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  • डॉ दिनेश पाठक 'शशि'

निरीह (द्वितीय पुरस्कृत)


जैसे-जैसे मेरे, सामने भीड़ बढ़ती जा रही है, वैसे-वैसे मैं अपने आपको जमीन से ऊपर उठता पा रहा हूँ। मेरी स्थिति पान चबाते, शान से सीना फुलाए, पालथी मारकर बैठे उस वक्ता-सी हो रही है जो ऊल-जुलूल कुछ भी बकते हुए, सामने की भीड़ को मूर्ख समझता है।

दरवाजे पर दस्तक के साथ ही भीड़ में एक और व्यक्ति की वृद्धि हुई और इसी के साथ मैं गर्व से सीना फुलाए एक इंच ऊपर और उठ गया।

तभी दरवाजा बन्द कर, धीमी गति से, लड़खड़ाते हुए मेरी ओर बढ़े आ रहे उस व्यक्ति से अचानक मेरी नजरें मिलीं। मेरे अन्दर कुछ अजीब-सा हुआ। मुझे लगा कि शायद इस आदमी से पहले भी कभी भेंट हुई है। यह आदमी शायद मेरा कोई परिचित ही है। या कि शायद किसी परिचित का कोई रिश्तेदार।

मैंने अपने सीधे हाथ के अंगूठे और मध्यमा उंगली की सहायता से एक बार माथे को दबाया। अपनी स्मरण-शक्ति को फिर से एक बार जोर डालकर झकझोरा। पर सब कुछ जाना-पहचाना-सा लगने के बावजूद मैं उसे पहचान न सका।

आगन्तुक की धीमी, लड़खड़ाती चाल से मुझे लगा कि शायद ऐसी ही किसी मिलती-जुलती चाल के आदमी से एक-दो बार नहीं, कई बार मेरा वास्ता पड़ा है।

हाँ, अब वह मेरे और नजदीक आ रहा है। जैसे-जैसे वह मेरे नजदीक आता जा रहा है वैसे-वैसे मुझे चारों ओर से घेरे खड़ी भीड़ के बावजूद वह कुछ अपना-सा कुछ पराया-सा तो फिर अपना-सा लगने लगता है। शायद थोड़ा और नजदीक आये तो पहचान ही लूँ उसे। हो सकता हे कि वह एकदम से परिचित ही निकल आये या फिर हो सकता है कि यह मेरा भ्रम ही सिद्ध हो। हो सकता है कि उस व्यक्ति को मैंने कहीं देखा ही न हो और वह भी ठीक उन्हीं लोगों की तरह एक ही उद्देश्य से मेरे पास आया हो। खैर, अगर उसका भी वही उद्देश्य है जो मेरे चारों ओर लगी भीड़ का तो मेरे लिए एक प्रत्याशी और बढ़ जाएगा, फिर मैं उसको भी इस भीड़ में सम्मिलित कर उससे भी वही सब प्रश्न करूंगा जो अब तक इस भीड़ के प्रत्येक व्यक्ति से कर चुका हूँ। और इस भीड़ के प्रत्येक व्यक्ति ने अपनी ओर से मुझे सन्तुष्ट करने का भरसक प्रयत्न किया है।

हो सकता है कि वह भी उसी तरह मेरे प्रश्नों के उत्तर दे और मुझे पूर्णरूपेण सन्तुष्ट करने का प्रयास करते हुए दीन-हीन की तरह मेरे समक्ष अपनी मजबूरी प्रकट करे। तब फिर मेरे लिए एक और समस्या खड़ी हो जाएगी। फिर मैं भीड़ से अलग हटकर, अन्य उस आगन्तुक की प्रतीक्षा करने लगूंगा जो मेरी सारी माँगे बिना किसी हील-हुज्जत के मानने को तैयार हो जाए। यदि ऐसा न हुआ तो? या इस परिचित-से लगने वाले आगन्तुक ने ही मुझे अपने वाग्जाल में फँसा लिया तो? तो फिर मैं भीड़ से अलग रखकर उसका तुलनात्मक अध्ययन करूँगा। यदि वह आगन्तुक अन्यों से इक्कीस भी निकला तो उसको कृतार्थ करने का मेरी ओर से वायदा।

मैंने देखा कि वह व्यक्ति मेरे और नजदीक आ गया है। उसकी चाल-ढाल, हाव-भाव और चेहरे की भंगिमा से लगा कि शायद ये कोई भटका हुआ राही है; जो इस भीड़ को देखकर गलती से इधर चला आया है।

मैंने गौर से पुनः उसकी ओर देखा, वह भीड़ को घूरता हुआ, मुझे लक्ष्य कर उसी चाल से बढ़ा चला आ रहा था। मुझे यकीन होने लगा कि यह राह भटका राही तो नहीं हो सकता। निश्चित ही कुछ उद्देश्य के साथ मेरी ओर आ रहा है।

अब मेरे और उसके बीच कुछ कदमों का फासला रह गया है। मैंने एक बार फिर से अपनी स्मरण-शक्ति पर पूरा जोर डालकर याद करने की चेष्टा की। अब वह आगन्तुक मेरे और भीड़ के बीच आकर खड़े होने के बाद, धीरे से भीड़ की ओर मुँह फेर लेता है। उसने चारों ओर नजर दौड़ाकर उस भीड़ का अवलोकन किया। भीड़ का कोई भी व्यक्ति हैसियत में उसे अपने से उन्नीस न जँचा तो एक निराशा का भाव उसके चेहरे पर छा गया। वह हताश-सा उसी दिशा में वापस होने लगा, जिधर से अभी-अभी वह चलकर आया था।

फिर अचानक वह रुका, जैसे कुछ याद आ गया हो। वह एकदम से मेरी ओर घूमा और मेरी तरफ बढ़ने लगा। मुझे लगा, कहीं यह व्यक्ति पागल तो नहीं या फिर.... मैंने मस्तिष्क पर जोर डाला ही था कि पलक झपकते ही वह व्यक्ति मेरे सामने एकदम निकट पहुँच गया।

मैंने पूरे गौर से, ऊपर से नीचे तक उसे देखा और एकदम से चौंक उठा। स्मृति-पटल पर छाये कुहरे के हटते ही मैंने उस आगन्तुक को पूरी तरह पहचान लिया।

एक महीने पहले ही उसकी पुत्री नीतू जो मेरी पत्नी भी थी, आग से जलकर मर गयी थी। अकसर ही वह गलती से गैस सिलेंडर के रेगुलेटर को नीचे से बंद करना भूल जाया करती थी। इस बात को कई बार मेरी माँ और बहन ने भी उसे समझाया था कि गैस को हमेशा ऊपर और नीचे, दोनों जगह से बंद करना चाहिए; लेकिन वह भी एक ही जिद्दी थी। हमेशा उसका एक ही जवाब रहता- ‘‘मैं जानती हूँ कि गैस कैसे प्रयोग करनी चाहिए। इसलिए हमेशा दोनों तरफ से ही बंद करती हूँ। फिर भी पता नहीं आप लोगों को कैसे खुली मिल जाती है।’’

खैर, जिद्दी आदमी की जिद एक न एक दिन उसे डुबोती तो है ही। नीतू के साथ भी वही हुआ। सुबह की चाय बनाने के लिए जैसे ही रसोई में घुसकर लाइटर जलाया कि फक्क्! सब देखते रह गये।

अस्पताल पहुँचते-पहुँचते नीतू की दशा काफी गम्भीर हो चुकी थी। टेलीग्राम मिलने पर जब नीतू के पिताजी आए तो अस्पताल के बर्निंग वार्ड में पड़ी नीतू की कुछ सांसे शेष थीं। जाते-जाते अपनी भूल कबूल करते हुए उसने प्राण त्याग दिये। एक आदर्श भारतीय पत्नी की तरह उसने अपने पति और ससुरालवालों पर दाग-धब्बा नहीं आने दिया। और इस तरह नीतू के पिता के पास रखे नीतू के पुराने पत्र जिनमें नीतू ने समय-समय पर ससुराल की ¬प्रताड़ना का जिक्र किया था और बार-बार दोहराया था कि ये लोग कसाई हैं, मुझे मार देंगे। मुझे यहाँ से ले जाओ आदि-आदि सब रखे के रखे ही रह गये।

नीतू के पिता को अब भी विश्वास नहीं हो रहा था कि नीतू गैस खुली छोड़ देने की भंयकर गलती कर सकती है। उन्हें अपनी पुत्री की तीव्र बुद्धि और कार्यक्षमता पर पूरा-पूरा यकीन था। अतः उनकी निगाहें मुझे अन्दर तक बेधने लगीं।

मैं सकपकाने लगा। चोर तो था ही मन में। मुझे पता था कि नीतू ठीक वैसी ही थी जैसा उसके पिता को विश्वास है। वह भूल नहीं कर सकती थी। पर वह अपने मायके से धन और सामान नहीं जुटा पा रही थी। शादी के समय रह गयी दहेज की कमी की पूर्ति भी तो होनी ही चाहिए थी न। माँ और बहन के षड्यंत्र में वह खुद भी शमिल था। गैस के पाइप को इस तरह काटने का कार्य कि लगे चूहे ने काटा होगा, उसने स्वयं किया था और नीचे से रेगुलेटर को खोल, रसोई को बंद करने का कार्य माँ और बहन ने पूरा कर दिया था।

अस्पताल से लौटते-लौटते नीतू के पिता की आँखें प्रतिशोध की आग में जलने लगीं। समाज में बदनाम करा देने और सजा दिलाने की धमकी देते हुए वह चले गये थे। पड़ोसियों की कानाफूसी ने उनके अन्दर धधकती आग में घी का काम किया और उन्होंने मेरे परिवार को दूर-दूर तक बदनाम करने का कार्य शुरू कर दिया।

मेरे परिवार की जड़ें हिलने लगीं। बदनामी के बाद कोई लड़की वाला दूसरी शादी के लिए भी नहीं झांकेगा; यही सोच एक बार तो सबने निर्णय लिया कि कहीं दूर भाग चलें जहाँ अपनी बदनामी न पहुँची हो पर तभी दो-दो, चार-चार कर इस भीड़ ने हमें घेर लिया। घबराहट तो हुई, पर भीड़ का मन्तव्य जान, हमने अपना निर्णय बदल दिया।

अचानक ही उस व्यक्ति यानी मेरे भूतपूर्व ससुर जी के उस भीड़ में आ जाने से मैं घबरा उठा। कहीं ये इस भीड़ को मेरे विरुद्ध भड़काकर मेरी पिटाई न करा दे या आगजनी, पत्थरवाजी-कुछ भी हो सकता है। भला भीड़ का भी कोई धर्म, जाति या देश होता है? जिधर चाहा तोड़ा-फोड़ा और फरार।

मेरी घबराहट बढ़ती जा रही थी। शायद ये मुझे अब पत्नीहन्ता, जलील, दहेज-लोभी और समाज के लिए कलंक-जाने क्या-क्या कह डाले। तब मेरी स्थिति क्या होगी? ये सारी भीड़ जिसे इन बातों का पता भी न होगा, मेरे सामने से उठकर चली जायेगी। तब गर्व से फूला मेरा सीना स्वतः ही अन्दर को धसक जाएगा तथा हवा में उछलता मैं धड़ाम से नीचे आ गिरूंगा।

प्रत्येक पहलू पर मेरी सोच जारी थी कि तभी एक घटना घटी, जो मेरे लिए आश्चर्य की बात थी। नीतू के पिता अचानक मेरी दिशा में घूमे और हाथ जोड़कर गिड़गिड़ाने लगे।

आपको भी बता दूँ कि वह जो मेरे सामने भीड़ लगी है, इस भीड़ का प्रत्येक व्यक्ति मेरे बारे में सब कुछ जानता है। यह भी कि मैंने ही एक माह पूर्व अपनी पत्नी का......।

पर ये भीड़ मुझे मारने या समाज से बहिष्कृत करने नहीं आयी है। इस भीड़ का प्रत्येक व्यक्ति एक पिता है। कुँआरी पुत्री का पिता, जो उनके रिश्ते के लिए मेरे पास आये हैं और इस समय सबसे आगे हैं मेरे भूतपूर्व ससुर जी, जो मेरी मृत पत्नी की छोटी बहन के रिश्ते के लिए मेरे सामने गिड़गिड़ा रहे हैं- एक पिता की तरह, बिलकुल पुत्री के एक निरीह पिता की तरह।

 

संक्षिप्त परिचय

नाम-डा.दिनेश पाठक ‘शशि’

जन्म- 10 जुलाई 1957 ई.

शिक्षा- विद्युत इंजीनियरिंग, एम.ए.(हिन्दी), पी-एच.डी. ( विषय-भारतीय रेल के साहित्यकारों का हिन्दी भाषा एवं साहित्य को प्रदेय)

प्रकाशन- कहानी,बालकहानी,बाल उपन्यास, व्यंग्य, लघुकथा, नाटक आदि की बीस पुस्तकें प्रकाशित एवं 16 पुस्तक और नौ पत्र-पत्रिकाओं का संपादन कार्य।

देश-विदेश की पत्र-पत्रिकाओं में सन् 1975 से कहानी,बाल कहानी, लघुकथा,समीक्षा,व्यंग्य एवं आलेखों का प्रकाशन एवं सन् 1980 से आकाशवाणी व दूरदर्शन से रचनाओं का प्रसारण।

चार कहानियाँ कक्षा-1,4 व 6 के हिन्दी पाठ्यक्रम में शामिल। एक बाल कहानी पर डाॅक्यूमेण्टरी फिल्म का निर्माण हुआ है।

आगरा वि.वि. से ‘कथा साहित्य शिल्पी डाॅ.दिनेश पाठक‘शशि’ : व्यक्तित्व एवं कृतित्व’ विषय पर शोध कर डा.शिखा तोमर ने पी-एच.डी. की उपाधि प्राप्त की है

भारत सरकार के प्रेमचंद एवं लाल बहादुर शास्त्री पुरस्कार तथा उ.प्र.हिन्दी संस्थान लखनऊ के श्रीधर पाठक-नामित पुरस्कार एवं अमृत लाल नागर बाल कथा सम्मान सहित दो दर्जन से अधिक संस्थाओं द्वारा पुरस्कृत/सम्मानित।

सचिव- पं.हरप्रसाद पाठक-स्मृति बाल साहित्य पुरस्कार समिति मथुरा

संरक्षक- तुलसी साहित्य एवं संस्कृति अकादमी, मथुरा

सम्प्रति- रेलवे के टीआर.डी. विभाग से एस.एस.ई. के पद से सेवा निवृत्त जुलाई-2017

मोबाइल-9412727361 एवं 9870631805

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ईमेल-drdinesh57@gmail.com

ब्लाग-www.drdineshpathakshashi.blogspot.com

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