सुधा गोयल 'नवीन' की कहानी
"अलमारी"
अलमारी
अलमारी ........ आप भी सोचेंगे यह भी क्या विषय हुआ जिस पर कुछ कहा जाए या फिर कहा जा सकता है, उस पर से मैंने धृष्टता की है, अल्मारी को लेकर कहानी लिखने की। पर सच मानिए मेरी कहानी की नायिका रानी, उस की खुशी, उत्साह, जीवन को देखने का रवैया और उसकी सोच में आये विस्मयकारी परिवर्तन को देखकर मेरी लेखनी स्वतः चल पड़ी। इसके पहले कि मैं आपका परिचय अपनी नायिका रानी से करवाऊं, मैं अल्मारी से जुड़े कुछ अपने खट्टे-मीठे अनुभव बाँटना चाहती हूँ।
आज से पचास साल पहले जब पहली बार हमारे घर (मेरे मायके) में अलमारी ने प्रवेश किया था तब हम बच्चों का उत्साह देखते बनता था।
भंडार-घर में ठेर सारे संदूक और संदूकचियां एक के ऊपर एक रखे रहते। घर में जितने सदस्य उतने संदूक तो होते ही उसके अतिरिक्त माँ का, दादी व् दादा का एक -एक प्राइवेट सन्दूक, बाबूजी का कागज़-पत्रों से भरा अलग एक संदूक, ऊल-झलूल सामान वाला एक टूटा-फूटा संदूक ------ कहने का तात्पर्य है कि एक पूरा कमरा संदूक से भरा रहता फिर भी सामान, कपड़े, बहुमूल्य वस्तुएं रखने की जगह कम ही पड़ती। यदि पांच में से किन्ही दो बच्चों को एक सन्दूक शेयर करना पडता तो रोज़ लड़ाइयाँ होतीं।