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सुरेश उनियाल

लौट आओ मानसी



वह सुबह रमन के लिए खास मतलब रखती थी। वह उसकी शादी की पहली एनिवर्सरी की सुबह थी। रोज की तरह सिद्धेश्‍वरी देवी की ठुमरी के खरखराते स्‍वरों ने उसकी नींद तोड़ी थी। मानसी की पुरानी आदत थी कि सुबह उठते ही शास्‍त्रीय सुरों को सुनने की। अभी पूरी तरह से जागृत होने के लिए रमन अलसाई करवटें बदल रहा था कि तभी कमर पर गुदगुदी हुई। जब तक वह चिहुंककर पलटता, बाएं गाल पर दो होंठ सरसराते म‍हसूस हुए। इससे पहले कि वह मानसी को अपने आगोश में ले पाता, वह पलटकर पीछे हो चुकी थी। साइड टेबल पर चाय रखी थी। रोज की तरह ग्रीन टी। पहला कप वही मिलता था। बगल में अख़बार भी रखा था।

‘’हैप्‍पी फर्स्‍ट एनिवर्सरी मिस्‍टर रमन रहेजा। चाय को ठंडा होने से पहले पी लेना। बाथरूम में गीजर ऑन कर दिया है। एक घंटे बाद तुम्‍हारा ब्रेकफास्‍ट मेज पर लगा दिया जाएगा। त‍ब तक तैयार होकर आ जाना।‘’ यह रोज का कार्यक्रम था। आठ बजे नाश्‍ता। उसके बाद जरूरी फोन कॉल्‍स। अकसर होता यह कि कभी पड़ोस का माथुर इस समय आ जाता या कभी रमन उसके घर चला जाता। इस बीच मानसी भी नहा-धोकर नाश्‍ता कर चुकी होती। माथुर और रमन नौ बजे साथ ही दफ्तर के लिए निकलते। दोनों के दफ्तर अगल-बदल ही थे इसलिए वे लोग कार पूलिंग कर लिया करते। लेकिन आज ऐसा कुछ नहीं होना था।

‘’आज यह सब कुछ नहीं। आज पूरा दिन मस्‍ती का होगा। नथिंग रुटीन।‘’

‘’क्‍यों, आज दफ्तर नहीं जाना क्‍या?’’

‘’नो मैडम। आज हमारी एनिवर्सरी है। नो ऑफिस, नो हैंकी-पैंकी। सिर्फ मस्‍ती।‘’

रमन ने दफ्तर में पहले ही बॉस को बता दिया था कि आज नहीं आऊंगा। ऐसा खड़ूस बॉस तो वह था नहीं कि उनकी शादी की पहली एनिवर्सरी पर छुट्टी देने से इनकार कर देता।

रमन नाश्‍ते की मेज पर बैठा ही था कि दरवाजे की घंटी बजी। मानसी ने दरवाजा खोला। हाथों में गुलदस्‍ता लिए माथुर खड़ा था।

‘’हैप्‍पी एनिवर्सरी भाभी!’’ उसने मानसी के हाथों में गुलदस्‍ता पकड़ाते हुए कहा और सीधा नाश्‍ते की मेज पर उसकी बगल में आ बैठा।

‘’अब तू नाश्‍ता भी करेगा?’’

‘’क्‍यों नहीं करूंगा। इतनी सुबह उठकर मार्किट जाकर तुम्‍हारे लिए इतना खूबसूरत गुलदस्‍ता लेकर आया हूं और इसे नाश्‍ता कराने में भी परेशानी हो रही है।‘’

‘’तुम लोग क्‍यों बेकार में झगड़ रहे हो?’’ किचन के दरवाजे पर मानसी खड़ी थी, दोनों हाथों में नाश्‍ते की प्‍लेटें लिए।

‘’वही तो मैं इससे कह रहा था भाभी कि नाश्‍ता बनाएगी भाभी, लाएगी भाभी। फिर तू क्‍यों बीच में ही परेशान हुआ जा रहा है।‘’ माथुर ने मानसी को मस्‍का लगाया और हाथ बढ़ाकर दोनों प्‍लेटें बीच ही में अपने हाथों में ले लीं।

रमन और माथुर दोनों बचपन के दोस्‍त थे। अब दोनों साथ ही दिल्‍ली में और वह भी पड़ोस में रह रहे थे। उनके बीच बचपन की वह चुहल बनी रहती थी। इस एक साल में मानसी को भी इस सब की आदत पड़ चुकी थी और वह भी अकसर इसमें उनके साथ शामिल हो जाती थी।

नाश्‍ता देने के बाद मानसी नहाने के लिए चली गई थी। वे दोनों नाश्‍ते की मेज पर ही गप्‍पों में मशगूल हो गए। अकसर होता यह कि नहा चुकने के बाद मानसी चाय बनाकर वहीं ले आती थी। चाय पी चुकने के बाद नौ बजे वे लोग दफ्तर के लिए निकल पड़ते थे।

वे चाय का इंतजार कर रहे थे। नौ बजने में जब सिर्फ पाँच मिनट रह गए तो माथा ठनका। यह कहकर कि मानसी को देख आता हूं, देर क्‍यों लग रही है, रमन कमरे में गया। शादी के बाद से ही ये लोग नहाते हुए गुसलखाने का दरवाजा खुला ही रखते। (मेरे खयाल से आप यह फिजूल का सवाल नहीं पूछेंगे कि ‘क्‍यों?’)

दरवाजा खोला तो बाथ टब से पानी ओरवफ्लो होकर बाहर गिर रहा था। मानसी उसमें लेटी थी, निश्‍चेष्‍ट। सिर पानी के अंदर था। रमन ने जल्‍दी से जाकर मानसी का सिर उठाकर पानी से बाहर निकाला और हिलाकर होश में लाने की कोशिश करने लगा। फिर उसे टब से बाहर निकाला। तौलिया उसके ऊपर डाला और माथुर को आवाज दी। माथुर ने नब्‍ज देखी, नाक के सामने हाथ ले जाकर सांस को महसूस करने की कोशिश की और फिर परेशान बाहर की तरफ भागा।

रमन की समझ में कुछ नहीं आ रहा था। वह उसे हिलाकर होश में लाने की कोशिश कर रहा था। उसे यही लग रहा था कि मानसी किसी वजह से बेहोश हो गई है। थोड़ी कोशिश के बाद होश में आ ही जाएगी। इससे आगे की बात तो वह सोच ही नहीं सकता था। ऐसा कहीं होता है कि कोई शादी के एक साल बाद ही...

माथुर पास के क्लिनिक से डॉक्‍टर गुलाटी को बुला लाया था। गुलाटी ने नब्‍ज देखी। स्‍थैटेस्‍कोप से दिल की धड़कन परखने की कोशिश की और फिर इनकार में गरदन हिला दी।

रमन अभी तक मानसी को झिंझोड़कर होश में लाने की कोशिश कर रहा था। माथुर ने उसे खींचकर उससे अलग किया और जोर से हिलाते हुए कहा, ‘’किसको होश में लाने की कोशिश कर रहा है। मानसी भाभी हमें छोड़कर चली गई है।‘’

माथुर यह क्‍या कह रहा था। मानसी कैसे इस तरह हमें छोड़कर जा सकती है! इसका दिमाग खराब हो गया है क्‍या? रमन उसकी गिरफ्त से निकलने की भरसक कोशिश कर रहा था। मानसी को होश में लाए जाने की जरूरत थी।

‘’तू समझने की कोशिश क्‍यों नहीं कर रहा है। यह सिर्फ मानसी भाभी का शरीर है। उनकी आत्‍मा हमें छोड़कर जा चुकी है। यह मैं नहीं कह रहा हूं, डॉक्‍टर गुलाटी कह रहे हैं।‘’ माथुर ने उसका चेहरा मानसी की तरफ से हटाकर जबर्दस्‍ती डॉक्‍टर गुलाटी की ओर घुमाते हुए कहा। डॉक्टर गुलाटी सहमति में सिर हिला रहे थे। लेकिन रमन यह सब नहीं देख पा रहा था। उसका मन कहीं से भी यह स्‍वीकार करने के लिए तैयार नहीं था कि मानसी उसे इस तरह छोड़कर जा सकती है। अभी उसने दुनिया में देखा ही क्‍या है। अभी उनका वैवाहिक जीवन शुरू हुआ था। अभी तो उनके बहुत से सपने थे। उन सपनों को पूरा करना था।

रमन किसी तरह इस बात के लिए तैयार हुआ कि मानसी को अस्‍पताल ले चलते हैं। उसे होश में लाने के लिए यह जरूरी था।

मानसी में कुछ बचा होता तो अस्‍पतालवाले थी कुछ करते। वहां तो कुछ भी नहीं था। इतना जरूर पता चला कि मानसी की मौत ब्रेन हैमरेज से हुई। वह डायबिटिक थी। इनसुलिन लेती थी। डॉक्‍टरों का अनुमान था कि पिछले दिन किसी कारण शायद रात में खाना नहीं खाया होगा, इस वजह से शुगर लो हो गई होगी और मानसी इस और ध्‍यान देने के बजाय घर के काम में लगी रही होगी। शुगर ज्यादा लो होने पर ब्रेन हैमरेज हो गया। और तो कोई कारण नजर नहीं आ रहा था। रमन अगर शॉक में न होता तो वह बताता कि वास्‍तव में हुआ क्‍या था लेकिन वह तो कुछ बोलने की स्थिति में था ही नहीं।

अस्‍पताल की औपचारिकताएं पूरा करने में एक घंटा लग गया। सब काम माथुर ही करवा रहा था। रमन तो बबुए की तरह जहां माथुर कहता साइन कर देता, जो कुछ वह करने के लिए कहता, कर देता। उसे अपना कोई होश नहीं था। उसके लिए समय वहीं रुका हुआ था जहां वह और माथुर नाश्‍ते की मेज पर बैठे थे और मानसी नहाने के लिए गुसलखाने गई थी।

रमन के जिन रिश्‍तेदारों, दोस्‍तों के नंबर माथुर के पास थे, उन सबको उसने फोन कर दिए। अंतिम संस्‍कार की सभी औपचारिकताएं उसी ने पूरी की और रमन से पूरी करवाईं। चिता को अग्नि देने से लेकर कपाल क्रिया तक की सभी क्रियाएं हालांकि रमन हाथों हो रही थीं लेकिन वह तो जैसे इस सब को अपने सामने सिनेमा के परदे पर घटते देख रहा था। इस सबमें शाम हो गई।

घर लौटे। लगा वह घंटी बजाएगा और मानसी आकर दरवाजा खोल देगी। इसलिए रमन के हाथ अपनी जेब से चाबी निकालने के बजाय घंटी की तरफ बढ़े। घर की एक चाबी माथुर के पास भी रहती थी, उसने दरवाजा खोला।

रमन को लगा जब दरवाजा खुलेगा, मानसी सामने से आती हुई दिखेगी। लेकिन ऐसा भी कुछ न हुआ। अंधेरा होने लगा था। मानसी को अंधेरा जरा भी बर्दाश्‍त नहीं होता था। शाम ढलते ही पूरे घर की लाइटें वह ऑन कर देती थी।

‘क्‍या मानसी नहीं है?’ रमन ने खुद से सवाल किया।

‘हां, मानसी नहीं है। अभी तो हम उसका अंतिम संस्‍कार करके लौट रहे हैं।’ रमन खुद को यकीन दिलाने की कोशिश कर रहा था।

‘क्‍या सचमुच? या फिर यह कोई एक लगातार चलनेवाला सपना था जिसमें मैंने यह सब होते देखा था।’ उसका मन अब भी ऊहापोह में था।

माथुर के साथ सोफे तक आया और दोनों बैठ गए। रमन हवा में कहां घूर रहा था, इसकी उसे भी खबर नहीं थी। माथुर पानी का गिलास ले आया और रमन की तरफ बढ़ा दिया। उसने मशीनी ढंग से गिलास पकड़ा और पानी पीने लगा।

‘माथुर पानी का गिलास क्‍यों लाया?’ रमन खुद से पूछ रहा था।

‘इसलिए कि मानसी नहीं है। वह अब इस दुनिया से जा चुकी है। हम अभी उसका अंतिम संस्कार करके लौट रहे हैं।’ रमन खुद को बार-बार बताकर यकीन दिलाने की कोशिश कर रहा था कि मानसी इस दुनिया को छोड़कर जा चुकी है। अब वह उसके सामने कभी नहीं आएगी।

लेकिन मन था कि उसके किसी कोने में आस छिपी बैठी थी कि मानसी भला ऐसे कैसे जा सकती है। मजाक है क्‍या!

फिर भी ऊपर से उसे यही दिखाना था कि मानसी नहीं रही।

शोक प्रकट करने के लिए परिचित आ रहे थे। हालांकि माथुर ही उनसे ज्‍यादा बात करने की कोशिश कर रहा था लेकिन रमन भी अपने आप को सामान्‍य दिखाता हुआ, अब बात करने लगा था। वे लोग नाश्‍ते की मेज पर बैठे थे, मानसी नहाने गई और टब में ही न जाने कब उसने देह त्‍याग दी। अस्‍पताल भी ले गए लेकिन कुछ न हुआ। यह कहानी हर आगंतुक के सवालों के जवाब में वह सुना रहा था। लगभग मशीनी ढंग से। कुछ दूर के रिश्‍तेदार जो दिल्‍ली में ही रहते थे, आए। अपनापा दिखाने के लिए गल से लग कर उसे सांत्‍वना दे रहे थे। कायदे से तो ऐसे में रमन की आंखें तर होनी चाहिए थीं लेकिन उसका चेहरा भावहीन और आंखें सूखी थीं। सबको यही लगा मानसी की मौत ने उसे आघात पहुंचाया है और उसे इस तरह से भावहीन बना दिया है।

काफी देर तक लोग आते रहे। घर में कोई ऐसा न था जो किसी को चाय के लिए भी पूछता। कुछ परिचितों की पत्नियां उनके साथ आई थीं तो उन्‍होंने बाकी लोगों को पानी पिलाया। फिर धीरे धीरे लोग जाने लगे।

लोगों का जाना उसे राहत दे रहा था। उनके सवालों और सांत्‍वना ने उसे परेशान कर दिया था। जब सब चले गए तो माथुर ने पास के एक रेस्‍तरां में फोन करके खाना मंगवा लिया। दोनों ने ही लंच नहीं किया था। भूख लग आई थी।

रात में माथुर ने रुकने की इच्‍छा जताई तो रमन ने कहा, ‘’इसकी जरूरत नहीं है। मैं अपने आप को संभाल लूंगा। वैसे भी मैं कुछ देर अकेला रहना चाहता हूं ताकि अपनी स्थिति का एक जायजा ले सकूं। अब मुझ अकेले ही तो बाकी जिंदगी रहना है।‘’

जिस समय रमन माथुर से यह बात कह रहा था, वह खुद नहीं जान रहा था कि ये शब्‍द उसके मुंह में कहां से आए थे और कैसे निकल रहे थे।

वह एकांत चा‍हता जरूर था लेकिन क्‍यों चाहता था, यह वह नहीं जानता था।

माथुर चला गया था।


रमन अंदर जाकर बिस्तर पर जाकर लेट गया।

अपनी स्थिति वह अच्‍छी तरह समझ रहा था। जो कुछ उसके सामने घटा था, वह कोई सपना या मतिभ्रम नहीं था। मानसी सचमुच जा चुकी थी। अब वह लौटकर नहीं आएगी। इस बात को उसे अपने ऊपरी मन से ही नहीं, मन के भीतर के गहरे कोनों से भी स्वीकारना होगा। सचाई को स्‍वीकार करना जरूरी है क्‍योंकि आगे की जिंदगी एक भ्रम के साथ नहीं जी जा सकती। जिंदगी एक जगह ठहर भी नहीं सकती। वह तो निरंतर आगे बढ़ेगी। और सचाई को स्‍वीकार किए बिना ऐसा नहीं हो पाएगा।

वह आज दिन की घटी हर घटना को पूरी ऑब्‍जेक्टिविटी के साथ अपनी आंखों के सामने घटते हुए याद करने लगा। वह लगातार अपने आप को मानसी के न रहने का यकीन दिला रहा था। वह चाहता था कि सोने तक अपने भीतर के हर कोने के विश्‍वास दिलवा दे कि कल सुबह ज‍ब वह सोकर उठेगा तो मानसी नहीं होगी। वह अकेला होगा। उस समय ऐसा कुछ नहीं होगा जो मानसी के होते होता था। कोई शास्‍त्रीय सुर उसके कानों में नहीं गूंजेगा, कोई होंठ अलसाते रमन को जगाने के लिए उसके गालों पर नहीं सरसराएंगे। उसकी साइड टेबल पर कोई चाय का कप और अख़बार नहीं रखेगा। उसके नहाने के लिए गीजर ऑन करने वाला भी कोई नहीं होगा। अपने लिए जो भी करना होगा, वह खुद उसे ही करना होगा।

और आगे भी अकेला ही रहेगा।

अजीब बात थी, मानसी के न रहने की बात पर जितना वह खुद को विश्वास दिलाने की कोशिश करता, उतना ही उसे अपने प्रति अविश्वास होने लगता।

सोने से पहले मानसी पानी का एक गिलास ढककर साइड टेबल पर रख देती थी। आदतन रमन ने उस तरफ देखा। पानी का गिलास न पाकर रसोई में जाकर खुद अपने लिए पानी ले आया।

लाइट ऑफ की और सोने की कोशिश करने लगा। अचानक खयाल आया, घर की बाकी लाइटें तो जल रही हैं। उन्‍हें सोने से पहले मानसी ही ऑफ करती थी। सिर्फ एक एल.ई.डी. ऑन छोड़ देती थी ताकि घर एक दम से अँधेरा न हो जाए। लेकिन अब रमन का मन बाहर जाने का नहीं हो रहा था। वह लेटा रहा।

और पता नहीं कब उसे नींद आ गई।


सुबह उठा तो भीमसेन जोशी के गायन के सुर पूरे घर में गूंज रहे थे। अभी पूरी तरह से जागृत होने के लिए रमन अलसाई करवटें बदल रहा था कि तभी कमर पर गुदगुदी हुई। जब तक वह चिहुंककर पलटता, बाएं गाल पर दो होंठ सरसराते म‍हसूस हुए। इससे पहले कि वह मानसी को अपने आगोश में ले पाता, वह पलटकर पीछे हो चुकी थी। साइड टेबल पर चाय रखी थी। रोज की तरह ग्रीन टी। बगल में अख़बार भी रखा था।

‘’चाय को ठंडा होने से पहले पी लेना। बाथरूम में गीजर ऑन कर दिया है। एक घंटे बाद तुम्‍हारा ब्रेकफास्‍ट मेज पर लगा दिया जाएगा। त‍ब तक तैयार होकर आ जाना।‘’ कमरे से बाहर निकलती मानसी कह रही थी।

ग्रीन टी की चुस्कियां लेते हुए वह अख़बार के पन्‍ने भी पलटने लगा।

ब्रेन हैमरेज से किसी की मौत की खबर पढ़ी तो दिमाग में खटका हुआ। मानसी को तो कल...

चाय का कप रमन के हाथ में था। मानसी के होंठों का स्‍पर्श अभी तक वह अपने गालों पर महसूस कर रहा था। तो फिर कल जो हुआ, वह सब क्‍या था? कल वह खुद अपने हाथों से मानसी का अंतिम संस्‍कार करके आया था। माथुर पूरे समय उसके साथ था। अस्‍पताल ले जाने पर वहां के डॉक्‍टरों ने उसका डैथ सर्टिफिकेट इशू किया था। डैथ ब्रेन हैमरेज के कारण हुई थी। फिर मानसी इस समय घर में कैसे हो सकती है! कहीं उसका भूत...? लेकिन भूत-प्रेतों में तो रमन विश्‍वास नहीं करता था। कहीं ऐसा तो नहीं कि घर में कोई और हो जिसे रमन ने नींद की खुमारी में मानसी समझ लिया हो। कौन हो सकती है? माथुर की तो अभी शादी भी नहीं हुई थी कि सुबह उसे चाय देने के लिए उसकी पत्‍नी आ गई हो।

कनफ्यूज्‍ड रमन अख़बार वहीं पटक बाहर की तरफ भागा।

मानसी, या जो कोई थी हो, उसे इस समय रसोई में होना चाहिए। वह वहां नहीं थी। वापस भागकर ड्रॉइंग रूम में आया। मानसी दरवाजे से अंदर आती दिख रही थी। उसके हाथों में दूध के पैकेट थे। वह बाहर से दूध के पैकेट उठाने गई होगी। दूध बांटनेवाले लड़के की आदत थी कि आकर घंटी बजाता और दूध के पैकेट दरवाजे पर ही छोड़कर भाग जाता।

मानसी को देखते ही रमन भागकर उसके पास गया।

‘’मानसी, यह तुम ही हो! लेकिन तुम तो कल... !’’ रमन के मुंह से शब्‍द ही नहीं निकल पा रहे थे। उसे कुछ सूझ ही नहीं रहा था कि क्‍या बोले। कल ही तो मानसी... और आज सामने खड़ी है!

‘’हां, कल मैं चली गई थी और आज लौट आई हूं। इसमें इतना परेशान होने की क्‍या बात है?’’ मानसी के इतना सहज होकर जवाब देने से रमन और भी परेशान हो गया। वह सोचने लगा कि कल सारा दिन जो कुछ उस पर गुजरा था, वह कोई सपना या उसका मतिभ्रम था?

‘’वह सपना नहीं था।‘’ मानसी जैसे रमन के मन की बात समझती हुई बोली, ‘’मैं सचमुच जा चुकी थी। बहुत भयावह अनुभव था। लेकिन वहां लगता है उनसे पहचानने में गलती हो गई और उसके बाद उन्‍होंने मुझे वापस भेज दिया... बस इतनी सी बात है।‘’

यानी कल जो कुछ भी हुआ था, वह वास्‍तव में हुआ था और अब मानसी लौट आई है, अब वह लौट आई है, यह भी वास्‍तव में है। लेकिन ऐसा कभी देखा या सुना तो नहीं। हो सकता है, यह कोई अपवाद हो। रमन को खुद को मानसी के न रहने का विश्‍वास दिलाने में जितनी दिक्‍कत हुई थी उसके मुकाबले उसके लौट आने की बात पर विश्‍वास करने कहीं ज्‍यादा आसानी हुई।

उसने मानसी को अच्‍छी तरह छूकर देखा, आलिंगन में लिया, चूमा। वही थी, शत-प्रतिशत वही।

रमन ने

यह खबर सबसे पहले माथुर को ही देनी चाही। बेचारा उसके साथ कल कितना परेशान होकर घूम रहा था। लेकिन मानसी ने रोक दिया।

‘’तुम मुझे देखकर सरपराइज हुए थे न। तो फिर माथुर को सरपराइज करने का मौका क्‍यों छोड़ते हो! माथुर के रिएक्‍शन देखकर मजा आ जाएगा। तुम भी तो लल्‍लू जैसे बन गए थे।‘’ मानसी की बात सही थी। रमन खुद भी ऐसे किसी मौके को छोड़ना नहीं चाहता था। आखिर माथुर उसका सबसे पुराना और सबसे नजदीकी दोस्‍त जो था।

जिस मानसी को वह खो चुका था, उसका लौट आना रमन के लिए एक बहुत बड़ी बात थी। वह ज्‍यादा से ज्‍यादा समय मानसी के साथ बिताना चाहता था। वह बैडरूम में वापस जाने के बजाय मानसी के साथ ही किचन में चला गया और नाश्‍ता बनाने में उसकी मदद करने लगा। जब नाश्‍ता बन चुका तो मानसी ने उससे जल्‍दी से नहाकर आने के लिए कहा ताकि सही समय पर नाश्‍ता किया जा सके।

नाश्‍ते पर उसने मानसी को भी अपनी प्‍लेट पर साथ बिठा लिया। नाश्‍ता करीब-करीब खत्‍म किया ही था कि दरवाजे पर घंटी बजी। माथुर ही होगा। मानसी जल्‍दी से किचन में चली गई। रमन ने दरवाजा खोला माथुर ही था। वह माथुर को लेकर डाइनिंग टेबल पर आ गया।

माथुर नाश्‍ते के लिए उसे साथ लेकर बाहर जाने के इरादे से आया था लेकिन वह सहज होकर नाश्‍ता करते देख उसे राहत मिली कि रमन ने जल्‍द ही स्थिति को स्‍वीकार कर लिया है। कल रमन जिस तरह टूट गया लग रहा था, माथुर का खयाल था कि अभी वह बिस्‍तर से भी नहीं निकला होगा। लेकिन ऐसा कुछ नहीं था और वह अपने रुटीन में लगा हुआ था।

स्थिति देखते हुए माथुर ने कल की बातों का जिक्र करना उचित नहीं समझा। लेकिन उन फोन कॉल्‍स का तो माथुर भी कुछ नहीं कर सकता था जो रमन के परिचितों और रिश्‍तेदारों के थे। फिर भी उसे यह देखकर अच्‍छा लगा कि रमन उन सब से बहुत सहज होकर बात कर रहा था। ज्‍यादातर से उसका कहना था कि किस्‍मत में जो लिखा है, वह तो होना ही है। उसे कोई टाल नहीं सकता।

दिलचस्‍प बात यह है कि मानसी के बारे में किसी तरह की बात न तो रमन ने छेड़ी थी और न ही माथुर ने। दोनों के अपने-अपने कारण थे। रमन कोई ऐसा संकेत नहीं देना चाहता था कि मानसी लौट आई है वरना उसका सरपराइज धरा रह जाता। माथुर तो ऐसी किसी भी चर्चा से बचने की कोशिश कर रहा था जो रमन को एक बार फिर से असहज कर देती।

इस बीच रमन उठकर किचन में जाकर चाय भी बना लाया था। चा‍य तो हालांकि मानसी ने ही बनाई थी लेकिन वह चाय के कप लेकर तो बाहर नहीं आ सकती थी। रमन के हाथ में चाय के कप देखकर माथुर को आश्‍चर्य हुआ। किचन के किसी काम से रमन का कभी कोई वास्‍ता न रहा। शादी से पहले भी उसके लिए चाय, नाश्‍ता वगैरह पड़ोस के एक ढाबे से आ जाते थे। लंच वह दफ्तर में और डिनर अपनी शाम की बैठकबाजी से लौटते हुए किसी रेस्‍तरां में कर लिया करता था। लेकिन मानसी के जाने के बाद वह खुद चाय बनाकर ला रहा है।

दोनों ने चाय पी। नौ बजने को आए थे। माथुर जानता था कि रमन के आज ऑफिस जाने का तो सवाल ही नहीं था। इ‍सलिए वह उठकर चलने को हुआ। जाते हुए एक बात माथुर ने ऐसी बता दी जिसने रमन को डिस्‍टर्ब कर दिया। उसने बताया कि उसने कल मां को फोन करके बता दिया था। आज वह किसी भी समय पहुंचती होगी। मां को स्‍टेशन से लाने की रमन चिंता न करे क्‍योंकि वह ट्रेन का टाइम पता कर लेगा और ट्रेन के पहुंचने से पहले ही स्‍टेशन चला जाएगा।

कहने के बाद माथुर तो चला गया लेकिन रमन को चिंता में छोड़ गया। अगर मां को कुछ न बताया होता तो मानसी के जाने और फिर लौट आने की बात छिपाई भी जा सकती थी। लेकिन अब मां आएगी और घर में मानसी को देखेगी तो उसे समझाना बहुत मुश्किल होगा कि यह सब कैसे हुआ।

‘’कुछ भी मुश्किल नहीं होगा। मैं जैसे माथुर के सामने नहीं आई थी उसी तरह मां के सामने भी नहीं आऊंगी। इस तरह मां के लिए भी एक सरपराइज प्‍लैन कर लेंगे।‘’ रमन को पता ही नहीं चला कि कब मानसी किचन से आकर उसके पास सोफे पर बैठ गई थी। एक क्षण के लिए वह परेशान हो गया कि यह उसे बदली हुई मानसी क्‍यों लग रही है? उसके मन की बात बिना कहे ही न सिर्फ समझ जाती है बल्कि उसे सही रास्ता भी सुझा देती है। लेकिन फिर उसे लगा कि ऐसा कुछ नहीं है। उसने माथुर की बात सुन ली होगी कि मां आज किसी भी समय यहां पहुंच सकती है। आखिर मां को भी तो माथुर ने बता ही दिया होगा कि मानसी की मौत हो गई है। ऐसे में अचानक मानसी का मां के सामने आ जाना उसे डरा सकता था। आखिर मां पुराने खयालात की महिला थी और इस बात पर यकीन करना उसके लिए बहुत मुश्किल होगा कि मानसी उस दुनिया में जाकर वहां से लौट आई है। मानसी इसी मुश्किल का हल रमन को सुझा रही थी।

‘’वह तो ठीक है,’’ रमन को मानसी का सुझाव जम नहीं रहा था, ‘’लेकिन मां तो घर में रहेगी। कभी भी किसी भी कमरे में आ जा सकती है। ऐसे में मानसी कभी भी पकड़ी जा सकती है।

मानसी को ऐसी कोई आशंका नहीं थी। उसका कहना था कि मां हर समय कोई न कोई भजन गुनगुनाती रहती है। जब उसके कमरे की तरफ आने की आहट मिलेगी तो वह कमरे से लगे गुसलखाने में चली जाएगी।

‘’तुम ठीक कहती हो।’’ रमन को मानसी की समझदारी पर गर्व हुआ, ’’और फिर यह कुछ ही दिनों की बात है। धीरे-धीरे मां को समझा देंगे कि ऐसे चमत्‍कार अकसर नहीं, लेकिन कभी-कभार तो हो ही सकते हैं। और जब मां को यकीन हो जाएगा तब तुम उसके सामने आ जाना।‘’


वह उन दोनों के लिए एक नया हनीमून था जिसे वे अपनी शादी की पहली एनिवर्सरी के एक दिन बाद अपने ही घर में मना रहे थे। कम से कम मां के आने तक का समय उनके पास था। रमन ने पता कर लिया था कि मां की ट्रेन दो घंटे लेट है और मां के घर पहुंचने में तीन तो कम से कम बज ही जाएंगे। पूरे छह घंटे उनके पास अपने हनीमून के लिए थे।

लेकिन ट्रेन उनकी उम्‍मीद जितनी लेट नहीं थी। रास्‍ते में करीब एक घंटे का समय उसने कवर कर लिया था और जब माथुर मां को लेकर घर पहुंचा तो दो से कुछ ज्‍यादा बजे थे।

इस बीच रमन ने यह भी तय कर लिया था कि मां को कैसे संभालना है। वह जानता था कि मां को मानसी की मौत से बहुत आघात पहुंचा होगा। हालांकि मानसी को वह बहुत ज्‍यादा पसंद नहीं करती थी क्‍योंकि मां अपनी पसंद की किसी लड़की से रमन की शादी करवाना चाहती थी लेकिन रमन की जिद के आगे मां को इस शादी के लिए सहमति देनी पड़ी थी। लेकिन जो भी था अब मानसी उनकी बहू थी, उनके इकलौते बेटे की पत्‍नी।

दरवाजे की घंटी बजने से उठकर दरवाजे तक जाकर और दरवाजा खोलने के बीच के कुछ क्षणों में रमन ने अपने आप को ऐसे व्‍यक्ति के रूप में ढलने की कोशिश की जिसकी पत्‍नी मर चुकी है और उसकी मां उसके पास आई है।

रमन के लिए राहत की बात यह थी कि उसने जैसा सोचा था, मां उतनी विह्वल नहीं थी। रमन को देखते ही वह काफी देर तक उसके गले लगी रही। वह रो रही थी। मां के सामने रमन को यह दिखाना था जैसे मानसी के जाने से वह बहुत विचलित है। किसी तरह वह आंखों में आंसू ले आया था। चेहरे पर शोक भी दिखाई देने लगा था। काफी देर तक मां ही उसे सांत्‍वना देती रही।

जब मां बैठ गई तो वह खुद किचन में जाकर मां और माथुर के लिए गिलासों में पानी ले आया था। मानसी कमरे से किचन में पहुंच गई थी और चाय बनाने लगी थी। चाय लेने के‍ लिए रमन दोबारा किचन में आने को हुआ तो माथुर यह कहता हुआ खुद किचन की ओर बढ़ गया कि चाय वही बनाकर ले आएगा। रमन ने उसे रोकने की कोशिश की लेकिन माथुर किचन की ओर जा चुका था।

‘अब तो पकड़े गए!’ रमन ने सोचा। लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ था। रमन ट्रे में चाय के कप रखकर ले आया था। कप मेज पर रखता हुआ बोला, ‘’तूने बताया नहीं, चाय बना दी है।’’ इसका मतलब, मानसी माथुर की आहट पाने पर कमरे में चली गई होगी। सुविधा की बात थी कि हमारे बैडरूम का एक दरवाजा किचन के सामने ही थी और बिना किसी की नजर में आए एक जगह से दूसरी जगह पर जाया जा सकता था।

माथुर के सवाल का रमन ने जवाब नहीं दिया। यह सवाल उसने किसी जवाब की अपेक्षा में पूछा भी नहीं था।

मां का कमरा इस बीच उन्‍होंने तैयार कर दिया था। वह हॉल में दूसरी तरफ था। चाय पी लेने के बाद रमन के आग्रह पर मां अपने कमरे में चली गई थी। एक लंबी यात्रा के बाद वह आई थी। रात भर की जागी हुई भी होगी। आखिर बहू की असमय मौत ने उसे विचलित तो किया ही होगा। पैंसठ साल की उम्र में अब वह थकने लगी थी। यह बात रमन भी जानता था और माथुर भी।

मां के सोने के कमरे में जाने के बाद माथुर कुछ देर और रुका। वह जानना चाहता था कि मां के आने के बाद घर की व्यवस्था क्या अकेला रमन संभाल पाएगा। लेकिन रमन ने उसे सिर्फ इतना कहा कि वह मैनेज कर लेगा।

चिंतित माथुर वहां से विदा लेकर निकल गया।


रमन का व्यवहार माथुर की समझ में नहीं आ रहा था। पहले दिन वह देख रहा था कि मानसी की मौत ने रमन को बिल्‍कुल तोड़कर रख दिया है लेकिन आज वह बहुत सहज और संयत था। एक रात में इतना बड़ा बदलाव आखिर कैसे आ गया। या तो वह यह सब ऊपरी दिखावा है। लेकिन अपने को माथुर के सामने यह दिखावा क्‍यों? एक माथुर ही तो था जिसके सामने वह अपने मन के छिपे हुए भीतरी कोने भी उघाड़कर रख देता था। रमन एक भावुक आदमी था। जरा सी बात उसे विचलित कर देती थी। उसे हमेशा एक ऐसे आदमी की जरूरत होती थी जो उसके भावनात्‍मक आवेग को अपनी बातों से शांत कर सके। वह भूमिका माथुर ने स्‍वत: ही अपना ली थी।

माथुर को लगता था कि पहले दिन रमन जिस तरह विचलित था, उसे उसके भावनात्‍मक सपोर्ट की जरूरत होगी लेकिन जब उसने रात को उसे जाने के लिए कह दिया तब भी माथुर को यही लग रहा था कि रात को शायद रमन को एकांत चाहिए होगा, लेकिन अगले दिन उसे जरूर उसके सहारे की जरूरत होगी। अगले दिन माथुर की आशा के विपरीत वह बिल्‍कुल सहज दिख रहा था। उसके आने से पहले ही वह डायनिंग टेबल पर बैठा नाश्‍ता कर रहा था। यह कैसे हो गया कि रसोई के काम से हमेशा दूर रहनेवाला रमन अपना नाश्‍ता खुद बनाकर खा रहा है?

इससे माथुर के मन में खटका हुआ कि जरूर उसके साथ कुछ ऐसा हुआ है, जिसका माथुर को न तो पता है और न अनुमान।

बात जो भी हो, माथुर के लिए यह एक राहत की बात होनी चाहिए थी कि उसके दोस्‍त ने खुद को संभाल लिया है। तो फिर वह परेशान क्‍यों हो रहा है?

शाम को माथुर अपने घर जाने के बजाय सीधे रमन के घर चला गया। वह अपने साथ नाश्‍ते के लिए कुछ ताजा बने समोसे भी लेता गया था। मां ने सुबह से कुछ नहीं खाया होगा।

कुछ देर के आराम और गरम पानी से नहाने के बाद मां ने अपने को फ्रेश कर लिया था और रसोई संभाल ली थी। वह सबके लिए पोहा बनाने की तैयारी कर रही थी। उस शाम पोहे और माथुर के लाए समोसों से उन तीनों का नाश्‍ता हुआ।

एक बात मां को लगातार खटक रही थी कि घर में मानसी की मौत के बाद के धार्मिक औपचारिकताओं के संदर्भ में कुछ भी नहीं हो रहा है। अगर ऐसा नहीं हुआ तो बहू की आत्‍मा को प्रेतयोनि से मुक्ति कैसे मिलेगी! यह तो ठीक था कि बहू के अंतिम संस्कार की सभी औपचारिकताएं घाट के पंडित ने पूरी करवा दी होंगी लेकिन घर पर तो कुछ हो ही नहीं रहा था, ऐसा तो लग ही नहीं रहा था कि घर में किसी की मौत हो गई है। नाश्‍ते के समय मां ने इस बात का जिक्र छेड़ा।

रमन को खटका था कि मां जरूर इस बात को छेड़ेगी। आम तौर पर रमन को धार्मिक संस्‍कारों पर जरा भी विश्‍वास नहीं था लेकिन मां के कहने पर वह, जो कुछ वह चाहती कर दिया करता था। लेकिन इस बार वह मानसी की मौत के बाद की इन औपचारिकताओं को कैसे निभा सकता था। मानसी तो जिंदा थी। वह मरी जरूर थी लेकिन फिर लौट भी आई थी। ऐसे में उसे मरा मानकर यह सब वह कैसे होने दे सकता है! यह तो गलत होगा।

उसने मां को साफ मना कर दिया। जब उसका इस सब में विश्‍वास ही नहीं था तो फिर वह ऐसा करे ही क्‍यों? माथुर ने भी कहा कि विश्‍वास नहीं है तो कोई बात नहीं, मां का मन रखने के लिए ही कर ले। लेकिन अपनी बात से जरा भी नहीं डिगा।

और मां भी तो उसकी मां ही थी। उसने भी जैसे जिद पकड़ ली थी। काफी देर तक उसने और माथुर ने मां को मनाने की कोशिश की लेकिन वह भी न डिगी।

रमन को महसूस हो रहा था कि वह कमजोर पड़ रहा है। आखिर उसने फैसला किया कि वह मानसी के लौट आने का सच सबके सामने रख देगा।

उसने लगभग चीखते हुए कहा, ‘’जब मानसी मरी ही नहीं है तो मैं मौत के बाद की औपचारिकताएं उसके लिए कैसे निभा सकता हूं?’’ उसके शब्‍द लगभग पागलपन में निकल रहे थे। इससे मां और माथुर दोनों ही घबरा गए। इस बात का जिक्र आते ही रमन अचानक ऐसे क्‍यों बिफर गया? आखिर उन्‍होंने ऐसा कुछ तो कहा नहीं था जिससे रमन इस कदर भड़क जाता।

‘’रमन, समझने की कोशिश करो। मानसी भाभी अब इस दुनिया में नहीं है। अपने हाथों से ही तो तुमने उसकी चिता को अग्नि दी थी। तुम्हारी आंखों के सामने ही तो उसकी चिता राख बन गई थी और सब खत्‍म हो गया था।‘’ माथुर एक-एक शब्द को जैसे चबाता हुआ, साफ-साफ बोल रहा था।

‘’वह सब ठीक था। मैंने ही उसकी चिता को अग्नि दी थी। लेकिन अगली सुबह को वह लौट आई थी मेरे भाई। वह यहीं है, घर पर ही है। वह बता रही थी कि किसी गलती की वजह से उसे ले गए थे लेकिन अपनी गलती का पता चलते ही उसे वापस भेज दिया है। अब वह इस घर में लौट आई है।‘’

‘’ऐसा भी कहीं होता है! रमन, होश में आ। इस दुनिया से जाने के बाद कोई लौट कर नहीं आता। यही होता आया है। तेरे हिसाब से अगर वह लौट आई थी तो उसके लौटने की बात तूने तभी क्‍यों नहीं बताई?’’ माथुर सहज था।

‘’उसके लिए तो मानसी ने ही मना किया था। उसका कहना था कि यह अच्‍छा सरपराइज रहेगा। मैं खुद ही तुम्‍हारे और मां के सामने यह बात लाना चाहता था लेकिन इस तरह नहीं। फिर भी जब तुम यह सब जान ही चुके हो तो मैं मानसी को यहीं बुला लेता हूं।‘’ कहने के बाद उसने मानसी को जोर से आवाज दी, लेकिन वह नहीं आई।

‘’जरूर नाराज होगी कि मैंने बिना उसकी सलाह लिए इस सरपराइज को उजागर कर दिया। चलो तुम लोगों को उससे वहीं मिलवा लेता हूं।‘’

लेकिन कमरे में कोई होता तो रमन उससे मिलवाता। वहां तो कोई नहीं था।

‘’जरूर टॉयलेट में होगी,’’ कहते हुए रमन ने टॉयलेट का दरवाजा खोला तो वह वहां भी नहीं थी। सोचा रसोई में तो जरूर मिल जाएगी लेकिन रमन को आश्‍चर्य हुआ कि वह वहां भी नहीं मिली। पूरा घर छान मारा लेकिन मानसी का कुछ पता नहीं था।

इस स्थिति के लिए रमन बिल्‍कुल तैयार नहीं था। वह बिना किसी से बात किए सीधा अपने बैडरूम में गया और दरवाजा बंद कर दिया।

मां उसे परेशान देख उसके पीछे जाना चाहती थी लेकिन माथुर ने उसे यह कहकर रोक दिया कि उसे सोचने के लिए अभी कुछ समय दो। इस बीच मैं किसी साइकायट्रिस्‍ट से सलाह ले लेता हूं। वह बता सकेगा कि रमन की इस हालत में क्‍या किया जा सकता है।

कुछ देर वे लोग इसी पर चर्चा करते रहे और उसके बाद माथुर चला गया और मां रात के खाने की तैयारी के लिए रसोई में चली गई।


रमन के लिए परेशानी की बात यह थी कि मानसी घर से इस तरह कैसे गायब हो सकती थी वह भी किसी की नजर में आए बिना? कहीं ऐसा तो नहीं कि मानसी सचमुच उसका वहम हो। लेकिन ऐसा कैसे हो सकता है। आज दिन में मानसी के साथ उसका जो समय बीता, उसका एक-एक स्पर्श उसके जिस्म पर ताजा है। वह उसे अब भी महसूस कर सकता है।

उसकी सोच पर ब्रेक लगाती हुई कुछ ही देर में मानसी दरवाजा खोलकर कमरे में थी।

‘’तुम... कहां चली गई थी तुम? तुम्‍हारी तलाश में सारा घर छान मारा लेकिन तुम्‍हारा कहीं पता नहीं था।‘’ रमन बिस्‍तर पर अधलेटा था लेकिन मानसी को देखते ही उठकर खड़ा हो गया था।

‘’गई कहां थी। कुछ चीजें घर में खत्‍म हो गई थीं तो उन्‍हें लेने बाजार चली गई थी। और मैं जा भी कहां सकती थी।‘’

रमन ने उस पूरा किस्‍सा सुना दिया कि किस तरह मां और माथुर मानसी के अंतिम संस्‍कार की औपचारिकताएं पूरी करना चाहते थे लेकिन उसने ऐसा करने से इनकार कर दिया क्‍योंकि मानसी तो अभी जिंदा है। लेकिन जब उसकी तलाश की तो वह घर में कहीं नहीं थी।

‘’तो फिर अच्‍छा हुआ न। उसका सरपराइज अभी बरकरार है।‘’ मानसी यह सब सुनने के बाद भी सहज थी। लेकिन रमन की परेशानी खत्‍म नहीं हुई थी। उसके अंतिम संस्‍कार की बात मां फिर से उठा सकती है। हर बार तो उसे चुप नहीं कराया जा सकता। आखिर मानसी को उनके सामने आना ही पड़ेगा।

एक मन हुआ मां को बुला लाए और दिखा दे कि यह रही तुम्‍हारी बहू मानसी। तुम्‍हारे सामने जीती जागती खड़ी है। लेकिन मानसी अभी इसके लिए तैयार नहीं थी। उसका कहना था कि जैसे इस बार मां को चुप करा दिया वैसे ही अगली बार भी किसी और नाटक से मां को चुप कराया जा सकता है। फिर भी अगर रमन ने जबर्दस्‍ती उसे किसी से मिलवाने की कोशिश की तो वह सामने नहीं आएगी।

जब उन दोनों के बीच में ऐसी स्थिति आती थी तो हमेशा की तरह रमन को ही झुकना पड़ता था। इस बार भी कोई अपवाद नहीं था। लेकिन रमन की परेशानी कम नहीं हुई थी।


इस बीच माथुर एक साइकायट्रिस्‍ट से मिल आया था। रमन की पूरी हालत सुनने के बाद उसका खयाल था कि यह रमन मानसी से बहुत ज्‍यादा प्‍यार करता था और इस तरह अचानक मौत को वह स्‍वीकार नहीं कर पा रहा है। पहले दिन उसका चेतन मन ही इसे अस्‍वीकार कर रहा था लेकिन अगले दिन तक उसने किसी तरह अपने चेतन मन को मानसी की मौत का यकीन दिलवा दिया था। इसके बावजूद उसके अवचेतन ने इसे अभी तक स्‍वीकार नहीं किया है और अपने लिए एक मानसी गढ़ ली है। अवचेतन में घट रही बहुत सी घटनाओं को हम सपने के तौर पर देखते हैं। इनमें से कुछ दिवास्‍वप्‍न के तौर पर भी नजर आती हैं। लेकिन लगता है कि रमन के मन पर यह इतना प्रबल है कि उसके सामने यह वास्‍तविक छवि के रूप में आ रही है। यह बहुत रेयर स्थिति है और स्थिति तक पहुंचे किसी मरीज से वह अब तक नहीं मिला है इसलिए एक बार मिलने के बाद ही यह बता सकेगा कि आगे क्‍या किया जा सकता है। वैसे उसके मस्तिष्‍क को बहुत ज्‍यादा तनाव से आराम दिलाने के लिए वह कुछ दवाएं दे रहा है लेकिन वास्‍तविक इलाज तो मिलने के बाद ही शुरू किया जा सकता है।

एक सलाह डॉक्‍टर ने यह भी दी थी कि अभी तक सिर्फ घर में रहते हुए ही रमन पूरा दिन, कल्‍पना में ही सही लेकिन मानसी के साथ रहता है इसलिए दूसरे किसी तरह के विचारों के आने की गुंजाइश ही नहीं रहती। ऐसे में बेहतर हो कि रमन को दफ्तर भेजा जाए। एक बात उसके दफ्तरवालों से कह दी जाए कि वे लोग उसके सामने मानसी का जिक्र भी न करें। ऐसे जताएं जैसे सब कुछ पहले जैसा ही चल रहा है। बॉस और दूसरे सभी साथी कोऑपरेट करने के लिए तैयार थे।

घर पर माथुर ने मां को पूरी बात बताने के बाद कहा कि वह भी रमन से मानसी का जिक्र बिल्‍कुल न करे। ऐसे दिखाए जैसे कुछ हुआ ही न हो। अपने बेटे की सलामती के लिए मां कुछ भी करने के लिए तैयार थी। उसने आश्‍वासन दिया कि उसके मुंह से मानसी का नाम तक न निकलेगा।

अगले दिन जब वह मां के सामने आया और मां ने उससे मानसी के बारे में कोई बात न की तो रमन को अजीब लगा। लेकिन फिर सोचा कि मां ने उसकी कल की बात पर यकीन कर लिया होगा कि मानसी मौत के मुंह से निकलकर लौट आ‍ई है। दिक्‍कत सिर्फ एक थी कि मां ज्यादा बात भी नहीं कर रही थी। उसकी रमन को ज्‍यादा चिंता नहीं थी। आखिर एक मां अपने बेटे से कब तक नाराज रह सकती है।

नाश्‍ते पर ही मां ने पूछ लिया, ‘’आज तो ऑफिस जाएगा न। बहुत दिनों से छुट्टी किये हुए है।‘’

उसे भी लगा कि अब सब ठीक है। मां के मन में मानसी को लेकर कोई सवाल नहीं हैं। अब मानसी को उसके सामने आना है या नहीं आना, या कब आना है, यह उसका सिरदर्द है। अब उसकी प्रेजेंस को प्रोटेक्‍ट करने की जिम्‍मेदारी उसकी नहीं है। अब वह ऑफिस जा सकता है।

‘’हां, कई दिन हो गए छुट्टी किये। आज ऑफिस जाना शुरू कर देता हूं।‘’ रमन ने कहा और फोन करके माथुर को भी बता दिया कि वह भी ऑफिस जाएगा। रमन ऑफिस के लिए निकलने ही जा रहा था। रमन का फोन आया तो उसके घर आ गया। तब तक रमन कमरे में जाकर तैयार हो गया था। मानसी उसे कमरे में नजर नहीं आई थी। यह बात उसने तब नोटिस की जब वह तैयार होकर बाहर निकलने लगा। उसे अपना पर्स और रूमाल चाहिए था। लेकिन वह यह भी जानता था कि पर्स और रूमाल दोनों किस ड्रॉर में रखे हैं। उसने मानसी को आवाज देकर बुलाने के बजाए खुद ही ड्रॉर खोलकर निकाल लिए और बाहर निकल गया।

माथुर आ गया था। दोनों बाहर निकले।


ऊपर से सब कुछ धीरे-धीरे सामान्‍य हो गया दिख रहा था। रमन को यह अजीब लग रहा था कि किसी भी बात में मानसी का जिक्र आने पर लोग बात बदल देते हैं। हालांकि ऐसा नहीं है कि पहले अकसर मानसी का जिक्र उनकी बातों में आता रहा हो। हां, इस बार इतना फर्क था। हो सकता है, माथुर ने सभी को बता दिया हो कि मानसी मरी नहीं थी, सिर्फ ऐसा भ्रम हुआ था कि वह मर गई है और इस बात की खबर सब जगह उड़ गई। लेकिन वास्‍तव में ऐसा कुछ नहीं हुआ है। उसने भी किसी से मानसी की बात नहीं छेड़ी।

अब माथुर को अपने अगले स्‍टेप पर काम करना था, रमन को साइकायट्रिस्‍ट से मिलवाना था। लेकिन वह सीधे रमन से यह तो नहीं बता सकता है कि यह साइकायट्रिस्‍ट हैं और यह उसके दिमाग से मानसी के ऑब्‍सेशन को निकालने का काम करेंगे। माथुर ने रमन को उसके बारे में यही कहकर मिलवाया कि यह उसके नए दोस्‍त हैं, अभिनव। ये लेखक हैं। बहुत अच्छी कहानियां लिखते हैं। उस दिन मुलाकात कैजुअली हुई थी, माथुर और रमन घर जाने के लिए दफ्तर से निकले थे। अभिनव मिले तो उनके साथ चाय का एक-एक कप लेने के लिए पास के एक रेस्‍तरां की ओर चल पड़े।

बातें भी यों ही इधर-उधर की होती रहीं। बातों में ही अभिनव ने रमन से उसके बचपन और शादी आदि की बातें पूछ डालीं। क्‍योंकि सारी बातें केजुअली ही हो रही थीं और अभिनव भी अपने बारे में बहुत कुछ बता रहा था इसलिए रमन को इस सब में कुछ नहीं खटका।

ये मुलाकातें यों ही कैजुअली अकसर होती रहीं। एक दिन शाम को माथुर ने रमन को फोन करके अपने घर बुला लाया कि अभिनव आया हुआ है। वह आ जाएगा तो थोड़ी देर की गप्‍पबाजी हो जाएगी। रमन काफी थका हुआ था लेकिन माथुर ने बुलाया तो कोई जरूरी काम ही होगा। यही सोचकर वह चला गया। जाने में कोई हर्ज नहीं था। यों भी घर में उसे कोई खास काम तो था ही नहीं। यों ही बोर होता हुआ पत्रिकाओं के पन्‍ने उलट रहा था।

बातों में ही जिक्र आया कि अभिनव आजकल जिस कहानी पर काम कर रहा है, वह एक फंतासी है। उसमें एक आदमी की पत्‍नी मर गई है और अब भी वह उसे जहां-तहां दिखाई दे जाती है। लेकिन जब वह उसके पास जाता है तो गायब हो जाती है। अब समझ में नहीं आ रहा है कि कहानी को आगे किस तरह बढ़ाया जाए। जब उसने माथुर से इस कहानी का जिक्र किया तो उसका कहना था कि रमन इस काम में उसकी मदद कर सकता है।

रमन को यह बहुत आसान लगा। उसने कहा, ‘’इसमें इतना परेशान होने की क्‍या बात है! वह मर जरूर गई, लेकिन फिर लौट आई होगी। मरकर लोग जहां जाते हैं, वह अपनी मर्जी से तो जाते नहीं होंगे, बुलाए जाते होंगे। और बुलाने में कभी कोई गलती भी तो होती होगी। जब उन्‍हें पता चला होगा कि उनसे गलती हुई है तो वापस भेज दिया होगा।‘’ रमन यह बात पूरे विश्‍वास के साथ कह रहा था। उसके शब्‍दों के पीछे के आत्‍मविश्‍वास को देखते हुए अभिनव की समझ में यह तो आ गया होगा कि केस काफी मुश्किल है।

‘’लेकिन ऐसा भी कहीं होता है?’’ अभिनव ने उसे कुरेदना चाहा।

‘’ऐसा रोज रोज तो नहीं होता लेकिन कभी-कभार तो हो ही सकता है। यह बिल्‍कुल सच्‍ची बात है, खुद मेरी... ‘’ वह कहते कहते रुका। यह वह क्‍या कर रहा था! अभिनव के साथ उसकी दोस्‍ती अभी ऐसी नहीं थी कि उसके सामने इस तरह हर बात खोलकर रख दी जाए। लेकिन बात तो उसने शुरू कर दी थी और उसे पूरा भी करना था। इसलिए उसने कहानी में अपनी जगह एक दोस्‍त का संदर्भ देते हुए बात को आगे बढ़ाया, ‘’मेरे एक दोस्‍त के साथ बिल्‍कुल ऐसा ही हुआ है। उसके पत्‍नी मरने के बाद लौट आई थी।’’

इसके बाद रमन काफी खुल गया था। अभिनव को लीड मिल गई थी और उसका सिरा पकड़कर उसने रमन से, जो कुछ उसके साथ हो रहा था और जो कुछ वह महसूस कर रहा था, सब निकलवा लिया था। हालांकि रमन यह सब दोस्‍त के साथ हुई घटना के तौर पर बता रहा था लेकिन अभिनव भी जानता था कि वह अपने बारे में ही बता रहा है।

‘’रमन, आपके दोस्‍त के इस किस्‍से से तो मुझे अपनी कहानी को आगे बढ़ाने में बहुत मदद मिलेगी। लेकिन कुछ चीजों पर मैं आपकी अपनी राय भी जानना चाहता हूं। मसलन यह कहानी आपके दोस्‍त ने सिर्फ आपको सुनाई ही है या आप भी लौट आने के बाद उसकी पत्‍नी से मिले हैं?’’

सवाल काफी सीधा था लेकिन इसका जवाब इतना सीधा नहीं था। दोस्‍त के नाम पर कहानी को विश्‍वसनीय बनाने के लिए जरूरी तो था कि वह कहता कि उसने देखा है, लेकिन वास्‍तव में तो मानसी किसी के भी सामने आने से इनकार कर रही थी। यानी अगर यह घटना सचमुच उसके किसी दोस्‍त के साथ घटती तो उसकी पत्‍नी भी मानसी की तरह किसी और के सामने आने से इनकार कर देती। और अगर वह झूठ कहता है कि उसने देखा है तो अभिनव के आगे के सवालों के जवाब देने में उसे इसी तरह के झूठ गढ़ने पड़ेंगे और जल्‍द ही वह झूठ पकड़ा भी जा सकता था। इसलिए उसने सच बताना सही समझा। उसने बताया कि दोस्‍त की पत्‍नी ने किसी के भी सामने आने से इनकार कर दिया था इसलिए वह उससे कभी मिल नहीं पाया।

‘’यानी कि आपने यह सब सिर्फ दोस्‍त से सुना है। अब मैं आपसे एक कल्‍पना करने के लिए कहता हूं। मान लीजिए दोस्‍त की जगह आप हैं। आपके साथ ऐसा हुआ है...’’

‘’यह आप क्‍या कह रहे हैं, अभिनव।‘’ रमन ने हालांकि यह बात अभिनव को संबोधित करते हुए कही थी लेकिन उसकी कड़ी नजर माथुर पर केंद्रित थी।

माथुर इनकार में सिर हिला रहा था कि उसने अभिनव को कुछ नहीं बताया। अभिनव को लगा, बात हाथ से निकली जा रही है। लेकिन बात को तो संभालना ही था।

‘’मैं तो आपसे सिर्फ कल्‍पना करने के लिए कह रहा हूं। यह हम लेखकों का तरीका है। जब किसी पात्र के बारे में कुछ लिखते हैं तो पहले उसकी जगह कल्‍पना में खुद को रखकर देखते हैं। ऐसा करने से ही तो उनके लेखन में विश्‍वसनीयता आती है। वरना तो पाठक को भी वह कोरी गप्‍पबाजी लगेगा। इसी तरह मैं आपके इस किस्‍से में विश्‍वसनीयता लाने के लिए ही आपसे अपने उस दोस्‍त की जगह खुद को रखने के लिए कह रहा था।‘’

एक हद तक रमन की शंका दूर हो गई थी लेकिन एक खटका जो रमन के मन पर बन गया था, वह बरकरार था। अभिनव को भी यही लग रहा था कि अब रमन से सवाल पूछने में उसे काफी सावधानी से काम लेना होगा।

‘’देखिए अभिनव,’’ रमन अपने शब्‍दों को काफी चबा-चबा कर कह रहा था, ‘’मैं जब इस पर पूरी तरह यकीन करता हूं, तभी तो मैंने यह बात इतने विश्‍वास के साथ आपको बताई है। अविश्‍वास का मुझे कोई कारण नहीं दिखता।‘’

अभिनव को लगा कि रमन या तो सही बात बताने से कतरा रहा था या फिर सवाल ही उसकी समझ में ठीक से नहीं आया है।

‘’नहीं, मेरा सवाल यह था कि अगर ऐसा कुछ आपके अपने साथ हुआ होता तो आपकी पहली प्रतिक्रिया क्‍या होती? यह सवाल मैं आपसे सिर्फ इसलिए पूछ रहा हूं, क्योंकि अपने उस पात्र की पहली प्रतिक्रिया को समझे बिना मैं उसकी विश्वसनीयता कैसे बनाए रख पाऊंगा!’’

अब रमन की समझ में आ गया था कि उसका यह सवाल निजी नहीं था, पूरी तरह प्रफेसनल था। अब उसे जवाब देने में कोई संकोच नहीं था, ‘’पहली प्रतिक्रिया तो मेरी भी वही होगी, जो किसी भी इनसान की होगी। मुझे उसे अपने सामने देखते हुए भी उस पर कतई यकीन नहीं करूंगा। पहले तो मैं यह तसल्‍ली करूंगा कि मैं सपना नहीं देख रहा हूं। फिर उसे छूकर देखूंगा। उसे उसी तरह महसूस करने की कोशिश करूंगा जैसे अपनी पत्‍नी को महसूस करता था। तब कहीं जाकर मैं यकीन कर पाऊंगा।‘’

‘’यह यकीन कितना मजबूत होगा? कुछ भी हो जाए, आप उस पर यकीन करते रहेंगे या आपके सामने कोई ऐसी बात आ जाए कि आप जो कुछ देख रहे थे, वह सब आपकी कल्‍पना में हो रहा था, जिसे आप अपने सामने होते सिर्फ महसूस कर रहे थे।‘’

‘’यह सब कल्‍पना कैसे हो सकता है जब मानसी मेरे सामने जीती जागती खड़ी है। मैं उसे पूरी नजदीकी के साथ, पूरी अंतरंगता कि साथ छू सकता हूं।‘’ रमन को पता ही नहीं चला कि अनजाने में वह दोस्‍त की जगह जैसे अपनी ही सफाई देने लगा था।

‘’लेकिन यह सब सिर्फ आप ही तो कर सकते हैं न। वह कभी किसी और के सामने जाने के लिए भी तैयार नहीं है। यानी सिर्फ आप ही हैं जो उसे देख सकते हैं, उसके होने को जान सकते हैं। क्‍या यह सब एक व्‍यक्ति की कल्‍पना की उपज नहीं हो सकता! अच्‍छा, आप एक कल्‍पना कीजिए। देखिए, मैं सिर्फ कल्‍पना करने के लिए कह रहा हूं, कि जिस तरह आपकी पत्‍नी अचानक लौट आई है, उसी तरह एक दिन फिर से चली जाए और आपको कहीं न दिखाई दे तो आप क्‍या करेंगे? आप किसी से उसके गायब होने की बात करेंगे तो वह आपकी बात पर यकीन ही नहीं करेगा क्‍योंकि उसने तो उसे लौटते देखा भी नहीं है।‘’ इस आशंका से रमन एक बार तो घबरा ही गया। सचमुच उसकी ऐसी किसी बात पर न तो मां यकीन करेगी और न ही, माथुर या कोई और जिसके सामने लौटने के बाद मानसी गई ही नहीं है।

अभिनव की बात में दम था। लेकिन यह रमन के घर का मामला है, कोई बाहर का आ‍दमी इसके बीच में कैसे बात कर सकता है। उसे गुस्‍सा तो बहुत आया लेकिन जवाब देने के लिए उसे शब्‍द ही नहीं मिल पा रहे थे। उसने चुप रहना ही बेहतर समझा। लेकिन गुस्सा उसके चेहरे पर देखा जा सकता था।

एक क्षण तक अभिनव ने अपनी नजरें रमन के चेहरे पर टिकाईं। वह समझ गया कि लोहा गर्म हो गया है। उसने एक और वार किया, ‘’क्‍या आपको कभी ऐसा नहीं लगा कि आपके सामने जो जीती-जागती खड़ी है, वह वास्‍तव में आपकी कल्‍पना है, आपके अवचेतन की देन है?’’

‘’ऐसा कैसे लग सकता था। वह रात को मेरे साथ बिस्‍तर पर होती थी। मेरे लिए खाना, नाश्‍ता और चाय भी बनाती थी। और मैंने उसका बनाया सब खाया भी है। माथुर भी एक-दो बार उसके हाथ की बनी चाय पी चुका है, भले ही वह यही समझता रहा कि यह मैंने बनाई है। मुझे तो कुछ भी बनाना नहीं आता। किचन का कोई काम कभी मैंने इससे पहले किया ही नहीं था।‘’

‘’रमन साहब, यह सब आप ही कर रहे थे। यह तो आप मानेंगे कि आपके हिसाब से मानसी के लौटने के बाद जब मानसी किचन में अपना काम कर रही थी तब आप भी उसके साथ होते थे, काम में उसका हाथ बटाने के लिए। वास्‍तव में आप सिर्फ हाथ ही नहीं बटा रहे थे, वह सब आप ही बना रहे थे। माना कि आपने पहले कभी कुछ नहीं बनाया लेकिन खाना बनाते अपनी मां को, अपनी पत्‍नी को देखा होगा। वह सब आपके अवचेतन में दर्ज होता गया होगा और जब जरूरत पड़ी तो उसने आप से करवा भी लिया।‘’

‘’देखिए अभिनव साहब, अब तक मैं आपके साथ कोऑपरेट कर रहा था क्‍योंकि मुझे लग रहा था कि आप अपने पात्र को समझने के लिए मेरी मदद चाह रहे हैं, लेकिन मैं देख रहा हूं कि आप मेरे निजी क्षेत्र में हस्‍तक्षेप करने लगे हैं, जिसका हक मैं आपको नहीं दे सकता। मुझे लगता है, अब मुझे चलना चाहिए। इससे ज्‍यादा मैं आपकी कोई मदद नहीं कर सकता।‘’ अभिनव से उसने साफ शब्‍दों में कह दिया कि वह किसी भी तरह के तर्क क्‍यों न दे दे, मानसी के होने को लेकर न तो उसे कभी शक था और न कभी होगा। कहने के साथ ही रमन उठा और एक नजर हकबकाए हुए से माथुर पर डालते हुए, वहां से बाहर निकल गया।

‘’यह तो सारा मामला उलटा हो गया अभिनव। मुझे लगता है, हमारी अब तक की सारी मेहनत बेकार गई है। रमन तो टस से मस होता नजर नहीं आ रहा है।‘’ माथुर ने अपनी परेशानी इस सवाल के जरिए अभिनव की तरफ उछाल दी।

माथुर की अपेक्षा के विपरीत अभिनव बहुत सहज दिख रहा था। उसने सिर्फ इतना कहा, ‘’मैं इलाज रमन के चेतन मन के विश्‍वासों का नहीं, उसके अवचेतन का कर रहा हूं। अब तेल देखो, तेल की धार देखो माथुर साहब।‘’

माथुर की समझ में कुछ नहीं आ रहा है। लेकिन वह एक हद तक आश्‍वस्‍त जरूर हो गया।


वहां से अपने घर तक आने के बीच के आठ-दस मिनटों में उसके दिमाग में एक ही बात थी कि मानसी जब इतनी अंतरंगता के साथ उसके साथ थी तो फिर वह कल्‍पना कैसे हो सकती है! उसे तो वास्‍तविकता में ही होना चाहिए। ऐसा भी कहीं हो सकता है कि मानसी जो उसके सामने होती है, वह सिर्फ उसके अवचेतन में से आई है, वास्‍तव में तो वह कहीं नहीं है। लेकिन अगर ऐसा नहीं है तो वह दूसरे लोगों के सामने आने से इनकार क्‍यों कर रही है? इनकार करने के उसके अपने कारण हो सकते हैं लेकिन वे कारण मानसी ने कभी रमन को बताए क्‍यों नहीं? असल बात जो भी हो, मानसी के होने पर वह अविश्‍वास नहीं कर सकता तो नहीं कर सकता। फिर चाहे कोई भी अभिनव उसके मन में कितने ही शक पैदा करने की कोशिश क्‍यों न करे।

पता नहीं क्‍यों रमन को लग रहा था कि उसे भीतर ही कहीं कुछ ऐसा भी जरूर है जो उसे भटका रहा है। लेकिन उसे नहीं भटकना है।

घर पहुंचा तो मां ड्राईंग रूम के सोफे पर बैठी उसका इंतजार कर रही थी। तब उसका ध्‍यान इस और गया कि वहां बातों में बहुत देर हो गई थी। भूख भी उसे लग आई थी जो अब ज्‍यादा जोर मार रही थी।

‘’तू मुंह हाथ धो ले। तब तक मैं खाना गरम करके ले आती हूं।‘’ कहते हुए मां किचन में चली गई।

रमन बैडरूम में गया। वह मानसी को वह सब बता देना चाहता था जो माथुर के घर पर हुआ था। लेकिन मानसी कमरे में नहीं थी। कई बार वह इसी तरह किसी न किसी काम से बाहर निकल जाती थी और थोड़ी देर बाद लौट भी आती थी। खैर उसके लौटने पर बात हो जाएगी, यह सोचकर वह गुसलखाने में चला गया।

खाना खाकर कमरे में लौटा तो मानसी अभी नहीं लौटी थी। इतनी रात गए वह इतनी देर के लिए कहां जा सकती है? रमन परेशान हो गया। मां से वह मानसी के बारे में कुछ पूछ ही नहीं सकता था। मानसी उसके सामने तो कभी आती ही नहीं थी तो उसे बताकर कैसे जाती?

उसके मन में अभिनव की बातें घूमने लगी थीं। उसी सब के बीच में पता नहीं कब उसे नींद आ गई।


सुबह उठा तो अब्दुल हलीम जाफर खान के सितार के सुर पूरे घर में गूंज रहे थे। अभी पूरी तरह से जागृत होने के लिए रमन अलसाई करवटें बदल रहा था कि तभी कमर पर गुदगुदी हुई। जब तक वह चिहुंककर पलटता, बाएं गाल पर दो होंठ सरसराते म‍हसूस हुए। इससे पहले कि वह मानसी को अपने आगोश में ले पाता, वह पलटकर पीछे हो चुकी थी। साइड टेबल पर चाय रखी थी। रोज की तरह ग्रीन टी। बगल में अख़बार भी रखा था।

यह किसने रखा। तो क्‍या मानसी रात में आ गई थी जिसका उसे पता भी नहीं चला?

कनफ्यूज्‍ड रमन अख़बार वहीं पटक बाहर की तरफ भागा। रसोई में मां नाश्‍ते की तैयारी कर रही थी। बाहर की तरफ भागा। दरवाजा बंद था। दरवाजा खोला। दूध का पैकेट और सुबह का अख़बार वहीं पड़े थे। उन्‍हें लेकर वह अंदर आया। दूध किचन में मां को दे आया और परेशान-सा अख़बार लेकर बैडरूम की और लपका।

वहां कोई संगीत की धुन नहीं बज रही थी।

साइड टेबल पर चाय जरूर रखी थी लेकिन वह ग्रीन टी नहीं, साधारण चाय थी। मां रखकर गई होगी। अख़बार तो वह अभी लेकर ही आया था, उसके हाथ में ही था।

तो अभी कुछ देर पहले जो कुछ उसने देखा था, वह सब उसका भ्रम था! ठीक वैसे ही जैसे मानसी का होना एक भ्रम था।

लेकिन ठहरो रमन, मानसी का होना कोई भ्रम नहीं था। उसके होंठों का ताजा स्‍पर्श अब अब भी अपने गालों पर महसूस कर सकता था। बेशक वह मानसी ही थी।

लेकिन अगर मानसी नहीं थी, सिर्फ मानसी का भ्रम था तो? अगर यह मानसी के होने का भ्रम था और मानसी वास्तव में न होकर सिर्फ उसके अवचेतन में थी तब भी उसे कोई फर्क नहीं पड़ता। उसे मानसी चाहिए, अपने आस-पास चाहिए।

रमन का सिर भन्नाने लगा था। मानसी के न होने की कल्पना ही उसे परेशान करने लगी थी।

उसे माथुर और अभिनव पर गुस्सा आ रहा था। बिना नहाए, बिना नाश्‍ता किए वह सीधा माथुर के घर की तरफ निकल पड़ा। इससे पहले कि माथुर कुछ कहता, रमन ने मानसी के चले जाने को लेकर अपने मन की सारी भड़ास उस पर निकल दी। वह हड़बड़या सा सिर्फ सुनता रह गया, बीच में बोलने का मौका तो रमन उसे दे ही नहीं रहा था।

‘’तो फिर तेरी शिकायत क्‍या है? मानसी वास्तव में तो इस दुनिया से जा चुकी थी। जो भी था, वह तेरे मन का भ्रम था, तेरे अवचेतन की उपज था। वह दूर हो गया। देख मेरे भाई, मानसी अब नहीं है। वह इस दुनिया से जा चुकी है, तेरे दिमाग का एक खलल उसे तुझे दिखा रहा था। उस खलल को अब निकाल दिया गया है। वह भ्रम अब नहीं रहा। यह तो अच्छा ही हुआ न!’’ माथुर की समझ में नहीं आ रहा था कि रमन को तो खुश होना चाहिए था कि एक भ्रम हमेशा के लिए दिमाग से निकल गया। और वह उलटे नाराज हो रहा है!

‘’नहीं, बिल्कुल अच्छा नहीं हुआ। आखिर मानसी जब एक बार वापस लौट आई थी तो फिर जा कैसे सकती है। मैं उसे जाने नहीं दूंगा। ठीक है, अगर वह मेरे अवचेतन में है, वह मेरा भ्रम है। मैं उस भ्रम के साथ जी लूंगा। भाड़ में जाओ तुम! भाड़ में जाए अभिनव!’’ गुस्से से भरा रमन बिना माथुर का जवाब सुने, झटके सा बाहर निकल गया।

मानसी को वह अपनी जिंदगी से जाने नहीं दे सकता था। तो फिर यह लोग मानसी को वहां से निकालना क्यों चाहते हैं? जिंदगी उसकी, मानसी उसकी, वह इस सबमें कहां आते हैं? वह अब से उनकी परवाह नहीं करेगा। मां से भी कुछ नहीं कहेगा।

यह तो रमन की समझ में आ गया था कि अभिनव माथुर का कोई दोस्त नहीं था। मनोचिकित्‍सक था। उसके अवचेतन का इलाज कर रहा था। कल शाम माथुर के घर से जब वह निकला था तो माथुर ने कुछ दवाइयां उसे देते हुए कहा था कि इन्हें खाने से वह फ्रेश महसूस करेगा। एक गोली रात में उसने खा ली थी। शायद उसी गोली की वजह से आज मानसी नाराज हो गई और नहीं आई।

अब वह इन गोलियों को नहीं खाएगा। उसने उन्हें डस्‍टबिन में डाल दिया।

शाम तक रमन ने अपने आप को संयत कर लिया था।

इस बीच मां ने एक बार फिर मानसी की तेरहवीं का दिन नजदीक आने की बात याद दिलाई तो उसने बात को टाल दिया। उलटे मां को सलाह दे डाली कि तेरहवीं तो होती रहेगी, कोई बड़ा तामझाम तो करना नहीं है। उन्हें आए काफी दिन हो गए हैं, वहां भी तो बहुत से काम उनका इंतजार कर रहे हैं। और उसी दिन रात की ट्रेन से उन्हें वापस भिजवा दिया।

अब घर में ऐसा कुछ नहीं था जो मानसी को आने से रोक सकता था।


अगले दिन सुबह उठा तो ओंकार नाथ ठाकुर के गायन के सुर पूरे घर में गूंज रहे थे। अभी पूरी तरह से जागृत होने के लिए रमन अलसाई करवटें बदल रहा था कि तभी कमर पर गुदगुदी हुई। जब तक वह चिहुंककर पलटता, बाएं गाल पर दो होंठ सरसराते महसूस हुए। इससे पहले कि वह मानसी को अपने आगोश में ले पाता, वह पलटकर पीछे हो चुकी थी। साइड टेबल पर चाय रखी थी। रोज की तरह ग्रीन टी। बगल में अख़बार भी रखा था।

‘’चाय को ठंडा होने से पहले पी लेना। बाथरूम में गीजर ऑन कर दिया है। एक घंटे बाद तुम्हारा ब्रेकफास्‍ट मेज पर लगा दिया जाएगा। तब तक तैयार होकर आ जाना।‘’ कमरे से बाहर निकलती मानसी कह रही थी।

ग्रीन टी की चुस्कियां लेते हुए वह अख़बार के पन्ने भी पलटने लगा।

तो क्या सचमुच मानसी लौट आई है? यकीन करने के लिए वह उठकर रसोई में जाकर देखना चाहता था। लेकिन नहीं, अगर कहीं यह सब उसका भ्रम हो और रसोई में जाने के बाद टूट जाए तो क्या होगा? नहीं, वह मानसी का जाना अब अफोर्ड नहीं कर सकता। अगर मानसी एक भ्रम है तो भ्रम बना रहे।

लेकिन सच क्या है?

भाड़ में जाए सच। नहीं जानना उसे सच।

दरवाजे पर घंटी बजती है। जरूर माथुर होगा। लेकिन वह दरवाजा खोलने के लिए नहीं उठता। अगर मानसी होगी तो खुद दरवाजा खोल देगी। नहीं होगी तो ...


 

लेखक सुरेश उनियाल – परिचय

पिता का नाम: (स्व.) श्यामलाल उनियाल

जन्म तिथि: 4 फरवरी, 1947

जन्म स्थान: देहरादून, उत्तराखंड

शिक्षा देहरादून में। एम.एस-सी. (गणित) व एम.ए. (हिंदी साहित्य)

पूना स्थित फिल्म आर्काइव्स से फिल्म एप्रिसिएशन कोर्स

अनुभव: करीब चार दशक तक पत्रकारिता से जुड़े रहने के बाद

स्वैच्छिक सेवानिवृत्त।

1974 से 1977 तक नेशनल बुक ट्रस्ट के संपादकीय विभाग से संबद्ध

टाइम्स ऑफ इंडिया प्रकाशन समूह की कथा पत्रिका ‘सारिका’ के संपादकीय विभाग में करीब दो दशकों तक काम करने के अलावा टाइम्स ऑफ इंडिया समूह के अन्य प्रकाशनों ‘दिनमान टाइम्स’ और ‘सांध्य टाइम्स’ से भी संबद्ध।

अब स्वतंत्र लेखन।

पिछले करीब चालीस वर्षों से लेखनरत। कहानी, समीक्षा, साहित्य विषयक लेख, सिनेमा पर विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं के लिए लेखन। एक दशक से अधिक समय तक सांध्य आइम्स के लिए फिल्म, मीडिया और संगीत समीक्षा के नियमित कॉलम।


प्रकाशित पुस्तकें:

दरअसल (कहानी संग्रह)

यह कल्पनालोक नहीं (कहानी संग्रह)

कहीं कुछ गलत (कहानी संग्रह)

क्या सोचने लगे (कहानी संग्रह)

श्रेष्ठ कहानियां (कहानी संग्रह)

चुनी हुई कहानियां (कहानी संग्रह)

विज्ञान और विनाश (विज्ञान विषयक टिप्पणियां )

एक अभियान और (संपादित कहानी संकलन)

लगभग दो दर्जन पुस्तकों में सहयोगी लेखन

एक कहानी संग्रह, एक समीक्षा पुस्तक और एक संस्मरणाात्मक पुस्तक प्रकाशनाधीन हिंदी सिनेमा पर एक शोधपरक पुस्तक पर काम लगभग अंतिम चरण पर।

नेशनल बुक ट्रस्ट के लिए नेशनल बायोग्राफी सीरीज की

पुस्तक ‘द मदर’ का अंग्रेजी से हिंदी अनुवाद।

टाटा समूह के इतिहास की पुस्तक का अनुवाद ‘संपत्ति का सृजन’ राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित

नेशनल बुक ट्रस्ट के लिए ही नेहरू बाल पुस्तकालय श्रृंखला के लिए कुछ पुस्तकों के अनुवाद।

विभिन्न भारतीय और विदेशी भाषाओं में कहानियों के अनुवाद प्रकाशित


पुरस्कार: ‘यह कल्पनालोक नहीं’ कहानी संग्रह के लिए हिंदी अकादमी से साहित्यिक कृति सम्मान


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