुआ.

चार-पाँच दिनों में ही सुलक्षणा ने नोटिस कर लिया कि हर दिन सुबह सबेरे जब आफिस की गाड़ी आकांक्षा को लेने आती है तब बार-बार हॉर्न सुनने के बाद भी दीपू उसे नहीं बताता है, शायद उसका बाल मन अपनी माँ को अपने पास थोड़ी सी देर और रखना चाहता है. एक दिन दीपू ने उनसे कहा कि, जब उसके दोस्त उसकी मम्मी की तारीफ करते हैं, और ईर्ष्या से भर कर कहते हैं कि भई तुम्हारी मम्मी तो बड़ी पोस्ट पर हैं, हवाई जहाज से सफर करती हैं, ढेर सारे गिफ्ट्स लाती हैं, मीटिंग्स अटैंड करती हैं, तुम्हारे तो मजे ही मजे हैं, तब उसे बिल्कुल भी अच्छा नहीं लगता है और खुश होने की जगह वह उनसे लड़ने लगता है, कभी-कभी रो भी पड़ता है. जब सुलक्षणा ने पूछा क्यों, तो उसने कहा, ‘‘नानी मुझे नहीं पता क्यों.’’

आकांक्षा को जब से माँ आई थी, उनके साथ बैठ कर इत्मिनान से बातें करने का समय भी कहाँ मिला था. यूँ ही चलते-फिरते या खाने नाश्ते के समय बस औपचारिक सी बातें हो जाती थीं. आकांक्षा एक तरह की बेचैनी महसूस कर रही थी, अतः उसने शनिवार के लिये पिकनिक का प्रोग्राम बनाया ... दिव्या-दीपू उछल पड़े. सुलक्षणा भी सोचने लगी कि पिकनिक के दिन ढेर सारा समय मिलेगा तब वे सारे रिश्तेदारों की बातें आकांक्षा को बतायेगी. तय हुआ कि अकुल पहले सबको शहर की सैर करायेंगे, डिमना लेक घुमायेंगे, फिर सब लोग जुबिली पार्क में बैठकर खाना खायेंगे. प्रमोद और गीता दूसरी गाड़ी से गरमा-गर्म खाना लेकर सीधे जुबिली पार्क पहुचेंगे. दीपू ने अपना क्रिकेट बैट-बॉल, विकेट, फ्रिस्बी रख लिया और दिव्या ने बैडमिंटन रैकेट और ढेर सारे पुराने गानों के कैसेट्स भी... नानी को पुराने गाने सुनने का शौक है, दिव्या जानती है.... सब लोग मिलकर कितनी मस्ती करेंगे, दिव्या मन ही मन नानी को धन्यवाद देने लगी ... खूब खेलेंगे, बातें करेंगे सोच-सोचकर दिव्या-दीपू रात भर नहीं सोये और बगल में सोई नानी को भी नहीं सोने दिया.

आज वह दिन आया है जिसका दिव्या दीपू हर छुट्टियों में इंतजार करते हैं लेकिन हर बार उनके अरमान अधूरे रह जाते हैं. मम्मी-पापा को तो बस काम-काम और काम की ही धुन लगी रहती है. शनिवार हो या इतवार मीटिंग्स...मीटिंग्स..... जिन बच्चों को सुबह उठाने में सारे घर में कोहराम मच जाया करता, वे आज सुबह से ही नहा-धोकर मम्मी-पापा के उठने का इंतजार कर रहे थे.

आज वे शांत बैठे थे और उन्हें कोफ्त भी नहीं हो रही थी. शनिवार-इतवार को मम्मी-पापा देर से उठते हैं और बच्चों को सख्त हिदायत थी कि उनके उठने तक कोई शोर-शराबा नहीं होना चाहिए. इस बात पर बच्चों को बड़ी कोफ्त होती क्योंकि उन्हें भी तो यही दो दिन मिलते हैं फुल वॉल्यूम में सुबह-सबेरे म्यूजिक सुनने के, लेकिन मम्मी से यह बात कहने की दोनों में से किसी की हिम्मत न होती. नौ बजने को थे, अब तो नानी भी तैयार होकर आ गई थी. तभी लगातार फोन की घण्टी बजने लगी. दीपू बहुत खुश हुआ अब मम्मी उठ जायेंगी और उसके ऊपर कोई इल्जाम भी नहीं लगेगा. लेकिन दिव्या सशंकित थी. कही फिर से मम्मी को हमेशा की तरह कोई अत्यावश्यक काम से ऑफिस न जाना पड़ जाये. फिंगर्स क्रॉस करके आँख बन्द करके वह मनाने लगी, ‘‘नहीं भगवान आज नहीं, आज मम्मी को ऑफिस न जाना पड़े, नहीं तो नानी क्या सोचेंगी. मम्मी नहीं जायेंगी तो पापा भी मना कर देंगे. हे भगवान! हे भगवान!’’

लेकिन वही हुआ जिसका दिव्या को डर था. मम्मी नाइट-गाउन में कमरे से निकल कर उनके सामने अपराधी मुद्रा में सिर झुकाये खड़ी थीं. वातावरण में छाई उत्साह की गर्मी गैस वाले गुब्बारे की तरह फुस्स हो गई. दिव्या अपने कमरे में जाकर मुँह ढाँप कर सो गई और दीपू झनक-पटक करने लगा. बच्चों का व्यवहार देखकर आकांक्षा की अपराध भावना क्रोध में बदल गई,’’ देखा माँ ... क्या मैं जानबूझकर ऐसा करती हूँ. पर ये लोग कुछ समझना ही नहीं चाहते हैं. इन्हें जो चाहिए लाकर देती हूँ, हर खुशी, हर सुख मुहैया कराने के बाद मुझे क्या मिलता है, इनकी बेरुखी और ताने. समझाओ इन्हें .... माँ हूँ मैं इनकी, कभी प्यार से दो बात नहीं करते.’’ आकांक्षा उल्टे पैरों अपने कमरे में चली गई. जाते-जाते सुलक्षणा की आवाज उसके कानों में पड़ी, ‘‘उनके साथ तुम्हें भी समझाना है बेटा.’’

आज इतवार है. दिव्या सुबह से ही किसी का इंतजार कर रही है. नानी को भी उसने जल्दी तैयार हो जाने का हुक्म सुना दिया है, लेकिन मम्मी-पापा से वह यह बात राज ही रखना चाहती है, इसलिये सब तैयारी गुप-चुप हो रही है. नौकरों से नाश्ता मँगवा लिया गया है. लॉन में कुर्सियाँ सज गई हैं. इतवार को ग्यारह बजे से मम्मी का स्टडी में बैठकर हफ्ते भर का पेपर व मैगजीन पढ़ने का समय होता है, इसीलिये दिव्या ने सुकुमार को ग्यारह बजे का समय दिया है. वह उसे पहले नानी से मिलवाना चाहती है.

सुलक्षणा को बीती रात की बातें याद आने लगीं. जब उन्होंने उसे कुछ समझाना चाहा तो वह फफककर रो पड़ी और कहने लगी,’’ नानी आप बहुत याद आ रहीं थी. काश ! ऐसा तब हुआ होता जब हम आपके पास रहने आते हैं.’’...वह दिव्या के मासिक धर्म का पहला दिन था. यद्यपि उस बात को बीते कई साल हो गये थे लेकिन दिव्या आज भी उस दिन को याद करके भावुक हो उठती है. वे सोचने लगीं जब आकांक्षा ने जवानी की इस पहली सीढ़ी पर कदम रखा था .... उस दिन वह उनकी गोद में सिमट कर कितना रोई थी. गुड़ी-मुड़ी सी बस कभी दर्द से, कभी शर्म से, तो कभी भविष्य की आशंका से बुरी तरह डरी हुई थी. एक खाली, निस्तब्ध कमरे में केवल वे दोनों बिना कुछ कहे, बिना कुछ सुने एक दूसरे की भावनाओं को पीती चली जा रही थीं. उनके प्यार भरे स्पर्श में, पता नहीं क्या जादू था, कि घंटे भर बाद जब आकांक्षा ने सिर उठाया था तो वह मुस्कुरा रही थी. सुलक्षणा का मन दिव्या के लिये भीग गया था. उसके बाद दिव्या ने सुकुमार से अपने सम्बंधों की बात कितनी सहजता से नानी को बता दी थी और हल्का महसूस करने लगी थी. सुलक्षणा ने सोचा बच्ची है, सहज आकर्षण को प्यार समझ बैठी है. शायद किसी से अंतर्मन की बातें करने की स्वाभाविक इच्छा उसे उस ओर ले जा रही है, जो उसकी उम्र में गलत कही जायेगी. सुलक्षणा परेशान हो उठी. आज उन्हें आकांक्षा से बात करनी ही होगी. सोचते-सोचते रात बीत गई.

सुकुमार शायद आ गया था क्योंकि दिव्या बाहर बगीचे से नानी ... नानी पुकार रही थी. सुकुमार ने नानी का स्वागत बड़ी सहजता व अदब से किया. वे बातें करने लगे. सुकुमार को घर की छोटी-छोटी बातें पता थी. वे दोनों बेशक एक ही स्कूल में पढ़ते थे लेकिन दिव्या 8वीं में थी तो सुकुमार 10वीं कक्षा का विद्यार्थी था. फिर इतनी घनिष्ठता कैसे? सुलक्षणा सोचने लगी. उनकी जिज्ञासा प्रश्नवाचक चिन्ह बन उनके चेहरे से झाँक रही थी जिसे दिव्या ने झट पढ़ लिया और बोली,

‘‘नानी, मैथ्स व फिजिक्स में सुकुमार क्लास में टॉप करता है, और मैं एकदम फिसड्डी हूँ इसलिये मुझे जब कुछ पूछना होता है मैं इसे बुला लेती हूँ. सुकुमार दीपू की ड्राइंग भी बना देता है.’’

तनिक रुककर दिव्या कुछ सोचने लगी फिर बोली, ‘‘नानी, वह लाल वाला बैग जो आपको बहुत पसन्द आया था. सुकुमार की मम्मी बैंकॉक से लाई थीं मेरे लिये.’’ सुलक्षणा ने धीरे से दिव्या से पूछा, ‘‘क्या यह बात तुम्हारी मम्मी जानती हैं?’’ दिव्या बोली, ‘‘मम्मी को तो बस अच्छे नम्बरों से मतलब है, सुकुमार को मम्मी से डर लगता है इसलिये वह उनके आफिस से लौटने से पहले चला जाता है. नानी सुकुमार मेरा बहुत ध्यान रखता है. नानी आपको सुकुमार अच्छा लगा न...

‘‘हाँ....’’ सुलक्षणा ने कह तो दिया पर वे निश्चिंत न हो सकी.

‘‘आकांक्षा मुझे तुम्हें कुछ बताना है लाडो..’’ ‘‘हाँ.. माँ.. बोलो न..’’ आकांक्षा ने बड़ी सी जम्हाई लेते हुए कहा. रात के खाने के बाद जब सब लोग अपने-अपने कमरे में सोने चले गये तब सुलक्षणा ने आकांक्षा को रोक लिया और वहीं डाइनिंग टेबल पर बैठ गई. कुछ देर चुप रहने के बाद सुलक्षणा बोली,

‘‘दिव्या अशांत है ... वह तुमसे बहुत कुछ कहना चाहती है, पूछना चाहती है. अपने सवालों को अपने में समेटे बस तुम्हारा चेहरा देखती रही है. आज वह उम्र की उस दहलीज पर खड़ी है जिसके एक तरफ चकाचैंध कर देने वाली हसीन दुनिया है, अपनी ओर आकर्षित करते सजीले नौजवान हैं, क्लब-पार्टीज और मनमानी करती सहेलियाँ हैं तो दूसरी ओर उसके मन का भय, सही-गलत का फैसला न कर पाने की मजबूरी, शारीरिक बदलाव से उत्पन्न मानसिक कशमकश है. उसके हृदय की बेचैनी उस समय अपराध बोध में बदल जाती है, जब वह तुमसे तुम्हारा अमूल्य समय माँगने की बात सोचती है.’’ सुलक्षणा पल भर के लिए रुकी.

उन्होंने देखा कि आकांक्षा की नींद जैसे हवा हो गई है. उसने पूछा, ‘‘क्या कह रही हो माँ? क्या दिव्या ने तुमसे कुछ कहा?’’

‘‘यह कहने सुनने की नहीं समझने की बात है बेटा. वह तुमसे कुछ भी खुल कर कह नहीं पाती. तुम्हारे गरिमामय व्यक्तित्व के सामने उसे अपनी समस्याएं बेहद बौनी, छिछली, असंगत या बेवकूफी भरी लगती हैं. क्या तुमने कभी नोटिस किया है कि वह तुमसे कितने नपे-तुले शब्दों में बात करती है. कभी-कभी तो अपनी बेलगाम हँसी भी रोक लेती है कि कहीं तुम उसे फूहड़ या गँवार न कह दो.

दिव्या मुझसे चौबीसों घंटे प्रश्नों की झड़ी लगाए रहती है, खिलखिलाकर हँसती है, और लिपटने-चिपकने में भी संकोच नहीं महसूस करती, वही तुम्हें देखते गम्भीर व चुप सी हो जाती है, जैसे घुमड़-घुमड़ कर बरस चुकने के बाद वातावरण में नीरवता छा जाती है. पेड़ों पर अटकी दो चार बूँद जैसे कभी कदा टपक जाती है, बस उतना सा वार्तालाप करती है वह तुमसे. बेटा कम से कम एक बार तुम्हें अपनी गुरुता का मुखौटा उतारना ही होगा.’’

टेबल पर रखे पानी के जग से उन्होंने अपने व आकांक्षा के लिए दो गिलासों में पानी डाला, पिया और ‘‘मेरी बात पर गौर करना’’ कह कर सोने चली गई.

अगले कुछ दिन अन्य दिनों की तरह बीतने लगे. नानी बच्चों के साथ कभी शतरंज खेलती तो कभी ताश. बच्चों को लेकर लम्बी वॉक पर निकल जातीं तो कभी बढ़िया सा नाश्ता बनाकर बच्चों के दोस्तों को ‘डे-स्पेण्ड’ करने के लिए बुलाती. एक महीना पलक झपकते बीत गया और नानी के लखनऊ वापस जाने का दिन आ गया. दोनों बच्चों ने नानी को अश्रुपूर्ण विदाई दी और छुट्टियाँ होते ही उनके पास आने का वचन दिया.

आकांक्षा जब माँ के गले लगी तो उसकी आँखें भर आई थी, भरे गले से उसने कहा, ‘‘माँ माफ कर दो अपनी इस बेटी को, बच्चों के साथ तुम्हारा व्यवहार देखकर मैं जान पाई कि मैं कहाँ गलत थी, अब तक मैं इन्हें ही दोषी मानती थी.’’ फिर कुछ रुक कर बोली, ‘‘मैंने कुछ सोचा है माँ ... शीघ्र ही पत्र द्वारा तुम्हें सूचित करूंगी.’’ आकांक्षा ने अकुल के कंधों का सहारा लिया और बच्चों से छिपाकर अपने आँसू पोंछ लिए. एक-एक कर सभी ने सुलक्षणा के पैर छुए.

एक महीने बाद आकांक्षा का पत्र खोलते समय सुलक्षणा का हृदय काँप रहा था, पता नहीं क्या लिया है उनकी लाडो ने... बच्चे ठीक तो हैं न... कहीं उन्हें बहुत डाँट तो नहीं पड़ी... क्योंकि जब से वे लौट कर आई हैं बच्चों के हर दिन आने वाले फोन बन्द हो गये हैं. लेकिन जैसे-जैसे वे पत्र पढ़ती गई मन हल्का होता गया. दिल पर रखा भारी बोझ उतरता गया. आकांक्षा ने लिखा था.


‘‘माँ,

एक बार फिर से तुम्हें धन्यवाद देना चाहती हूँ. ऐसा लगता है जैसे मेरे बच्चे मुझे वापस मिल गये हैं. कितना उलझते थे मुझसे... दीपू तो हर किसी से चीखकर ही बात करने लगा था, इसीलिए मुझसे इतनी डाँट भी खाता था. माँ, तुम्हारे जाने के बाद मैंने व अकुल ने पूरे एक महीने की छुट्टी ली और डलहौजी में होटल बुक करा लिया बीस दिनों के लिए. हम चारों साथ-साथ रहे, खूब ताश खेले, कभी स्पेलोडान खेला तो कभी लम्बी दौड़ के लिए निकले. बच्चों को मनपसन्द खाना खिलाया और ढेर सारी बातें की. एक रात दिव्या मुझसे लिपट कर बहुत रोई, और दीपू पीठ के पीछे से चिपका रहा. दिव्या की शिकायतें वह भी सुन रहा था, और उसकी चुप में मानों उसकी भी स्वीकारोक्ति थी. मुझे याद नहीं कब आखिरी बार दीपू मुझसे इतनी देर चिपका था. क्योंकि मुझे बच्चों को इस तरह चिपकाना बिलकुल भी पसन्द नहीं है, पर माँ उस दिन मुझे उसका चिपकना सचमुच बहुत अच्छा लग रहा था. रात भर उनकी शिकायतों के साथ मेरा तकिया भीगता रहा. शायद वह हमारे आत्ममंथन की रात थी.... दूसरे दिन सुबह जब मैं बाथरूम से बाहर निकलीं तब मेरे गीले चेहरे को पीछे से, अपने चेहरे से ढकते हुए दिव्या ने कहा कि आई एम प्राउड आफ यू माम. मैं भी बड़ी होकर आपकी तरह बनना चाहती हूँ. उस समय मेरी आँखें छलछला गई और मन गदगद हो उठा. सच माँ मुझे मेरे बच्चे वापस मिल गये. धन्यवाद!’’


सुलक्षणा ने पत्र मोड़कर अपने श्रृंगार वाली सन्दूकची में सहेज कर रख दिया और उनका मन ऐसे हल्का हो गया जैसे बादल छँट गये हों.....


 

लेखक सुधा गोयल – परिचय




सुधा गोयल 'नवीन' एक कथाकार एवं कवियत्री के साथ-साथ एक समाजसेविका भी हैं। बहुभाषीय साहित्यिक संस्था 'सहयोग' से जुड़ने के बाद इनके साहित्यिक सफ़र को गति मिली और इनका लेखन अविराम चल पड़ा।

विभिन्न स्थानीय एवं राष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं में गद्य और पद्य में छपने के बाद इनके दो कहानी संग्रह को अप्रत्याशित सफलता और सराहना मिली। इनकी कहानियां एक पारदर्शी तरीके से ज़िंदगी से जुड़ी हैं। इन कहानियों में न तो चौंकाने वाले विषय हैं और ना ही दुखद शैली। सीधी....सच्ची.. और सरल कहानियां हमारे आस-पास को बहुत पास ला देती हैं...

सुधा जी की अधिकांश कहानियां मनुष्य की किसी एक मनोवृत्ति का यथार्थ चित्रण करती है. इन की कहानियों में घटनाओं का स्वतंत्र कोई महत्त्व नहीं है बल्कि उनका महत्त्व केवल पात्रों के मनोभावों को व्यक्त करने की दृष्टि से है।

इनके मनोवैज्ञानिक एवं संवेदनशील लेखन के कारण विभिन्न संस्थाओं ने इन्हें पुरुस्कृत किया है।

इस मकाम तक पहुंचने का सफ़र इतना आसान न था. आज से साठ साल पहले सुधा जी को उच्च शिक्षा के लिए यूनिवर्सिटी में लड़कों के साथ पढ़ने की इज़ाजत लेने के लिए अनशन करना पड़ा था।


सुधा गोयल 'नवीन'

3533 सतमला, विजया हेरीटेज, फेज़ 7

कदमा, जमशेदपुर - 831005

9334040697



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