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  • डॉ. रश्मि शील

बदलते रंग

नोटबंदी की खबर हवा की तरह फिज़ा में फैल गई। सब तरफ बस एक ही चर्चा हजार व पाँच सौ के नोट बंद। उनके स्थान पर दो हजार का नया नोट जारी हो गया। इस खबर को सुबह-सुबह अखबार में पढ़ते हुए डाक्टर निषीथ ने अपनी पत्नी से चुहल की ‘‘तो श्रीमती जी, अब तक तुमने जो धन छिपा कर रखा है, उसे बाहर निकालने का समय आ गया है। लाओ, अपने सारे हजार-पाँच सौ के नोट मेरे हवाले कर दो।’’

पत्नी यानी श्रीमती विनीता कौन सा कम थी, बोली ‘‘श्रीमान जी, आप फिक्र न करें, मैंने पूरा बन्दोबस्त कर रखा है, आपके हाथ एकन्नी भी न

लगने दूंगी।

पति-पत्नी के इस वार्तालाप को सुनकर कन्तो चौकन्नी हो गई। हे देवा, अब ये कौन सी मुसीबत आ गई। उसने फर्नीचर की धूल झाड़ते-झाड़ते पूछा, ‘‘क्या कह रही हो, बहू जी, अब हजार-पाँच सौ के नोट नहीं चलेंगे?’’

‘‘हां, हां चाची कल रात से ही हजार-पाँच सौ के नोट बंद हो गए हैं। तुम्हारे पास तो नहीं रखे हैं हजार-पाँच सौ के नोट?’’

‘‘ना, ना बहू जी हम गरीबों के पास कहां हजार-पाँच सौ? हम तो रोज कुंआ खोद के पानी पीने वाले मंजूर ठहरे। चार घर काम करके किसी तरह दो जून की रोटी का जुगाड़ कर पाते हैं।’’ कह कर वह अपने काम लग गई। कहने को तो उसने कह दिया, मगर वह जानती है कि उसके पास तीस-चालीस हजार के पुराने नोट धरे हैं। ये रुपये उसने अपनी बेटी सिया की शादी के लिए जोड़े है। वह तब से ही रुपये जोड़ रही है, जब से सिया पैदा हुई थी। लड़की की मां है, तो चार पैसे होना जरूरी है। इसीलिए उसे जब भी पगार मिलती है, वह कुछ पैसे जरूर बचा लेती है। मगर नोटबंदी की खबर ने कन्तो का जी सुखा दिया।

शाम को जब कन्तो सब घरों का काम निपटा कर घर आई तो सबसे पहले उसने चावल के कनस्तर में रखे लोहे के उस छोटे से डिब्बे को निकाला, जिसमें उसने रूपये तह करके रखे थे। चोर उचक्को के डर से वह रूपये कभी सन्दूक में नहीं रखती थी। वैसे तो सब जानते हैं कि वह घरों में बर्तन चौका करती है, मगर मेहनत मजदूरी करने वालों की इस बस्ती में सब के सब उठाइगीर है, मौका लगते ही घरों के बर्तन, कपड़े तक उठा ले जाते हैं, रुपये पैसे की तो पूछो ही मत। शराब, भांग, चरस, जुआ, सट्टा जैसी लतों से घिरे ये मानुष वनमानुष से कम नहीं।

कन्तो ने वह छोटा सा डिब्बा खोला तो उसमें हजार के तीस तथा पाँच सौ के बीस नोट सफेद कागज, जो पीला पड़ चुका था, में लिपटे रखे थे। वह बहुत देर तक नोटों को हसरत से देखती रही। हे ईश्वर, उसके जीवन भर की कमाई अब पूंजी नहीं, माटी हो गई। उसे विश्वास ही नहीं हो रहा था कि लाल-लाल, हरे-हरे ये करारे नोट अब काग़ज का टुकड़ा बन चुके हैं। तभी दरवाजे की कुंडी खटकी तो समझ गई कि सिया आ गई है। कन्तो ने नोटों को फिर से संभाल कर डिब्बे में रखा और दरवाजा खोलने चली गई।

रोज तो थकी हारी कन्तो क्षण भर में ही खर्राटे भरने लगती। मगर आज नींद कोसो दूर थी। मन में जाने कैसी उथल-पुथल थी। इतनी उदिग्न तो वह कभी नहीं हुई। क्या-क्या आफ़तें उस पर नहीं बीतीं, मगर उसने अपना धैर्य कभी नहीं खोया। एक आह लेकर उसने करवट बदली, तो उसने सिया को सोते देखा। सोचने लगी, उसकी बेटी भी क्या भाग्य लेकर आई है। जब वह पेट में ही थी, तभी उसके बाप ने उसका परित्याग कर दिया था। उसे याद आया, जिस दिन वह अपने मां बनने की खबर अपने पति रतन को देना चाहती थी, उसी दिन वह अपने लिए दूसरी ब्याहता ले आया था और उससे बोला था कि ‘अब यही मेरी पत्नी है, तुम इसको खुश रखकर ही इस घर में रह सकती हो, मगर उसने सौतन के साथ रहना मंजूर नहीं किया और अपने मायके आ गई। वही पर सिया का जन्म हुआ।

मायके में भी कौन सा सुख था। भाभी तो बात-बात में ताने मारती थी कि कैसी बेसउर है, अपने मरद को ही काबू में न रख सकी। कन्तो चुपचाप सुनती और आंसू बहाती। मां जब जिंदा थी फिर भी गनीमत थी। मां के न रहने पर तो उसका जीना दूभर हो गया। घर का सारा काम उसके जिम्मे छोड़ कर भाभी निश्चिंत हो गई। वह सारा दिन काम में खटती रहती, बेटी के लिए भी समय न मिलता। जब वह भूख से रोने लगती तब कन्तो उसे अपने आंचल से ढक कर दुग्ध पान कराती। भाभी को यह भी बर्दाश्त न होता। वह चिल्लाती, ‘‘अरी ओ महारानी, इतना सारा काम पड़ा है और मेम साहब आराम फरमा रही है।’’

‘‘नहीं, भाभी वो सिया भूख के मारे रो रही थी, इसीलिए इसे लेकर ज़रा सा लेट गई थीं।’’

‘‘ओफ़, सिया कोई राजकुमारी है जो जरा सा रो नहीं सकती। अभी खाना तैयार नहीं हुआ। बच्चे स्कूल से आएंगे तो क्या खाएंगे?’’

इसी तरह दिन-दिन करके समय बीतने लगा। जब सिया पाँच वर्ष की हो गई, तब कन्तो ने भाई से कहा था, ‘‘भइया, सिया का नाम स्कूल में लिखवा दीजिए।’’

जवाब भइया की जगह भाभी ने दिया था, ‘‘क्या करेगी पढ़-लिख कर?’’

‘‘भाभी आजकल पढ़ना-लिखना कितना जरूरी हो गया है। अगर मैं पढ़ी लिखी होती तो ...।’’

‘‘अच्छा, अच्छा,’’ भाभी ने बात काट कर कहा था, ’’कल सिया को लेकर प्राइमरी कन्या पाठशाला चली जाना।’’

भाभी, मैं सिया को सरकारी स्कूल में नहीं, इंगलिश माध्यम वाले स्कूल में डालना चाहती हूं, जिसमें अमित और अनन्या पढ़ते हैं।’’

सुनकर भाभी एकदम बिफ़र पड़ी, ‘‘ओ हो, महारानी के अरमान तो देखो हमारे बच्चों से बराबरी करेंगी। बेटी पर इतना गुमान है तो फिर इसे लेकर इसके बाप के घर क्यों नहीं चली जाती? वहां तो ठिकाना नहीं लगा और हमसे सीनाजोरी करती है। हम पे ऐसे रौब गांठ रही है, जैसे हमने ठेका ले रखा है।’’

‘‘न, न, भाभी, मैं कोई रौब नहीं गांठ रही मैं तो बस ...।’’ कन्तो रोने लगी, मगर भाभी का दिल नहीं पसीजा और वह भीतर चली गई। भइया ने भी भाभी का अनुसरण किया। भाई की चुप्पी से कन्तो मर्माहत हो उठी। पहली बार उसके अन्दर विद्रोह की भावना जगी। ‘‘उह, सारे दिन मैं खटती रहती हूं। कुछ नहीं कहती तो सिर्फ अपनी सिया के लिए। अगर ये लोग मेरी बेटी के लिए कुछ नहीं कर सकते तो फिर मैं ही जानमारी क्यूं करूं? मजदूरी-टहल ही करनी है तो फिर कहीं भी करके दो रोटी पेट में डालने का जुगाड़ कर लूंगी।’’

अगले ही दिन कन्तो बेटी की उंगली पकड़ बस मे चढ़कर शहर में सुरतियां भौजी के पास आ गई। सुरतिया भौजी उसी के गांव की थी, जो काफी दिनों से शहर में रहती थी। उसका पति राजगी़र था, मगर पति की मृत्यु के बाद उसने लोगों के घरों में बर्तन-चौका करना शुरू कर दिया था। सुरतिया भौजी ने भरपूर मदद की। उसने कन्तो को अपने कमरे के बगल वाला कमरा डेढ़ हजार रुपया महीने में किराए पर दिलवा दिया था। उसने ही कन्तो को कालोनी के कुछ घरों में अपनी जमानत पर बर्तन मांजने व साफ-सफाई का काम दिलवा दिया था। जब भाई को पता चला तो फिर वे उसे लेने आए थे। उनका कहना था कि कन्तो के इस तरह काम करने से उनकी बदनामी होगी, मगर कन्तो गांव लौटने को राजी न हुई, बोली, ‘‘भइया, देश चोरी, परदेश भीख बराबर होती है। अब मुझे यही रहने दो। गांव तो मैं जभी आऊंगी, जब मेरी सिया कुछ बन जाएगी।

तब से लेकर आज तक वह सिर्फ एक ही अरमान लिए जीवन बिता रही है कि सिया को काबिल मानुष बनाना है, बीते बरस सिनेमा की रील की तरह उसकी आंखों के सामने एक के बाद एक आ रहे थे। इतने कष्ट-मशक्कत के साथ उसने ये समय गुजारा है कि वही जानती है। बड़ी मुश्किल से उसने चार पैसे जमा किए हैं, मगर नोटबंदी ने एक नई मुसीबत खड़ी कर दी। वह चारपाई से उठ बैठी और एक बार फिर चावल के कनस्तर से डिब्बा निकाल कर रुपयों को छौने की तरह सहलाने लगी। अपनी गाढ़ी कमाई को यूं मिट्टी में मिलते देख उसका रोया-रोया दुखी हो उठा। दोनों हाथ ऊपर उठा कर ईश्वर से प्रार्थना करने लगी ‘‘हे दीनानाथ, मुझ गरीब पर दया करो। अब तुम ही हमारी नाव के खेवनहार हो।’’ कन्तो फिर आकर चारपाई पर लेट गई मगर नींद न आई।

अगले दिन जब कन्तो काम करने के लिए गई तो उसका काम में जी नहीं लग रहा था। उसके कान बस यही सुनने में लगे थे कि नोटबंदी के विषय में कौन क्या बातें कर रहा है। लोगों के मुंह से तरह-तरह की बातें निकलकर उसके जेहन में घुसकर गड्ड-मड्ड होने लगी। इसीलिए जब वह विनीता के यहां पहुंची तो बोली, ‘‘बहू जी, अगर किसी के पास पुराने वाले हजार-पांच सौ के नोट हों तो उन्हें कैसे ‘नए’ नोट में बदला जा सकता है।’’ कन्तो की बात सुनकर विनीता को शंका हुई, पूछा, ‘‘क्या बात है चाची? तुम्हारे पास है क्या पुराने नोट?

एक बार तो कन्तो ने सोचा कि विनीता को सब सच-सच बता दे, मगर अगले ही पल उसे ख्याल आया कि इससे बहू जी उसे झूठा समझने लगेंगी, क्योंकि अभी दो दिन पहले उसने विनीता से यह कह कर रुपए एडवांस लिए थे कि उसे राशन खरीदना है। अब वो ये कैसे कह दे कि उसके पास पूरे चालीस हजार नोट है। बोली, ‘‘नहीं बहू जी, मैं तो यूं ही जानकारी हासिल कर रही थी।’’

‘‘अच्छा, अच्छा, देखो चाची मोटा-मोटा समझ लो कि बाजार में सौदा सुलक तो पुराने नोटों से खरीदा न जा सकेगा। हां, इन्हें सीधे खाते में जमा किया जा सकता है। थोड़े-बहुत नोट आदमी लाइन में लगकर बदल लें, मगर इसके लिए आई.डी. यानी पहचान-पत्र जरूरी है। विनीता की बात सुनकर कन्तो ‘हुम्म’ कह कर चुप हो गई। मन में मलाल हुआ कि सिया कब से कह रही थी कि मां, एक खाता बैंक में खुलवा लो मगर तब उसने कहा था, ‘‘बेटा हम गरीब लोग खाता-साता क्या करेंगे। इतने पैसे तो हम पे है नहीं कि खाता खुलवाए। जितनी देर बैंक में लाइन लगाएंगे, उतनी देर में एक घर का काम निपटा लेंगे।’’

‘‘मां तुम हमेशा थोड़े न यूं ही काम करोगी। बस एक दो साल बाद मेरी पढ़ाई पूरी हो जाएगी। तब मैं काम करूंगी और तुम आराम। समझी।’’

‘‘हां, हां, क्यों नहीं? वह दिन तो आए, तभी खाता भी खुलवा लूंगी। उसने हंस कर कहा था। अब सोच रही थी, काश उसने सिया की बात मान ली होती तो इतनी परेशानी न होती। उसे लगा जैसे हाथ-पैरों में जान ही बाकी नहीं है।

कन्तो को यूं गुमसुम देखकर विनीता पूछा, ‘‘क्या बात है चाची, तुम्हारी तबीयत तो ठीक हैं?’’

‘‘कुछ नहीं, बहू जी बस थोड़ा सिर दर्द कर रहा है।’’

विनीता ने उससे कहा कि ‘‘एक कप चाय बना कर पी लो, चाची, मैं सिरदर्द की गोली दे दूंगी।’’ कन्तो चाय बना रही थी, उसी समय डाक्टर निषीथ आ गए थे। उन्होंने विनीता को दो हजार का नया नोट देते हुए कहा ‘‘विनी, ये देखो दो हजार का नोट।’’

कन्तो जब चाय देने आई तो विनीता ने उसे नोट देते हुए कहा था, ‘‘लो चाची, तुम भी मुंह दिखाई कर लो।’’ कन्तो ने गुलाबी रंग के नए नोट को हाथ में लेकर उलट-पलट कर वापस कर दिया। वाचाल कन्तो को चुप देख कर बोली, ‘‘क्या हुआ चाची, नोट पसंद नहीं, आया?’’

कन्तो ने कहा, ‘‘नोट तो नोट है, उसकी कीमत होती है। अच्छा या बुरा नहीं होता उसे अपने घर में डिब्बे में रखे नोट याद हो आए। उसका जी रोने रोने को हो आया।

कन्तो जब घर लौट रही थी, तब सन्ध्या अवसान पर थी परन्तु बैंको और ए.टी.एम. के बाहर अभी भी लाइन लगी हुई थी। उसने सोचा, कल वह भी लाइन में लगकर अपने नोट बदलवा लेगी।

दूसरे दिन कन्तो ने डिब्बे से हजार के चार नोट निकाल कर एक रूमाल में बांध कर ब्लाउज के नीचे खिसका लिए और बैंक की लाइन में जाकर लग गई। उसने सुरतिया भौजी को मन ही मन धन्यवाद दिया, जिसने जबरदस्ती उसका आधार कार्ड बनवा दिया था। नहीं तो, आज वह नोट न बदल पाती।

लाइन में खड़े-खड़े उसकी टांगे दुखने लगी थी, मगर लाइन थी कि कम ही नहीं हो रही थी। उसने सोचा उसका नम्बर आने में अभी कम से कम दो घण्टे और लगेंगे। उसका मुंह प्यास के मारे सूखने लगा, मगर वह लाइन से नहीं हटी कि पता नहीं दुबारा लाइन में लग पाएगी या नहीं। तभी बैंक के बाहर खड़े गार्ड ने कहा, ‘‘पैसा समाप्त हो गया है, कल आना।’’

इतना कह कर उसने खिड़की पर ‘कैश नहीं है’ का बोर्ड रख दिया। इस खबर से अफरा-तफरी मच गई। पुलिस बुलाई गई, तब कहीं जाकर भीड़ काबू में आ सकी।

कन्तो किसी तरह घर पहुंची। सिया दरवाजे पर इंतजार करती मिली। पूछा, ‘‘मां कहां चली गई थी? सुबह कुछ कहा भी नहीं था। काम पर भी नहीं गई। विनीता आंटी ने फोन किया था।’’

कन्तो ने कुछ जवाब नहीं दिया और कमरे में प्रवेश कर गई। अन्दर आकर देखा कि उसकी अनुपस्थित में सिया ने खाना बना लिया है। उसे अपनी बेटी पर बड़ा प्यार आया, परन्तु वह उसे जाहिर नहीं कर सकी। पता नहीं, क्यूं, वह अकसर अपनी बात को सही ढंग से व सही समय पर कहने में चूक जाती है। यही चूक उससे तब भी हुई थी, जब बहू जी ने उससे हजार-पांच सौ के नोटों के विषय में पूछा था। अगर तभी बता देती तो शायद कुछ हल निकल आता। वह निढाल होकर चारपाई पर गिर पड़ी। सिया घबरा गई। उसने मां का माथा छुआ। कन्तो को बुखार नहीं है, उसे तसल्ली हुई। वह एक थाली में रोटी सब्जी ले आई, ‘‘मां कुछ खा लो।’’

‘‘मुझे भूख नहीं है।’’

‘‘अगर तुम न खाओगी तो मैं भी न खाऊंगी।’’ बेटी की जिद के आगे हारकर कन्तो ने दो-चार कौर पानी की सहायता से हलक से नीचे उतारे और पुनः लेट गई। रात भर वह लाल हरे रंग को गुलाबी रंग में बदलती देखती रही।

दिन यूं ही बीत रहे थे। जैसे-जैसे नोट बदलने की मियाद खत्म हो रही थी, कन्तो की चिंता बढ़ रही थी। वह तीन चार बार लाइन में लग चुकी थी। मगर नोट केवल एक बार बदल पाई थी।

जिस दिन लाइन में लगती पूरा दिन बेकार हो जाता। उस दिन काम करने न जा पाती, जिसके कारण उसे मालिकों की चार बातें सुनने को मिलती। जब कोई राह न सुझाई दी तो फिर वह भगवान की शरण में पहुंची।

समीप के राधा-कृष्ण मंदिर पहुंच कर कन्तो, मूर्ति युगल के सामने हाथ जोड़ नेत्र बंद कर की खड़ी हो गई, ‘‘हे भगवान, अब मुझ अबला की इज्जत तुम्हारे हाथ है। मैंने जीवन भर क्या-क्या कष्ट नहीं देखे। भगवन्! तुम तो अन्तर्यामी हो, सब जानते हो। तुम दयालु हो, तभी तो तुमने सुदामा के साथ दोस्ती निभाई थी। मैं भी गरीब-दुखियारी तुम्हारे सामने हाथ जोड़ती हूं, तुमसे विनती करती हूं। रक्षा करो, प्रभो! रक्षा करों।”

वह बहुत देर तक यूं ही प्रार्थना करती रही। उसके मन में यह विचार आया कि वह धन की पोटली मंदिर में लगे दान-पात्र में डाल दे। मगर जिस धन को जीवन भर कौड़ी-कोड़ी जोड़ा। उसे यूं ही दान पेटी में डाल देने की हिम्मत न जुटा पाई। दिल से आवाज आई, ‘अब ये भगवान के काम भी न आवेंगे। अब से ये रुपये नहीं, ‘कागज है कागज’।

कन्तो जब मंदिर की सीढ़ियां उतर रही थी, तभी उसे सुरतिया का लड़का रमेश दिखाई दिया। वह एक निहायत बिगड़ा हुआ आवारा किस्म का लड़का था। दिन भर मटर गश्ती करना, राह चलती लड़कियों को छेड़ना, फिकरेबाजी करना, उल्टे-सीधे गाने गाना, यही सब उसका शगल था। उसके ऐबों के कारण कन्तो उसे बिल्कुल भी पसन्द नहीं करती थी। उसने सिया को रमेश से दूर रहने की सख्त हिदायत दे रखी थी। वह रमेश से बचकर निकल जाना चाहती थी। किन्तु रमेश ने खुद ही टोक दिया, ‘‘बुआ, चरण स्पर्श, आशीर्वाद दो।’’

‘खुश रहो’ आशीर्वाद देते समय कन्तो ने देखा कि रमेश, पहले की अपेक्षा काफी संवरा है। कपड़े भी नए पहन रखे हैं। पूछा, ‘‘क्यों रे रमेश, कहीं काम-धाम करने लगे हो क्या?’’

‘‘हां, बुआ, आज कल नोट बदलने का काम कर रहा हूं।’’

सुनकर कन्तो चौंक पड़ी, ‘‘अच्छा, कैसे?’’

कन्तो की बात का जवाब न देकर रमेश ने कहा, ‘‘बुआ दो मिनट रुको, जरा, भगवान को प्रसाद चढ़ा आऊं।’’

और कोई दिन होता तो कन्तो कदापि न रुकती, मगर आज की बात अन्य दिनों से अलग थी। इसलिए चुपचाप खड़ी रही।

थोड़ी ही देर में रमेश मंदिर से लौट आया। कन्तो को प्रसाद देता हुआ बोला, ‘‘अब पूछो, बुआ, क्या पूछ रही थी?’’

‘‘अरे बेटा बस यही कि तुम नोट कैसे बदलते हो? क्या तुम्हारे पास भी पुराने नोट हैं?’’

‘‘मेरे पास नोट कहां बुआ? मगर ये जो बड़े लोग हैं न, वे मुझे हजार-पांच सौ के नोट देते हैं। मैं अपनी आई.डी. लगाकर उनके नोट लाइन में लग कर बदलवा देता हूं और मुझे मेरा परसेन्ट मिल जाता है। अब ये अमीर आदमी तो लाइन में नहीं न लगेगा।’’

कन्तो को चुप देखकर वह फिर बोला, ‘‘अभी भी मैंने अपनी पुरानी चप्पलें वो पास वाली बैंक के सामने लाइन में लगा रखी हैं। जब बैंक खुलेगा तो लाइन में लग जाऊंगा।’’ सुनकर कन्तो को लगा ये रमेश तो बड़ा होशियार है।

कुछ ही देर में कन्तो का घर आ गया तो उसने रमेश को अन्दर बुलाया और सिया से चाय बनाने को कह कर पूछा, ‘‘बेटा, ये बताओ कि अगर किसी के पास थोड़ा ज्यादा रुपिया हो तो क्या करें?’’

रमेश को अन्देशा हुआ कि ‘जरूर कन्तो बुआ के पास रुपए हैं। उसने बात बढ़ाई, ‘‘अरे बुआ, क्या तुम्हारे पास भी पुराने वाले लाल हरे नोट हैं?’’

कन्तो कुछ न बोली तो शक यकीन में बदल गया, कहा, ‘‘बुआ परेशान क्यों है? सीधे बैंक जाकर आपने खाते में जमा कर दो।’’

‘‘अरे बेटा, खाता कहां है? हम गरीब आदमी दुनिया के पचड़े क्या जानें?’’

‘‘हूं, तब तो फिर परेशानी की बात है। मेरा खाता है, मगर ...’’ कहकर उसने वाक्य अधूरा छोड़ दिया तो कन्तो बोली, ‘‘मगर क्या?’’

‘‘कुछ नहीं, वो मैंने किसी दूसरे का पैसा अपने खाते में जमा करने का वचन दे रखा है। बीस परसेन्ट पर बात पक्की हुई है।’’

‘‘बेटा, तुम जो दूसरे से ले रहे हो, हमसे ले लो, मगर मेरा रुपया अपने खाते में जमा कर लो।’’

‘‘अरे, नहीं बुआ, हमारी बात झूठी हो जाएगी। यह वादा खिलाफी होगी।’’

सुरतिया भौजी, जो रमेश को कन्तो के घर में घुसते देख कर आ गई थी और अब तक दोनों की बातें सुन रही थी, बोली, ‘‘हो जाने दो वादाखिलाफी! गांव का हेत-व्यौहार भी तो होता है। तुम कन्तो जीजी का पैसा ही अपने खाते में डालोगे। समझे।’’

रमेश ने यूं भी किसी से कोई वादा नहीं कर रखा था। यूं ही रोज लाइन में लग कर दो चार हजार रुपये बदले देता था। यह तो उसने कन्तो को फंसाने के लिए ही चाल चली थी, जिससे कि ज्यादा से ज्यादा रुपये ऐंठ सके। वह यह भी जानता है कि बुआ उसके बारे में अच्छे खयालात नहीं रखती है इसलिए कन्तो से छल करने में उसे कोई बुराई नज़र नहीं आई। सो उसने अपना दांव फेंका और सुरतिया से कहने लगा, ‘‘मां तुम नहीं जानती हो, इस समय दूसरे का पैसा अपने खाते में डालना जान जोखिम में डालना है। फिर विश्वास भी रखना पड़ता है।’’

सुरतिया कुछ कहती उससे पहले ही कन्तो बोली, ‘‘बेटा, मैं सब जानती हूं। अब तुमसे ज्यादा विश्वसनीय दूसरा कौन हो सकता है? तुम अपने खाते में मेरे रुपये जमा कर लो।’’

‘‘मगर ...।’’

‘‘अब अगर मगर कुछ नहीं! बीस परसेन्ट पर बात पक्की है।’’

बुआ एक बात और है, ये रूपए इतनी जल्दी न निकल पाएंगे। जब मामला थोड़ा ठण्डा पड़ जाएगा, तब ...।’’

‘‘अरे, कोई जल्दी नहीं है, तुम कोई गैर थोड़ी न हो।’’

‘‘ठीक है, लाओ रुपये दे दो।’’

रुपए रमेश को थमा कर कन्तो ने चैन की सांस ली।

 

डॉ0 रश्मिशील - परिचय

जन्म तिथि : 1 जनवरी 1967

जन्म स्थान : उन्नाव

शिक्षा : पीएच0डी0

लेखन प्रवृत्ति : कविता, कहानी, समीक्षा, नाटक, बालफिल्म, वृत्तचित्र, रूपक, वार्ता आदि

फिल्म : ‘विद्या’, ‘मुट्ठी भर आकाश’, मास्टर जी

पत्रकारिता : संयुक्त संपादक, अपरिहार्य, लखनऊ, अवधी ग्रंथावली के पंचम खण्ड के संपादक मंडल की सदस्या और लेखकीय सहयोग, अनुभव की सीढ़ी (सम्पादित)

प्रकाशन : ‘कोखजाए’, ‘प्रजातांत्रिक विकेन्द्रीकरण में जन सहभागिता’, रज्जो जीजी, ‘वसंत’ अभ्यास पुस्तिका (1,2,3), ‘सुरभि’ व्याकरण एवं रचना (6 से 8)

सम्मान/पुरस्कार : विभिन्न प्रतिष्ठित संस्थाओं द्वारा पुरस्कृत एवं सम्मानित।

संबद्ध : राज्य कर्मचारी साहित्य संस्थान, उ0प्र0 सहित अनेक संस्थाओं से सम्बद्ध।

सम्पर्क ई-मेल - rashmisheel.shukla@gmail.com

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